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मंगलवार, 9 जनवरी 2024

सॉनेट, राधोपनिषद, राउत नाचा, छत्तीसगढ़ी, यायावर, हास्य, लालू, गीत, निर्माण, तसलीस,

सलिल सृजन ९ जनवरी 
सॉनेट
गौरैया कलरव करे, तुलसी जाए झूम,
बरगद बब्बा खाँसते, पीपल कक्का मौन,
इमली दादी टेरतीं, चैया देगा कौन,
ठुमक गिलहरी नाचती, नन्हें शिशु को चूम।।
बया-कबूतर मचाते, बैठ मुँडेरे धूम।
शुगर समझ के डालती, नीम बहुरिया नौन।
ननद चमेली मजा ले, देख तमाशा भौन।।
बिखरी लट-बिंदी कहे, बिना कहे जो राज,
सदा सुहागन लाज से, हुई लाल रतनार,
चूड़ी खनक खनक कहे, भाया चंपा खूब।
बैंगन देवर खिजाता, शीश सजाए ताज,
बिन पेंदी का लुढ़कता, आलू खाता खार,
भोर भई सूरज-उषा, हँसे हर्ष में डूब।
९.१.२०२४
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राधोपनिषद
*
शंख विष्णु का घोष सुन, क्षीर सिंधु दधि मग्न।
रमा राधिका रुक्मिणी, है हरि साथ निमग्न।।
ब्रह्म साथ जो प्रगटते, वे वैकुण्ठी मित्र।
विविध रूप धर प्रगटते, है यह सत्य विचित्र।।
नीलांबर प्रभु-छत्र है, व्यास आदि वंदन करें।
प्रभु महिमा का गान, करें सिंधु भव वे तरें।।
गदा कालिका, धनुष है, माया शर है काल।
कमल धरें लीला करें, भक्ति धारते भाल।।
गोप-गोपियों से नहीं, भिन्न आप गोपाल।
स्वर्ग निवासी अवतरे, प्रभु के संग निहाल।।
कृष्ण धाम वैकुण्ठ है, जाने देहातीत।
राम-कृष्ण दोउ एक हैं, दो हों भले प्रतीत।।
भू पर आ वैकुण्ठ खुद, सत-रज-तम धरकर रूप।
प्रभु के साथ सतत रहे, है यह कथा अनूप।।
गूढ़ अर्थ सरला जमुन, रहें शारदा साथ।
कर संकल्प दाधीच सम, रानी थामे हाथ।।
वेद ऋचाएँ बन गईं, गोपी-रानी आप।
सत्यभामा भू रूप धर, सकीं कृष्ण में व्याप।।
देव कृष्ण सान्निन्ध्य पा, धन्य हो गए आप।
सलिल कृष्ण अभिषेक कर, तरा जमुन में व्याप।।
राधातापनीयोपनिषद
राधा पूजन क्यों करें, दे प्रकाश आदित्य।
कहें शक्ति दैवत्व की, है राधा भवितव्य।।
सकल जीव अस्तित्व में, राधा-शक्ति सुहेतु।
हैं इन्द्रियाँ समस्त सुर, चेष्टा राधा सेतु।।
भू भुव: स्व: आहुती, राधा शक्ति प्रणम्य।
राधा-कृष्ण न भिन्न हैं, युगल रूप अति रम्य।।
श्रुतियाँ विनत नमन करें, हो राधिका प्रसन्न।
कृष्ण आप सेवक बनें, चाहें कृपा विपन्न।।
दिव्य रासलीला निरख, भूले जस अस्तित्व।
अंक बसे श्रीकृष्ण जी, बिसरा दें निज स्वत्व।।
त्रय सप्तक स्वर सप्त मिल, गाएँ राधा-कीर्ति।
शक्ति-शक्तिधर एक हैं, भले दिखें दो मूर्ति।।
९.१.२०२३
***
छत्तीसगढ़ी रास राउत नाचा
*
छत्तीसगढ़ की लोकनृत्य की परंपरा में राउत नाचा ( अहीर नृत्य, मड़ई) का महत्वपूर्ण स्थान है। राउत नाचा नंद ग्राम के गोप-गोपिकाओं के साथ कृष्ण द्वारा गौ चरवाहे के रूप में गोवर्धन व कालिंदी के तट पर किए गए नृत्य नाट्य का ही रूपांतरित रूप है जो पार (दोहे) बोलकर कृष्ण भक्ति को अभिव्यक्त करने हेतु तन्मयता के साथ नृत्य प्रस्तुत कर भावातिरेक प्रसन्नता प्रदर्शित करते हैं। उनके विशेष परिधान में धोती के साथ सलूखा, जैकेटनुमा रंग-बिरंगा चमकदार आस्किट, पगड़ी या मुराठा बाँधकरकर गुलाबी, बैगनी, हरे, नीले रंग की कलगी व मयूरपंख खोंसे (लगाए) रहते हैं। साथ में बाँसुरी, सिंग बाजा, डाफ, टिमकी, गुरदुम, मोहरी, झुनझुना जैसे वाद्य यंत्र पंचम स्वर तक पहुँच कर नए दोहा पारने के अंतराल तक रुके रहते हैं और दोहा पारते ही वाद्य के साथ रंग-बिरंगे लउठी और फरी (लोहे का कछुआ आकृति का ढ़ाल जिसके ऊपरी सिरे पर अंकुश होता है जो ढाल के साथ-साथ नजदीकी लड़ाई या आक्रमण या सुरक्षा के समय अस्र के रूप में उपयोग किया जाता है) के साथ योद्धा की मुद्रा में शौर्य नृत्य करते हैं।
राउत प्रकृति से शांत व गौसेवक के रूप में धार्मिक-सहिष्णु होते हैं। पहले अलग-अलग गोलों में नाचते हुए पुरानी रंजिश को लेकर पहले मातर, मड़ई आपस में खूब झगड़ा करते थे। आजकल मंचीय व्यवस्था होने से वे कम झगड़ते हैं। हाथ में लाठी व ढाल के अस्त्र उन्हें योद्धा का रूप देता है और वे दोहा और वाद्य यंत्रों के थाप पर आक्रमण और बचाव करने के नाना रूपों में शौर्य नृत्य करते हैं। पहले दैहान में खोड़हर गाड़कर मातर पूजन करते हुये लोग खोड़हर के चारों ओर घूमते हुये गोल या दल बना कर राउत नृत्य करते थे। तात्कालीन मंत्री स्व. बी. आर. यादव जी के प्रयास से १९७७ से बिलासपुर में राउत नृत्य का नया रूप सामने आय। जब विविध गाँवों से आए राउत नाचा दल गोल बिलासपुर में रउताई नृत्य करते हुए शनीचरी का चक्कर लगाते थे। उनमें व्यक्तिगत व सामूहिक दुश्मनी लड़ाई में बदल जाती थी। इस दुश्मनी को समाप्त करने सभी गोल के लोगों के पढ़े-लिखे प्रमुखों के मध्य एक बैठक कर इस नृत्य को एक सांस्कृतिक मंच का रूप दिया गया। मंच के लिए सार्वजनिक संस्कृति समिति गठितकर शहर कोतवाली के पास राउत नृत्य का आयोजन किया जाने लगा। स्थान कम पड़ने पर राउत नृत्य मंच का स्थान बदल कर लालबहादुर शास्त्री विद्यालय के मैदान में पहले लकड़ी का मंच और बाद में ईंट-सीमेंट का पक्का मंच बनाकर राउत नाचा आयोजित किया जाने लगा। एक समय इन गोलों की संख्या सौ से ऊपर तक पहुँच गई थी किंतु ग्रामीण नवयुवकों के शहर की ओर पलायन के कारण अब राउत नाचा का अभ्यास करने वाले लोग कम संख्या में मिलते हैं। आजकल लगभग पचास नृत्य गोल (दल) रह गए हैं। इन गोलों की वृद्धि एवं संरक्षण हेतु प्रयास किए जाना आवश्यक है।
छेरता पूष पुन्नी के दिन सुबह घर-घर जाकर छेर-छेरता (शाकंभरी माँ और वामन देव के रूप में) दान याचना कर, दानदाता गृहस्थ किसान को अन्न धन से भंडार भरने व क्लेश से बचे रहने का आशीर्वाद देते हैं। इन आयोजनों में बतौर सुरक्षा पुलिस साथ रहती है जो भीड़ नियंत्रण व लोगों के अनधिकृत प्रवेश पर रोक लगाती है। इससे बाहर से आनेवाले यादव समाज का एक वर्ग नाराज रहता है। ७२ वर्षीय डा. मंतराम यादव ने राउत नाचा को १९९२-९३ से सांस्कृतिक मंच अहीर नृत्य कला परिषद का गठन, साहित्य सृजन हेतु रउताही स्मारिका प्रकाशन तथा साहित्यकार सम्मान का कर नाराज व असंतुष्ट वर्ग को विश्वास में लेकर देवरहट में अहीर नृत्य मंच आरंभ किया। उनके दादा जी के पास लगभग चार सौ गायें थीं तब छुरिया कलामी, लोरमी के जंगलों में दैहान-गोठान में गाय रखते थे। सभी गायें देशी थीं तथा एक गाय एक से डेढ़ लीटर दूध देती थी। औषधीय घास पत्ते, जड़ी बूटी चरने के कारण उनका दूध पौष्टिक व रोह दूर करनेवाला होता था। उउनके पूर्वज नाथ पंथी थे। जंगली हिंसक पशुओं से बचने के लिए नाथपंथी मंत्र (साबर मंत्र) जो वशीकरण मंत्र होता था से अपनी रक्षा कर लेते थे। दादा जी वैदकी जानते थे और सामान्य रोगों जैसे लाल आँखी हो जाना आदि को फूँककर तथा एक थपरा (तमाचा) मारकर शर्तिया ठीक कर दिया करते थे। दादा जी पशुओं का भी इलाज करते थे। पशुधन की महामारी से रक्षा करने के लिए सावन के सोमवार व गुरुवार को गाँव बाँधते थे। बैगा के साथ लोहार सभी घर के दरवाजे पर लोहे की कील ठोंकते थे, राउत लोग नीम पत्ता की डंडी बाँधकर अभिमंत्रित दही-मही छींटते थे। कोठा में ठुँआ (अर्जुन के बारह नाम लिखकर) टाँगने का टोटका करते थे। ठुँआ में आग को मंत्र से बाँधकर उस पर नंगे पैर चलते हैं। जैसे ज्वाला देवी की आग से पानी उबलता है पर पानी गर्म नहीं लगता उसी तंत्र का प्रकारांतर है ठुँआ। उनके पिता जी बारह भाई-बहन में सबसे छोटे थे तथा उनके पास दंवरी करने के लिए पर्याप्त बैल थे। आज भी बिलासपुर स्थित उनके घर में सात गोधन हैं। आजकल बच्चों में गौ सेवा में रुझान कम हो होते जाना चिंता का विषय है। गौ सेवा आर्यधर्म होने के कारण सभी हिंदुओं व विशेष कर नाथ परंपरा का पवित्र कर्म है।
आजकल लोग गायों को हरी घास, पैरा, कुट्टी नहीं खिलाकर जूठन या रोटी सब्जी, दाल, फास्टफुड, बिस्किट, ब्रेड आदि कुछ भी खिलाकर गौ सेवा का भाव प्रदर्शित करते हैं। धनपुत्रों द्वारा गौ शालाओं के लिए होटलों से सौ रोटी बनवाकर गौ सेवा का पुण्य कमाने का अहं दिखाने के स्थान पर हरी घास प्रदाय की व्यवस्था की जाए तो शुद्ध आयुर्वेदिक दुग्ध व पवित्र गोबर की प्राप्ति हो तथा घसियारों (घास की खेती वकरने वालों) को रोजगार मिले। अन्न आदि भोजन का गौ स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। देशी भारतीय गाय व संकर नस्ल की विदेशी गायों के दुग्ध व गोबर की गुणवत्ता में अंतर साफ दिखता है जिसे आम उपभोक्ता नजरंदाज करते दिख रहे है। गोबर में मैत्रेय जैविक संरचना व परि शोधन गुण होता है तथा पवित्रता भावित गुण से युक्त होता है जबकि गौमल अपशिष्ट का दुर्गंधयुक्त हानिकारक विसर्जन होता है। जंगल में चरनेवाली देशी गाय और डेरियों से प्रदाय किए जानेवाले दूध का पान करें तो पहले से स्वाद, गाढ़ापन व तृप्ति का अनुभव होगा जबकि दूसरे में महक तथा पतलापन अनुभव होगा।
नाथ पंथ:
सनातनधर्म के बौद्ध, जैन, सिख, आदि पंथों प्राचीन नाथ पंथ है जिनमें प्रमुख नौ नाथ व चौरासी उपनाथों की परंपरा है। नाथ पंथ की शक्ति स्रोत शिव (केदारनाथ, अमरनाथ, भोलेनाथ, भैरवनाथ,गोरखनाथ आदि) हैं। कलियुग में नाथ पंथ के प्रसिद्ध गुरु गोरखनाथ (गोरक्षनाथ) हुए हैं। लोकश्रुति के अनुसार गुरु गोरखनाथ का जन्म बारह वर्ष की अवस्थावाले बालक के रूप में गौ गोबर से हुआ, वे योनिज (स्त्री से उत्पन्न) नहीं थे। उन्होंने गौरक्षा के लिए जन जागरण अभियान चलाया तथा इस कार्य को साहित्य संहिताबद्ध कर अनेक ग्रंथ भी लिखे जिनमें अमवस्क, अवधूत गीता, गौरक्षक कौमुदी, गौरक्ष चिकित्सा, गौरक्ष पद्धति, गौरक्ष शतक आदि प्रमुख हैं। गुरु गोरख नाथ हठयोग सिद्ध योगी थे तथा गुरु मत्स्येंद्र नाथ के मानस पुत्र व शिव भगवान के अवतार थे। काया कल्प संपूर्णता उपरांत उन्होने समाधि ले ली। गोरखपुर में गुरु गोरखनाथ का प्रसिद्ध मंदिर है जिसके परंपरागत महंत योगी आदित्यनाथ आजकल उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री हैं।
साबर:
साबर मंत्र सरल होते हैं जो नवनाथ द्वारा मानव कल्याण के लिए बनाए गए थे। आम लोगों के जीवन की दैविक, दैविक, भौतिक ताप या समस्याओं का शमन करनेवाले इन मंत्रों की संख्या लगभग सौ करोड़ हैं। इन्हें एकांत में शुद्ध मन से शुद्ध वातावरण में सिद्ध अर्थात प्रत्येक मंत्र के लिए निर्धारित संख्या में उच्चरित कर याद कर मंत्रमुग्ध या सिद्ध किया जाता है। इन मंत्रों का प्रयोग मानव कल्याण के उद्देश्य से ही करने के गुरु निर्देश हैं, इन मंत्रों का अनुचित प्रयोग से संबंधित व्यक्ति के लिए क्षतिकारक व विपरीत प्रभाव डालने वाला होता है। इस मंत्र की सिद्धि के लिए तर्पण, न्यास, अनुष्ठान, हवन जैसे कर्मकांड की आवश्यकता नहीं पड़ती है। किसी भी जाति, वर्ण, आयु, लिंग का व्यक्ति इसकी साधना कर सकता है। इन मंत्रों का उपयोग धन, शिक्षा, प्रगति, सफलता, व्यापार व जोखिम से बचने के लिए किया जाता है। इन मंत्रों को सिद्ध योगी धमकी देकर एवं अन्य श्रद्धा भाव से प्रयोग कर सकते हैं। गुरु गोरखनाथ जी की ज्ञानगोदरी प्राप्त करने के लिए पवित्र संकल्प के साथ गौ सेवा व नाथ सेवा करनी पड़ती है।
सर्वप्रभावी मंत्र:
"ओम गुरुजी को आदेश, गुरुजी को प्रणाम, धरती माता, धरती पिता, धरनी धरे न धीर बाजे, श्रींगी बाजे, तुरतुरी आया, गोरखनाथ मीन का पूत मुंज का छड़ा लोहे का कड़ा, हमारी पीठ पीछे यति हनुमंत खड़ा,शब्द सांवा पिंड काचास्फुरो मंत्र ईश्वरो वाचा। "
भैरव मंत्र:
ॐ आदि भैरव जुगाद भैरव, भैरव है सब थाई। भैरो ब्रह्मा,भैरो ही भोला साइन।।
बाधा हरण मंत्र:
"काला कलवा चौसठ वीर वेगी आज माई, के वीर अजर तोड़ो बजर तोड़ो किले का, बंधन तोड़ो नजर तोड़ मूठ तोड़ो,जहाँ से आई वहीं को मोड़ो। जल खोलो जलवाई। खोलो बंद पड़े तुपक का खोलो, घर दुकान का बंधन खोलो, बँधे खेत खलिहान खोलो, बँधा हुआ मकान खोलो, बँधी नाव पतवार खोलो। इनका काम किया न करे तो तुझको माता का दूध पिया हराम है।
माता पार्वती की दुहाई। शब्द सांचा फुरो मंत्र वाचा।"
गुरु गोरखनाथ मंत्र:
ॐ सोऽहं तत्पुरुषाय विद्यहे शिव गोरक्षाय धीमहि तन्नो गोरक्ष प्रचोदयात् ॐ।
विद्या प्राप्ति मंत्र:
ॐ नमो श्रीं श्रीं शश वाग्दाद वाग्वादिनी भगवती सरस्वती नमः स्वाहा। विद्या देहि मम ऋण सरस्वती स्वाहा।।
लक्ष्मी प्राप्ति मंत्र:
ॐ ॐ ऋं ऋं श्रीं श्रीं ॐ क्रीं कृं स्थिरं स्थिरं ॐ।
उल्लेखनीय है कि राउत नाचा करनेवाले कृष्णभक्तों और नाथ संप्रदाय के शिवभक्तों के मध्य शृद्ध-विश्वास का ताना-बाना सदियों से सामाजिक स्तर पर बना। पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली से शिक्षित पीढ़ी मंत्र-तंत्र को त्याज्य व् अन्धविश्वास कहती है जबकि पुरानी पीढ़ी इनकी सत्यता प्रमाणित करती है। वस्तुत: किसी भी पारंपरिक विद्या परीक्षण किए बिना उसे ख़ारिज नहीं किया जाना चाहिए। राउतों द्वारा गौ के आहार पर दूध की गुणवत्ता व प्रभाव तथा शाबर मंत्रों के प्रभावों पर विज्ञान सम्मत शोध कार्य होना चाहिए। मन्त्रों का ध्वनि विज्ञान सिद्धांतों पर परिक्षण हो, उनके सामाजिक तथा वैयक्तिक प्रभाव का आकलन हो। राउत नाचा और गौपालन तथा गौ संरक्षण विद्या आधुनिक डेयरी प्रणाली के दुग्ध उत्पाद गुणवत्ता और प्रभाव पर परीक्षण जाएँ तो विज्ञान सम्मत निष्पक्ष निष्कर्ष पर सकेगा।
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पुस्तक सलिला-
'झील अनबुझी प्यास की' : गाथा नवगीती रास की
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[पुस्तक विवरण - झील अनबुझी प्यास की, नवगीत संग्रह, डॉ. रामसनेही लाल शर्मा 'यायावर', वर्ष २०१६, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द जैकेट सहित, बहुरंगी, पृष्ठ १२८, मूल्य ३०० रु., उत्तरायण प्रकाशन, के ३९७ आशियाना कॉलोनी, लखनऊ २२६०१२, नवगीतकार संपर्क ८६ तिलक नगर, बाई पास रोड, फीरोजाबाद २८३२०३, चलभाष ९४१२३ १६७७९, dr.yayavar@yahoo.co.in ]
सरसता, सरलता, सहजता, सारगर्भितता तथा सामयिकता साहित्य को समय साक्षी बनाकर सर्वजनीन स्वीकृति दिलाती हैं। डॉ. रामसनेही लाल शर्मा यायावर और गीत का नाता इस निकष पर सौ टका खरा है। गीत, मुक्तक, दोहा, हाइकु, ग़ज़ल, कुण्डलिनी, निबंध, समीक्षा तथा शोध के बहुआयामी सृजन में निरंतर संलग्न यायावर जी की सत्रह प्रकाशित कृतियाँ उनके सर्जन संसार की बानगी देती हैं। विवेच्य कृति 'झील अनबुझी प्यास की' का शीर्षक ही कृति में अन्तर्निहित रचना सूत्र का संकेत कर देता है। प्यास और झील का नाता आवश्यकता और तृप्ति का है किन्तु इस संकलन के नवगीतों में केवल यत्र-तत्र ही नहीं, सर्वत्र व्याप्त है प्यास वह भी अनबुझी जिसने झील की शक्ल अख्तियार कर ली है। झील ही क्यों नदी, झरना या सागर क्यों नहीं? यहाँ नवगीतकार शीर्षक में ही अंतर्वस्तु का संकेत करता है। कृति के नवगीतों में आदिम प्यास है, यह प्यास सतत प्रयासों के बावजूद बुझ नहीं सकी है, प्यास बुझाने के प्रयास जारी हैं तथा ये प्रयास न तो समुद्र की अथाह हैं कि प्यास को डूबा दें, न नदी के प्रवाह की तरह निरंतर हैं, न झरने की तरह आकस्मिक है बल्कि झील की तरह ठहराव लिये हैं। झील की ही तरह प्यास बुझाने के प्रयासों की भी सीमा है जिसने नवगीतों का रूप ग्रहण कर लिया है।
डॉ. यायावर समाज में व्याप्त विसंगतियों और पारिस्थितिक वैषम्य को असहनीय होता देखकर चिंतित होते हैं, उनकी शिक्षकीय दृष्टि सर्व मंगल की कामना करती है। 'मातु वागीश्वरी / दूर कर शर्वरी / सृष्टि को / प्राण को / ज्योति दे निर्झरी / मन रहे इस मनुज का / सदा छलरहित / उज्ज्वलम्, उज्ज्वलम्'। डॉ. यायावर के लिये नवगीत ही नहीं सकल साहित्य साधना 'उज्ज्वलम्' की प्राप्ति का माध्यम है, वे क्रांति की भ्रान्ति से दूर सर्व मंगल की कामना करते हैं। सभ्यता, संस्कृति, संस्कार के सोपानों से मानवीय उत्थान-पतन को देख यायावर जी का नवगीतकार मन चिंतित होता है 'खिड़कियाँ खुलती नहीं / वातायनों में / राम गायब / आधुनिक रामायणों में / तख्त पर बैठे मिले / अंधे अँधेरे / जुगनुओं से हारते / उजले सवेरे / जान्हवी अब पंक से / धोई हुई है / क्या करें? / कैसे बचायें?' विसंगतियों से निराश न होकर कवि उपाय खोजने के लिये प्रवृत्त होता है।
नवगीत को खौलाती संवेदन की वर्ण-व्यंजना अथवा मोम के अश्व पर सवार होकर दहकते मैदान पर चक्कर लगाने के समान माननेवाले यायावर जी के नवगीतों में संवेदना, यथार्थ, सामाजिक सरोकार तथा संप्रेषणीयता के निकष पर खरे उतरने वाले नवगीतों में गीत से भिन्न कथ्य और शिल्प होना स्वाभाविक है। 'अटकी आँधियाँ / कलेजों में / चेहरों पर लटकी मायूसी / जन-मन विश्वास / ठगा सा है / कर गया तंत्र फिर जासूसी / 'मौरूसी हक़' पा जाने में / राजा फिर समर्थ हुआ'।
यायावर जी का प्रकृतिप्रेमी मन जीवन को यांत्रिकता के मोह-पाश में दम तोड़ते देख व्याकुल है- ' 'रोबोटों की इस दुनिया में / प्रेम कथायें / पागल हो क्या? / मल्टीप्लेक्स, मॉल, कॉलोनी / सेंसेक्स या सेक्स सनसनी / क्रिकेट, कमेंट्री, काल, कैरियर / टेररिज़्म या पुलिस छावनी / खोज रहे हो यहाँ समर्पण / की निष्ठाएँ / पागल हो क्या? / लज्जा-घूँघट, हँसता पनघट / हँसी-ठिठौली, कान्हा नटखट / भरे भवन संवाद आँख के / मान-मनौवल नकली खटपट / खोज रहे हो वही प्यार / विश्वास-व्यथाएँ / पागल हो क्या?' जीवन के दो चेहरों के बीच आदमी ही खो गया है और यही आदमी यायावर के नवगीतों का नायक अथवा वर्ण्य विषय है- 'ढूँढ़ते हो आदमी / क्या बावले हो? / इस शहर में? / माल हैं, बाजार हैं / कालोनिया हैं - ऊबते दिन रात की / रंगीनियाँ हैं / भीड़ में कुचली / मरीं संवेदनाएँ / ढूँढ़ते स्वर मातमी / क्या बावले हो? / इस शहर में?
ये विसंगतियाँ सिर्फ शहरों में नहीं अपितु गाँवों में भी बरक़रार हैं। 'खर-पतवारों के / जंगल ने / घेर लिया उपवन / आदमखोर लताएँ लिपटीं / बरगद-पीपल से / आती ही / भीषण बदबू / जूही के अंचल से / नीम उदासी में / डूबा है / आम हुआ उन्मन।' गाँव की बात हो और पर्यावरण की फ़िक्र न हो यह कैसे संभव है? आम हुआ उन्मन, पुरवा ने सांकल खटकाई, कान उमेठे हैं, मौसम हुआ मिहिरकुल, कहाँ बची, भीतर एक नदी शीर्षक नवगीतों में प्रकृति और पर्यावरण की चिंता मुखर हुई है।
कुमार रवीन्द्र के अनुसार 'नवगीत दो शब्दों 'नव' तथा 'गीत' के योग से बना है। अत:, जब गीत से नवता का संयोग होता है तो नवगीत कहा जाता है। गीत से छांदसिकता और गेयता तथा नव का अर्थ ऐसी नव्यता से है जिसमें युगबोध, यथर्थ-चिंतन, सामाजिक सरोकार और परिवेशगत संवेदना हो।' डॉ. यायावर के नवगीत आम आदमी की पक्षधरता को अपना कथ्य बनाते हैं। यह आम आदमी, शहर में हो या गाँव में, सुसंस्कृत हो या भदेस, सभ्य हो या अशिष्ट, शुभ करे या अशुभ, ऐश करे या पीड़ित हो नवगीत में केवल उपस्थित अवश्य नहीं रहता अपितु अपनी व्यथा-कथा पूरी दमदारी से कहता है। आस्था और सनातनता के पक्षधर यायावर जी धार्मिक पाखंडों और अंधविश्वासों के विरोध में नवगीत को हथियार की तरह इस्तेमाल करते हैं। 'गौरी माता, भोले शंकर / संतोषी मैया / सबका देंगे दाम / बताते हैं दलाल भैया / अंधी इस सुरंग के / भीतर है / लकदक दुनिया / बड़े चतुर हैं / बता रहे थे / पश्चिम के बनिया / तुमको तरह-तीन करेंगे / बड़े घाघ बनजारे हैं / गोधन-गोरस / गाय गोरसी / सबकी है कीमत / भाभी के घूँघट के बदले / देंगे पक्की छत / मंदिर की जमीन पर / उठ जायेगा / माल नया / अच्छे दिन आ गए / समझ लो / खोटा वक़्त गया / देखो / ये बाजार-मंडियां / सब इनके हरकारे हैं।'
वैश्वीकरण और बाज़ारीकरण से अस्त-व्यस्त-संत्रस्त होते जन-जीवन का दर्द-दुःख इन नवगीतों में प्रायः मुखरित हुआ है। बिक जा रामखेलावन, वैश्वीकरण पधारे हैं, इस शहर में, पागल हो क्या?, बाज़ार, क्षरण ही क्षरण बंधु आदि में यह चिंता दृष्टव्य है। मानवीय मनोवृत्तियों में परिवर्तन से उपजी विडंबनाओं को उकेरने के यायावर जी को महारथ हासिल है। धर्म और राजनीति दोनों ने आम जन की मनोवृत्ति कलुषित करने में अहं भूमिका निभायी है।यायावर जी की सूक्ष्म दृष्टि ने यह युग सत्य रजनीचर सावधान, खुश हुए जिल्लेसुभानी, आदमी ने बघनखा पहना, शल्य हुआ, मंगल भवन अमंगलहारी, सबको साधे, शेष कुशल है शीर्षक नवगीतों में व्यक्त किया है।सामाजिक मर्यादा भंग के स्वर की अभिव्यक्ति देखिए- ' घर में जंगल / जंगल में घर / केवल यही कथा / तोताराम असल में / तेरी-मेरी एक व्यथा / धृष्ट अँधेरे ने कल / सूरज बुरी तरह डाँटा / झरबेरी ने बूढ़े बरगद / को मारा चाँटा / मौसम आवारा था / लेकिन / ऐसा कभी न था।'
डॉ. यायावार हिंदी के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ प्राध्यापक, शोध लेखक, शोध निर्देशक, समीक्षक हैं इसलिए उनका शब्द भण्डार अन्य नवगीतकारों से अधिक संपन्न-समृद्ध होना स्वाभाविक है। बतियाती, खौंखियाती, कड़खे, जिकड़ी, पुरवा, गुइयाँ, चटसार, नहान, विध्न, मैका, बाबुल, चकरघिन्नी, चीकट, सँझवाती, पाहुन, आवन, गलकटियों, ग्यावन, बरमथान, पिछौरी जैसे देशज शब्द, निर्झरी, उन्मन, दृग, रजनीचर, वैश्वीकरण, तमचर, रसवंती, अर्चनाएं, देवार्पित , निर्माल्य, वैकल्य, शुभ्राचार, साफल्य, दौर्बल्य, दर्पण, चीनांशुक, त्राहिमाम, मृगमरीचिका, दिग्भ्रमित, उद्ग्रीव, कार्पण्य, सहस्त्रार, आश्वस्ति, लाक्षाग्रह, सार्थवाह, हुताशन जैसे शुद्ध संस्कृतनिष्ठ शब्द, आदमखोर, बदबू, किस्से, जुनून, जिल्लेसुभानी, मुहब्बत, मसनद, जाम, ख्वाबघर, आलमपनाही, मनसबदार, नफासत, तेज़ाब, फरेब, तुनकमिजाजी, नाज़ुकखयाली, परचम, मंज़िल, इबारत, हादसा आदि उर्दू शब्द, माल, कार, कंप्यूटर, कमेंट्री, मल्टीप्लेक्स, कॉलोनी, सेंसेक्स, क्रिकेट, कमेंट्री, काल, कैरियर, टेरिरज़्म, फ्रिज, ओज़ोन, कैलेंडर, ब्यूटीपार्लर, पेंटिंग, ड्राइडन, ड्रेगन, कांक्रीट, ओवरब्रिज आदि अंग्रेजी शब्द अपनी पूर्ण अर्थवत्ता सहित गलबहियाँ डाले हैं. परिनिष्ठित हिंदी के आग्रहियों को ऐसे अहिन्दी शब्दों के प्रयोग पर आपत्ति हो सकती है जिनके प्रचलित हिंदी समानार्थी उपलब्ध हैं। अहिन्दी शब्दों का उपयोग करते समय उनके वचन या लिंग हिंदी व्याकरण के अनुकूल रखे गये हैं जैसे कॉलोनियों, रोबोटों आदि।
यायावर जी ने शब्द-युगलों का भी व्यापक प्रयोग किया है। मान-मनौअल, जन-मन, हँसी-ठिठोली, खट-मिट्ठी, जाना-पहचाना, राग-रंग, सुलह-संधि, छुई-मुई, व्यथा-वेदना, ईमान-धरम, सत्ता-भरम, लाज-शर्म, खेत-मड़ैया, प्यार-बलैया, अच्छी-खासी, चन-चबेना, आकुल-व्याकुल आदि शब्द युग्मों में दोनों शब्द सार्थक हैं जबकि लदा-फदा, आटर-वाटर, आत्मा-वात्मा, आँसू-वाँसू, ईंगुर-वींगुर, इज्जत-विज्जत आदि में एक शब्द निरर्थक है। लक-दक , हबड-तबड़ आदि ऐसे शब्द युग्म हैं जिनका अर्थ एक साथ रहने पर ही व्यक्त होता है अलग करने पर दोनों अंश अपना अर्थ खो देते हैं। बाँछें खिलना, राम राखे, तीन तेरह करना, वारे-न्यारे होना आदि मुहावरों का प्रयोग सहजता से किया गया है।
गुडाकेश ध्वनियाँ, पैशाचिक हुंकारें, मादक छुअन, अवतारी छवियाँ, फागुन की बातून हवाएँ, संवाद आँख के, समर्पण की निष्ठाएँ, सपनों की मरमरी कथाएं, लौह की प्राचीर, आँखों की कुटिल अँगड़ाइयाँ, कुरुक्षेत्र समर के शल्य, मागधी मंत्र जैसे मौलिक और अर्थवत्ता पूर्ण प्रयोग डॉ. यायावर की भाषिक सामर्थ्य के परिचायक हैं।केसरी खीर में कंकर की तरह कुछ मुद्रण त्रुटियाँ खटकती हैं। जैसे- खीज, छबि, वेबश, उद्वत आदि। 'सूरज बुरी तरह डाँटा' में कारक की कमी खलती है।
'समकालीन गीतिकाव्य: संवेदना और शिल्प' विषय पर डी. लिट. उपाधि प्राप्त यायावर जी का छंद पर असाधारण अधिकार होना स्वाभाविक है। विवेच्य कृति के नवगीतों में अभिनव छांदस प्रयोग इस मत की पुष्टि करते हैं। 'मंगलम्-मंगलम्' में महादैशिक, आम हुआ उन्मन में 'महाभागवत', रजनीचर सावधान में 'महातैथिक' तथा 'यौगिक', पागल हो क्या में 'लाक्षणिक' जातीय छंदों के विविध प्रकारों का प्रयोग विविध पंक्तियों में कुशलतापूर्वक किया गया है। मुखड़े और अंतरे में एक जाति के भिन्न छंद प्रयोग करने के साथ यायावर जी अँतरे की भिन्न पंक्तियों में भी भिन्न छंद का प्रयोग लय को क्षति पहुंचाए बिना कर लेते है जो अत्यंत दुष्कर है। 'इस शहर में' शीर्षक नवगीत में मुखड़ा यौगिक छंद में है जबकि तीन अंतरों में क्रमश: १२, ९, १२, ९, ९, १२ / १४, ७, १४, ७, १०, १८ तथा ७, ७, ७, ९, १२, २१ मात्रिक पंक्तियाँ है। कमाल यह कि इतने वैविध्य के बावजूद लय-भंग नहीं होती।
नवगीतों से रास रचाते यायावर जी विसंगति और विषमत तक सीमित नहीं रहते। वे नवशा एयर युग परिवर्तन का आवाहन भी करते हैं। जागेंगे कुछ / जागरण गीत / सोयेंगे हिंसा, घृणा, द्वेष / हो अभय, हँसेंगे मंगलघट / स्वस्तिक को / भय का नहीं लेश / देखेगा संवत नया कि / जन-मन / फिर से सबल-समर्थ हुआ, चलो! रक्त की इन बूंदों से / थोड़े रक्तकमल बोते हैं / महका हुए चमन होते हैं, तोड़नी होंगी / दमन की श्रंखलायें / बस तभी, आश्वस्ति के / निर्झर झरेंगे आदि अभिव्यक्तियाँ नवगीत की जनगीति भावमुद्रा के निकट हैं। चंदनगंधी चुंबन गीले / सुधाकुम्भ रसवंत रसीले / वंशी का अनहद सम्मोहन, गंध नाचती महुआ वैन में / थिरकन-सिहरन जागी मन में, नीम की कोंपल हिलातीं / मृदु हवाएँ / तितलियाँ भौरों से मिलकर / गुनगुनायें / रातरानी ने सुरभि का / पत्र भेजा, एक मुरली ध्वनि / मधुर आनंद से भरती रही / रास में डूबी निशा में / चाँदनी झरती रही / 'गीत' कुछ 'गोविन्द' के / कुछ भ्रमर के, आलिंगनों की / गन्धमय सौगात में / रात की यह उर्वशी / बाँहें पसारे आ गयी / चंद्रवंशी पुरुरवा की / देह को सिहरा गयी / नृत्यरत केकी युगल / होने लगे / सर्वस्व खोये जैसी श्रंगारिक अभिव्यक्तियों को नवगीतों में गूंथ पाना यायावर जी के ही बस की बात है।
नवगीत के संकीर्ण मानकों के पक्षधर ऐसे प्रयोगों पर भले ही नाक-भौंह सिकोड़ें नवगीत का भविष्य ऐसी उदात्त अभिव्यक्तियों से ही समृद्ध होगा। सामाजिक मर्यादाओं के विखंडन के इस संक्रमण काल में नवता की संयमित अबिव्यक्ति अपरिहार्य है। 'धनुर्धर गुजर प्रिया को / अनुज को ले साथ में / मूल्य, मर्यादा, समर्पण / शील को ले हाथ में' जैसी प्रेरक पंक्तियाँ पथ-प्रदर्शन करने में समर्थ हैं। नवगीत के नव मानकों के निर्धारण में 'झील अनबुझी प्यास की' के नवगीत महती भूमिका निभायेंगे।
९.१.२०१६
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तुम शब्द की संजीवनी का रूप अनूठा हो
शब्द जैसे सलिल सा बहता हुआ तुम्हीं हो
- पंकज त्रिवेदी
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हास्य सलिला:
याद
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कालू से लालू कहें, 'दोस्त! हुआ हैरान.
घरवाली धमका रही, रोज खा रही जान.
पीना-खाना छोड़ दो, वरना दूँगी छोड़.
जाऊंगी मैं मायके, रिश्ता तुमसे तोड़'
कालू बोला: 'यार! हो, किस्मतवाले खूब.
पिया करोगे याद में, भाभी जी की डूब..
बहुत भली हैं जा रहीं, कर तुमको आजाद.
मेरी भी जाए कभी प्रभु से है फरियाद..'
९.१.२०१४
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नवगीत:
निर्माणों के गीत गुँजाएँ ...
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चलो सड़क एक नयी बनाएँ,
निर्माणों के गीत गुँजाएँ...
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मतभेदों के गड्ढें पाटें,
सद्भावों की मुरम उठाएँ.
बाधाओं के टीले खोदें,
कोशिश-मिट्टी-सतह बिछाएँ.
निर्माणों के गीत गुँजाएँ...
*
निष्ठा की गेंती-कुदाल लें,
लगन-फावड़ा-तसला लाएँ.
बढ़ें हाथ से हाथ मिलाकर-
कदम-कदम पथ सुदृढ़ बनाएँ.
निर्माणों के गीत गुँजाएँ...
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आस-इमल्शन को सींचें,
विश्वास गिट्टियाँ दबा-बिछाएँ.
गिट्टी-चूरा-रेत छिद्र में-
भर धुम्मस से खूब कुटाएँ.
निर्माणों के गीत गुँजाएँ...
*
है अतीत का लोड बहुत सा,
सतहें समकर नींव बनाएँ.
पेवर माल बिछाये एक सा-
पंजा बारंबार चलाएँ.
निर्माणों के गीत गुँजाएँ...
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मतभेदों की सतह खुरदुरी,
मन-भेदों का रूप न पाएँ.
वाइब्रेशन-कोम्पैक्शन कर-
रोलर से मजबूत बनाएँ.
निर्माणों के गीत गुँजाएँ...
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राष्ट्र-प्रेम का डामल डालें-
प्रगति-पंथ पर रथ दौड़ाएँ.
जनगण देखे स्वप्न सुनहरे,
कर साकार, बमुलियाँ गाएँ.
निर्माणों के गीत गुँजाएँ..
*
श्रम-सीकर का अमिय पान कर,
पग को मंजिल तक ले जाएँ.
बनें नींव के पत्थर हँसकर-
काँधे पर ध्वज-कलश उठाएँ.
निर्माणों के गीत गुँजाएँ...
*
टिप्पणी:
१. इमल्शन = सड़क निर्माण के पूर्व मिट्टी-गिट्टी की पकड़ बनाने के लिए छिड़का जानेवाला डामल-पानी का तरल मिश्रण, पेवर = डामल-गिट्टी का मिश्रण समान समतल बिछानेवाला यंत्र, पंजा = लोहे के मोटे तारों का पंजा आकार, गिट्टियों को खींचकर गड्ढों में भरने के लिये उपयोगी, वाइब्रेटरी रोलर से उत्पन्न कंपन तथा स्टेटिक रोलर से बना दबाव गिट्टी-डामल के मिश्रण को एकसार कर पर्त को ठोस बनाते हैं, बमुलिया = नर्मदा अंचल का लोकगीत।
२. इस नवगीत की नवता सड़क-निर्माण की प्रक्रिया वर्णित होने में है।
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तसलीस (उर्दू त्रिपदी)
सूरज
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बिना नागा निकलता है सूरज,
कभी आलस नहीं करते देखा.
तभी पाता सफलता है सूरज..
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सुबह खिड़की से झाँकता सूरज,
कह रहा जग को जीत लूँगा मैं.
कम नहीं खुद को आंकता सूरज..
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उजाला सबको दे रहा सूरज,
कोई अपना न पराया कोई.
दुआएं सबकी ले रहा सूरज..
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आँख रजनी से चुराता सूरज,
बाँह में एक, चाह में दूजी.
आँख ऊषा से लड़ाता सूरज..
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जाल किरणों का बिछाता सूरज,
कोई चाचा न भतीजा कोई.
सभी सोयों को जगाता सूरज..
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भोर पूरब में सुहाता सूरज,
दोपहर-देखना भी मुश्किल हो.
शाम पश्चिम को सजाता सूरज..
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काम निष्काम ही करता सूरज,
मंजिलें नित नयी वरता सूरज.
खुद पे खुद ही नहीं मरता सूरज..
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अपने पैरों पे ही बढ़ता सूरज,
डूबने हेतु क्यों चढ़ता सूरज?
भाग्य अपना खुदी गढ़ता सूरज..
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लाख़ रोको नहीं रुकता सूरज,
मुश्किलों में नहीं झुकता सूरज.
मेहनती है नहीं चुकता सूरज..
९-१-२०११
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