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बुधवार, 10 जनवरी 2024

गीता बोध, सुनीता सिंह

पुरोवाक -

प्रज्ञानिका कृष्णार्जुन संवाद : गीता चिंतन नाबाद, आबाद और आजाद 

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

*

गीता का महत्व और उपादेयता

विश्व साहित्य की सर्वकालिक श्रेष्ठ कृतियों में श्रीमद्भगवत गीता का स्थान अग्रगण्य था, है और रहेगा। हो भी क्यों ना? भ्रमित-शंकालु मन में आत्म विश्वास जगाने, कर्तव्य का पथ दिखलाने, करणीय-अकरणीय का अंतर समझाने तथा निष्काम कर्म योग की शिक्षा गागर में सागर की तरह देने वाला कोई अन्य ग्रंथ नहीं है। यह भारतीय सभ्यता-संस्कृति का जीवंत दस्तावेज है। यह अंधविश्वासों का निषेध कर पारंपरिक कुरीतियों को नकारने, बुराइयों से संघर्ष करने की प्रेरणा देती है। दैनंदिन जीवन की समस्याओं का समाधान गीता में अंतर्निहित है।

 

श्रीमद्भगवद्गीता की उत्पत्ति मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी के दिन कुरुक्षेत्र के मैदान में मौखिक वार्ता के रूप में हुई। विश्व में इस तरह और इन परिस्थितियों में अन्य कोई ग्रंथ नहीं रचा गया। गीता में कुल १८ अध्याय हैंजिनमें  अध्याय कर्मयोग अध्याय ज्ञानयोग और अंतिम ६ अध्याय भक्तियोग पर हैं गीता एकमात्र ग्रंथ है जिस पर विश्व की सभी प्रमुख भाषाओं में सर्वाधिक भाष्यटीकाव्याख्याटिप्पणीनिबंधशोधग्रंथ आदि लिखे गए हैं और निरंतर लिखे जा रहे हैं।गीता का सबसे पहला भाष्य शांकर भाष्य आद्य शंकराचार्य ने लिखा। संत ज्ञानेश्वरबालगंगाधर तिलकपरमहंस योगानंदमहात्मा गाँधीसर्वपल्ली डॉराधाकृष्णनमहर्षि अरविन्द घोषएनी बेसेन्टगुरुदत्तविनोबा भावेओशो रजनीशश्रीराम शर्मा आचार्य आदि अनगिनत विद्वानों ने गीता पर भाष्य लिखे हैं। गीता कर्म का संदेश ही नहीं देती है बल्कि जीवन की कशमकश में हमेशा पथ प्रदर्शन करती है।

 

धर्माचार्यों ने गीता को सांसारिकता का त्याग कर सन्यास का पथ बतानेवाले ग्रंथ के रूप में व्याख्यायित किया किंतु स्वामी विवेकानंद जी गीता का वैशिष्ट्य ‘धर्म के विविध मार्गों का समन्वय तथा निष्काम कर्म’ को मानते हैं। (२९ मई १९००, सैनफ्रांसिस्को में भाषण)

 

महर्षि अरबिंदो घोष के अनुसार- ‘वह चेतना की दो विशालतम और उच्चतम अवस्थाओं या शक्तियोंअर्थात् समता और एकता का मिलन है । इसकी पद्धति का सार है भगवान् को अपने जीवन में तथा अपनी अन्तरात्मा और आत्मा में निःशेष रूप से अंगीकार करना।

 

गीता रहस्यकार लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के अनुसार गीता का निष्काम कर्म योग ज्ञान, भक्ति तथा क्रम में समन्वत स्थापित करता है।  

गाँधी जी कहते हैं- ‘’गीता केवल मेरी बाइबिल या कुरान नहीं है, यह मेरी माँ है, शाश्वत माँ। ... जब कभी मुझे संदेह घेरते हैं और मेरे चेहरे पर निराश छाने लगती है तो मैं गीता को उम्मीद की एक किरण के रूप में देखता हूँ। गीता में मुझे एक छंद मिल जाता है जो मुझे सांत्वना देता है। मैं कष्टों के बीच मुस्कुराने लगता हूँ।’’

 

गीता प्रवचन के लेखक, भूदान आंदोलन के प्रणेता संत विनोबा भावे के मत में- अच्छी चीज की भी आसक्ति नहीं होनी चाहिएआसक्ति से घोर अनर्थ होता हैक्षय के कीटाणु यदि भूल से भी फेफड़ों में चले जाते हैंसारा जीवन भीतर से खा डालते हैंउसी तरह आसक्ति के कीटाणु भी असावधानी से सात्त्विक कर्म में घुस जायेंगेतो स्वधर्म सड़ने लगेगाउस सात्त्विक स्व-धर्म में भी राजस और तामस की दुर्गंध आने लगेगीअतः कुटुंब रूपी यह बदलने वाला स्व-धर्म यथा समय छूट जाना चाहिएयह बात राष्ट्र धर्म के लिए भी हैराष्ट्र-धर्म में अगर आसक्ति आ जाये और केवल अपने ही राष्ट्र के हित का विचार हम करने लगेंतो ऐसी राष्ट्र-भक्ति भी बड़ी भयंकर वस्तु होगीइससे आत्म-विकास रुक जाएगा

 

महर्षि महेश योगी जी के शब्दों में ‘’भगवद-गीता व्यावहारिक जीवन के लिए एक संपूर्ण मार्गदर्शिका है। यह किसी भी स्थिति में मनुष्य को बचाने के लिए हमेशा मौजूद रहेगा। यह समय की अशांत लहरों पर तैरते जीवन के जहाज के लिए एक लंगर की तरह है। यह जीवन का विश्वकोश है।’’

 

ओशो कहते हैं- कृष्ण की गीता समन्वय है। सत्य की उतनी चिंता नहीं है जितनी समन्वय की है चिंता है। समन्वय का आग्रह इतना गहरा है कि अगर सत्य थोड़ा खो भी जाए तो कृष्ण राजी हैं। कृष्ण की गीता खिचड़ी जैसी है, इसीलिए सभी को भाती है क्योंकि सभी का कुछ न कुछ उसमें मौजूद है। ऐसा कोई संप्रदाय खोजना मुश्किल है जो जो गीता में अपनी वाणी न खोज ले।’’

 

नव कृति का औचित्य


गीता पर हर चिन्तक की व्याख्या और मत अन्यों से भिन्न है। लोक कहता है जितने मुँह उतनी बातें, पंडित कहते हैं मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना। गीता पर जब इतना कहा जा चुका है तो एक और कृति क्यों? यह जिज्ञासा होना स्वाभाविक है।

 

 सुनीता जी ने गीता-प्रसंग पर एक कृति रचने के विचार की चर्चा की तो मैंने भी यही प्रश्न किया? कारण यह कि इन दिनों हिंदी में गीता का अनुवाद करने-छपाने की होड़ है। लगभग २० अनुवाद मेरे पास हैं। खेद यह कि इनमें चिंतन परकता या मौलिकता नहीं है। गीता मूलत: संस्कृत भाषा में है, अधिकांश अनुवादक संस्कृत नहीं जानते, केवल अर्थ पढ़कर भाषांतरण कर देते है जो नीरस, उबाऊ तथा निरुपयोगी होता है। मेरा सुझाव यह था कि गीता का अक्षरश: काव्यानुवाद न कर चयनित घटना प्रसंगों को इंगित करते हुए अंतर्वस्तु का विस्तार करें तथा कुछ ऐसा भी हो जो इसके पूर्व न लिखा गया हो ताकि यह प्रबंध काव्य अन्यों से भिन्न हो। प्रसन्नता है कि सुनीता ने सुझावों को सकारात्मकता तथा सहजता से मान्य किया। मैंने पूछा- संजय जब रणक्षेत्र का घटनाक्रम सुनाते थे तब कौन सुनता था? उत्तर मिला धृतराष्ट्र। मैंने प्रश्न किया- तुम्हारा पुत्र किसी गतिविधि में भाग ले और उसका वर्णन कोई करता हो तो क्या तुम बिना सुने रह सकती हो? उत्तर था- नहीं, ऐसा कैसे हो सकता है? माँ को पुत्र के बारे में सुनने की जिज्ञासा सबसे अधिक होती है। मैंने फिर पूछा- संजय १०५ पुत्रों का हालचाल कहता हो और उनकी २ माताएँ वहाँ हों तो क्या वे अपने पुत्रों के पराक्रम और युद्ध के परिणाम जानने को उत्सुक न होंगी? विदुषी कवयित्री में अंदर बैठी माँ ने संकेत समझ उत्तर दिया कुंती और गांधारी बिना सुने तो नहीं रह सकतीं पर ऐसा उल्लेख तो कहीं नहीं है। प्रश्न किया- जो अतीत में नहीं लिखा जा सका वह भविष्य में भी न लिखा जाए, ऐसा विधान तो कहीं नहीं है। रचनाकार अपनी रचना का स्वयंभू ब्रह्मा होता है। चर्चा का सार यह निकला कि गीता संजय ने केवल धृतराष्ट्र के लिए सुनाई किंतु वहाँ उपस्थित विदुर, गांधारी और कुंती ने भी सुनी। 


मैंने फिर प्रश्न किया कि तुम अपने कार्यालय में सब कर्मचारियों को एक साथ निर्देश तो क्या वे सब एक समान ग्रहण करते हैं? उत्तर मिला- 'नहीं, उनकी समझ, कार्यविधि और कार्य सामर्थ्य भिन्न-भिन्न होती है।' मैंने कहा- गीता कहने-सुननेवालों ने क्या उसका समान अर्थ ग्रहण किया होगा?' कुछ समय सोचने के बाद उत्तर आया- 'नहीं, ऐसा तो नहीं हो सकता। उनकी समझ, सामर्थ्य और जीवन दृष्टि भिन्न होने के कारण वे भिन्न अर्थ निकालेंगे।' मैंने कहा कि यही सब सोचना और लिखना है, यह पहले नहीं लिखा गया है। यह अंश इस कृति का वैशिष्ट्य होगा। पाठक और समीक्षक समर्थन-विरोध, प्रशंसा-आलोचना करेंगे, उसकी चिंता न कर अपने चिंतन को शब्द दो।' 


कृति का शीर्षक भी पर्याप्त विमर्श के बाद निर्धारित किया गया। सामान्यत:, कुरुक्षेत्र महायुद्ध संबंधी कृतियों के शीर्षक में 'गीता' शब्द का प्रयोग किया जाता रहा है। हमारी दृष्टि यह रही कि यह कृति गीता की छायामात्र न होकर स्वतंत्र कृति हो जिसकी रचना का आधार कुरुक्षेत्र महायुद्ध हो। कृष्णार्जुन संवाद को मथकर माखन की तरह प्राप्त 'प्रज्ञान' को अपनी शब्द-मंजूषा में समेटे 'प्रज्ञानिका' कृष्ण सखा पाठकों के रसास्वादन हेतु प्रस्तुत है।        


मौलिकता

 

कथा-प्रवेश सर्ग में प्रस्तुत कृति का श्री गणेश पुष्टिमार्ग प्रणेता वल्लभाचार्य जी के स्वप्न में संत ज्ञानेश्वर के आगमन तथा मराठी गीता सार सुनाने से होना सर्वथा मौलिक अवधारणा है।

 

देखा एक दिवस स्वप्नों में / गुरु ज्ञानेश्वर आए हैं।

गीता सार मराठी में जो / कर अनुवाद सुनाए हैं।।

 

किसी राज्य के नेत्रहीन अधिपति को संकटकाल में किसी बाहरी व्यक्ति के साथ नित्य प्रति अकेला नहीं छोड़ा जा सकता, इसलिए महामंत्री विदुर और कुरु माता गांधारी तथा पांडव माता कुंती सकल वृत्तान्त सुनें, यह स्वाभाविक है। वृत्तान्त सुनकर उन पर हुई प्रतिक्रिया या उनमें विचार-विनिमय कवयित्री को कल्पनाकाश में वैचारिक उड़ान भरने हेतु स्वतंत्रता देते हैं तथापि सुनीता ने संयम बरतते हुए सीमित स्वतंत्रता ही ली है।

 

धृतराष्ट्र घटनाक्रम जानने की उत्सुकता के साथ, उन पर लगे जाते लांछनों के प्रति चिंतित व दुखी हैं। संजय उन्हें रोकते हुए युद्ध क्षेत्र में खड़ी दोनों सेनाओं और योद्धाओं के बलाबल की जानकारी देते हैं। अर्जुन कुरु सेनाओं का निरीक्षण कर चिंतित और दुखी है। जिज्ञासा सर्ग में पुत्रों की कुशल जानने के लिए धृतराष्ट्र संजय से रणक्षेत्र का हाल सुनना चाहते हैं-

 

चिंतित से धृतराष्ट्र पूछते / कुरुक्षेत्र का हाल कहो

दिव्य दृष्टि डालो हे संजय! / नहीं व्यग्र हो मौन रहो

 

शंका-समाधान सर्ग में रणभूमि में पूज्यों और संबंधियों को देखकर विचलित अर्जुन, श्री कृष्ण से अंतर्मन की व्यथा कहते हुए शंका का समाधान चाहते हैं-

 

बोले अर्जुन कातर मन से / हे प्रभु! मुझको बतलाएँ

गुरु द्रोण और भीष्म पितामह / पर कैसे बाण चलाएँ?

 

दूर करें हे माधव! मेरी / मन की सब शंकाओं को

शोक उपजता भारी मन में / मूर्छित कर मृदु भावों को

 

श्री कृष्ण अर्जुन का समाधान करते हुए गूढ़ ज्ञान देते हैं-  

 

आत्मा अजर अमर अविनाशी / नित्य सनातन रहती है

चिंतित क्यों हो व्यर्थ सदा वह / नवल पुरातन रहती है

 

हे अर्जुन! जो सत्य जानते / वे निर्लिप्त रहा करते

जो अविनाशी और अजन्मी / उसको नहीं मार सकते


        धृतराष्ट्र के आचरण में उसकी कुटिलता सामने आती है। वह कौरव पक्ष की शक्ति का अनुमान कर, उनकी विजय की कल्पना कर मन में आनंदित होकर भी अपनी भावना व्यक्त न कर छिपाता है-    


महाराज धृतराष्ट्र सोचते, / मन ही मन मुसकाते हैं।
कौरव-जीत सुनिश्चित लगती, लेकिन खुशी छिपाते हैं।।
 
            महारानी गांधारी के चिंतन में अपेक्षाकृत अधिक संतुलन अभिव्यक्त हुआ है। वह अपने पुत्रों को राज्य सत्ता देना चाहती है, पर पांडु पुत्रों का अधिकार नकारती नहीं - 

लेकिन कुन्ती पुत्रों को भी, दोष नहीं मैं दे सकती।
नहीं पराये वे भी अपने, हृदय - दशा विचलित रहती।।

            कुंती अपने पुत्रों को धर्म मार्ग पर चलते देख और कृष्ण को उनके साथ देख पांडवों की जय के प्रति आश्वस्त होते हुए भी, कौरवों में भी अपनों को ही देखती हैं। उनका चिंतन अर्जुन की ही तरह है, वे कौरवों का अहित नहीं चाहतीं- 

कुन्ती सोच रही क्या दिन ये, विधना ने है दिखलाया।
बोल सकूं कुछ भी न किसी को, संकट अपनों पर आया।।
    
            महामति विदुर सबके प्रति अपनत्व भाव रखते हुए, शहीद होने वालों के लिए दुखी होते हैं- 

सोचे विदुर सभी अपने हैं, / हानि सभी की दुख देगी।
बिछड़ेगें जो युद्ध भूमि में, / कमी उन्हीं की खटकेगी।।

 

कर्म माहात्म्य सर्ग में श्री कृष्ण कर्म तथा ज्ञान का सम्यक विश्लेषण करते हुए दोनों को आवश्यक बताते हैं-

 

कृष्ण कहें हे अर्जुन ! सुन लो / इस जग की दो निष्ठाएँ

ज्ञान क्रम दोनों आवश्यक / पृथक रहीं परिभाषाएँ

 

ज्ञान की महत्ता प्रतिपादित कर, श्री कृष्ण अनासक्त कर्म की श्रेष्ठता प्रतिपादित करते हैं-

 

मानव जैसा कर्म करेगा / वैसा ही फल पाएगा

सत्कर्मों से शुभ फल मिलता / वरना कर्म रुलाएगा


        इस सर्ग के घटनाक्रम को जानने के बाद धृतराष्ट्र कृष्ण को दोष देते हैं कि वे अर्जुन को युद्ध विमुख न होने देकर अधर्म कर रहे हैं, कुंती कृष्ण के कार्य को सार्थक और धर्मयुक्त कहती हैं, गांधारी किंकर्तव्यविमूढ़, विदुर तथा संजय मौन हैं। स्पष्ट है कि सभी श्रोता भावी के प्रति आशंकित हैं।    

 

दिव्य परंपरा सर्ग में गीता के सनातनत्व, अपने अवतरण, गुरु-माहात्म्य तथा ईश-शरणागति से पार्थ को अवगत कराते हैं-

 

रूप ब्रह्म का रहा क्रम भी / रत समाधि में हों जैसे

क्रम फलों की प्राप्ति ब्रह्म है / गति हो कर्मों के जैसी


        धृतराष्ट्र ज्येष्ठ होते हुए भी नेत्रहीन होने के कारण अनुज पांडु को सत्ता मिलने से हुई पीड़ा को व्यक्त कर, सत्ता पर अपने पुत्रों का अधिकार न्यायोचित मानते हैं। वे अनासक्ति को स्वीकारते नहीं और अपने मोह को उचित पाते हैं- 

 

कर्म करें क्यों अनासक्त रह, भोग न क्यों वैभव का हो?
आखिर जन्म लिया है क्योंकर, दूर सभी तम जड़ता हो॥ 

        गांधाती अपने विवेक का परिचय देते हुए कृष्ण से रन र न होने देने की अपेक्षा करती हैं, जबकि वे भली-भाँति जानती हैं कि दुर्योधन ने शांति दूत कृष्ण के प्रयासों को हठपूर्वक अमान्य कर द्रौपदी चीरहरण का दुष्प्रयास किया - 

सुना रहे अर्जुन को बातें,/ क्यों सन्यासी जीवन की?
सन्धि करें रोकें रण को वे, / व्यथा थमे अस्थिर मन की॥ 

        कुंती और विदुर सदा की तरह शांत हैं-

संजय मुख से कृष्ण वचन सुन, खोये विदुर विचारों में।
चिंतन करते सार - तत्व पर, कर्म ज्ञान अभिसारों में॥ 

 

        कर्म सन्यास और निष्काम काम सर्ग में अर्जुन की जिज्ञासा शांत करते हुए कृष्ण कहते हैं-

 

आसक्त कर्म से हो न सके / दास इंद्रियों का न बने

निर्लिप्त भाव से कर्म करे / हृदय नहीं अभिमान तने


        धृतराष्ट्र कृष्ण द्वारा कहे गए तत्वज्ञान को निरर्थक मानते हैं-


सुलझेगा परलोक कहो क्या, / अगर न सुलझा लोक यहाँ?
नहीं जरूरत तत्व ज्ञान की, / मिलता निश्छल हृदय कहाँ?

 

अष्टांग योग और समाधि सर्ग में ध्यान योग की महत्ता प्रतिपादित करते हुए ईश शरणागति को एकमात्र राह बताते हैं।

 

कार्य शुरू करने से पहले / जो ईश्वर को याद करे

सच्चे मन से मुझे सुमिर वह / मुझसे मृदु संवाद करे

वह श्रेष्ठ योगियों से रहता / मुझको भी आती प्रिय रहता

कार्य सिद्ध हो जाते उसके / मुझे ध्यान में जो रहता


        गांधारी धृतराष्ट्र से असहमत होते हुए कृष्ण के कथन की सार्थकता और विश्वसनीयता के प्रति कुंती की राय पूछती है। कुंती नम्र भाव से कृष्ण के प्रति विष्यवस वयुक्त करती है। 


गांधारी धृतराष्ट्र की तरफ, / मुड़कर बोली हे राजन!
मीठे लगते मोह रहे मन, / बोल रहे जो कृष्ण वचन॥  

 

ज्ञान-विज्ञान विमर्श सर्ग में कृष्ण स्वयं को कारणों का कारण बताते हैं।

 

अनासक्त जो शांत हृदय से / मोह मुक्त हो जाते हैं

दृढ़ मन हो पाता जिनका वह / भजकर मुझको पाते हैं


        धृतराष्ट्र कृष्ण के वचनाओं को सुनते-समझते हुए भी उन पर भरोसा नहीं कर पाते। उनकी मनस्थिति से गांधारी समेत कोई भी सहमत नहीं हो पाता। वे विदुर से पूछते हैं- 


धृतराष्ट्र कहें हे विदुर! कहो, / नीति ज्ञान के हो ज्ञाता।
बात कृष्ण की मन भरमाती, / सत्य नजर कुछ कम आता॥ 

 

प्रभु सुमिरन सर्ग में ईश स्मरण को श्री कृष्ण मुक्ति का मार्ग बताते हैं-

 

प्राण त्यागने से पहले जो / मुझको सुमिरन करता है

प्राप्त मुझे कर लेता है वह, जब भी प्राण निकलता है


        धृतराष्ट्र सत्य समझते हुए भी उसे झुठलाकर अपने मन को सांत्वना देते हुए तन ही नहीं माँ से भी चक्षुहीन दिखते हैं, जबकि गांधारी, कुंती और विदुर सत्य को समझते हैं। धृतराष्ट्र अंतत: अपनी विवशता व्यक्त कार ही देते हैं- 

चाह नहीं मैं पुत्रमोह का, / त्याग कभी कर पाऊँगा॥
बात न दुर्योधन मानेगा, / दुख न उसे दे पाऊँगा॥

 

गुह्य ज्ञान सर्ग में कृष्ण स्वयं को परब्रह्म बताते हुए, अर्जुन को अभिन्न होने की राह सुझाते हैं-

 

सबका निवास मुझमें ही है / ओंकार भी रहा मैं ही

बीज रूप हूँ मैं अविनाशी / जीवन मैं और मृत्यु भी

 

भक्ति करो तो ऐसी करना / घुल समग्र मुझमें जाना

जल जैसे जल में मिल जाता / संभव तभी मुझे पाना


        धृतराष्ट्र की कुटिल और मलिन मानसिकता क्रमश: सामने आती है। वे खुद को सर्वोच्च समझते हुए सत्य न कहने को अपना कर्तव्य माँ बैठते हैं- 


मन के भाव छुपाने होंगे, / महाराज हूँ मैं आखिर।
सोच रहे धृतराष्ट्र हृदय में, / करना होगा मन को स्थिर॥  

 

ऐश्वर्य सर्ग में सकल कारणों के कारण स्वरूप श्री कृष्ण को सब विभूतियों का अक्षरे और परम पूज्य बताया गया है।

 

मैं ही जनक व नाशक सबका / पूज्य परम अनतर्यामी

मैं पौष माह मैं विष्णु सूर्य / मैं सबसे बढ़कर निष्कामी

 

संपूर्ण जगत को मैंने ही / एक अंग पर धारा है

हे पार्थ! जान लो बस इतना / जितना अधिकार तुम्हारा है


        नेत्रहीन धृतराष्ट्र अक्षम होकर भी देखने पा प्रयास करते हैं मानो अपनी नियति बदल देंगे। पत्नी गांधारी, अनुज वधू कुंती, महामंत्री विदुर तथा संजय किसी की सहमति न मि,ने से खिन्न होकर वे भौंहें सिकोड़ लेते हैं- 


महाराज की भौंहे ऊपर, / कृष्ण - वचन सुन उठ जातीं।
शक्ति - पुंज निज को कहने की, / बातें तनिक नहीं भातीं॥

 

ग्यारहवें विराट रूप सर्ग में नत मस्तक अर्जुन की के निवेदन को स्वीकारते हुए कृष्ण उसे दुवय दृष्टि देकर अपने विराट रूप की झलक दिखाने के साथ-साथ उसे अभीत भी करते हैं-  

 

मैं प्रसन्न तुम पर हे अर्जुन! / अत: रूप यह दिखलाया

लेकिन तुम भयभीत न होना / सत्पथ सन्मार्ग सुझाया


        धृतराष्ट्र की एकांगी सोच कृष्ण को महासमर रोकने में समर्थ मानती है और युद्ध न रोकने के लिए दोषी भी कहती है। वे दुर्योधन की कोई गलती नहीं देखते, चल चलने के लिए कृष्ण को ही दोषी मानते हैं-  

 

टाल महाभारत सकते थे, / डटी न होतीं सेनाएँ ।
वासुदेव बस चालें चलते, / अपनी ही करते जाएँ॥

भक्ति माहात्म्य सर्ग में कृष्ण अपने सामान्य रूप में अर्जुन को भक्त-भगवान के संबंध की महत्ता समझाते हुए निर्भय करते हैं-

 

अर्पण कर्मों को मुझमें कर / याद करे परमेश्वर को

शुद्ध हृदय वाले भक्तों का / ध्यान रहे परमेश्वर को


        विदुर कृष्ण के दिव्य रूप को देखकर अवाक् रह जाते हैं- 


दिव्य कृष्ण का रूप देखकर, / संजय शब्द विहीन हुए।
विस्मय से विस्तारित आँखें, / सुध - बुध खोकर लीन हुए॥

        कुंती भी विविध आशंकाओं से घिरी हैं किंतु कृष्ण पर उनका विश्वास अधिग है की वे पांडवों का अहित नहीं होने देंगे। 

कुन्ती के मन में भी चलता, / अलग तरह का ही मन्थन।
पूर्ण भरोसा वासुदेव पर, / अन्तर से कर अभिनन्दन॥ 

चेतना सर्गांतर्गत अर्जुन ने प्रकृति-पुरुष का रहस्य जानना चाहा। श्री कृष्ण ने अर्जुन का समाधान करते हुए बताया-

 

प्रकृति-पुरुष दोनों अनादि हैं / इनके प्रति रूप सृष्टि में होते

पदार्थ विकार राग-द्वेष सब उत्पन्न प्रकृति से ही होते

 

काया स्थित आत्मा होती / अंश उसी परमात्मा का

साक्षी होने से उपदृष्टा यथार्थ सम्मति अनुमंता

 

सबका धारण-पोषण करके, आत्मा ही भर्ता होती

वही सच्चिदानंद महेश्वर, जीव रूप भोक्ता होती


        धृतराष्ट्र जब युद्ध को अवश्यंभावी देखते हैं तो अनिष्ट की आशंका सम्मुख देख सोचते हैं कि ५ गाँव देकर इस संकट से बचना बेहतर होता किंतु 'अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुँग गई खेत'- 


हानि किसी की युद्ध भूमि में, / हो सकती है सत्य यही।
पाँच गाँव पाण्डव को देना, / हो सकता था कृत्य सही॥    

 

त्रिगुण सर्ग में भौतिक प्रकृति के मूल ३ गुणों की चर्चा है जिनसे हर देहधारी नियंत्रित होता है। श्री कृष्ण त्रिगुण के प्रभाव तथा परिणाम बताते हुए कहते हैं-

 

ज्ञान सत्व गुण से जन्मे तो / लोभ तमोगुण से होता

मोह-प्रमाद तमोगुण से हो / खुले अज्ञान का सोता

 

स्वर्ग लोक में जाते प्राणी / जो सत्व गुणों में स्थित हों

और रजोगुण वाले प्राणी / भू आने को शापित हों

 

लें जन्म तमो गुण के प्राणी / पशु-पक्षियों की योनि में


        धृतराष्ट्र कृष्ण से तत्वज्ञान सुनकर सोचते हैं की पांडव कौरवों की तुलना में अधिक धर्म प्रेमी हैं किंतु सत्य को जानकर भी माँ से बचते दिखते हैं। वे कौरवों को अधिक ताकतवर मानते हुए भी युद्ध के परिणामों के प्रति इसलिए शंकित हैं कि कृष्ण पांडवों के साथ हैं- 


पाण्डव तुलना में कौरव की, / पुण्यात्मा हैं कहीं अधिक।
परिणाम न जाने क्या होगा, / किस पथ का हो कौन पथिक?

 

परम पुरुष सर्ग में जीवन का चरम लक्ष्य मोह-पाश से बचते हुए परम सत्ता के परम स्वरूप को समझ कर उनकी भक्ति बताया गया है-

 

अविनाशी या नाशवान द्वय / प्राणी इस जग में होते

कायाएँ मिट जाती लेकिन / नाश न आत्मा के होते


        गांधारी श्रीकृष्ण द्वारा पाँच गाँव पांडवों को देकर शांति स्थापना चाहते थे। धृतराष्ट्र तथा गांधारी ने यह प्रस्ताव स्वीकारने हेतु सलाह भी दी थी किंतु दंभी और हठी दुर्योधन न माना। गांधारी नियति को स्वीकारने हेतु विवश हैं- 


अब दोष किसी का क्या कहना, / बदल नहीं कुछ पाना है।
गांधारी सोचे निज मन में, / भाग्य लिखा जो आना है॥ 

 

स्वभाव सर्ग में चंचल मन को नियंत्रित कर योग साधना द्वारा वैराग्य तथा कल्याण मार्ग पर ले जाने का मार्गदर्शन है।

 

योग साधना से वश में मन / वैराग्य सहज पथ कर दे


        कुंती वासुदेव के प्रति विश्वास होने के कारण मन की ऊहापोह को हावी नहीं होने देतीं, शेष सभी भयाक्रांत हैं-  


कुंती थाम विचार हृदय के, / लगी देखने इधर-उधर।
विदुर ज्येष्ठ गांधारी संजय, / सबके अपने-अपने डर॥  

 

श्रद्धा सर्ग त्रिगुणों से उत्पन्न तीन तरह की श्रद्धा का उपदेश है।

 

जिस प्राणी की जैसी श्रद्धा / हो स्वरूप उसका वैसा

सात्विक प्राणी देव पूजते / हो सत् श्रद्धा का ऐसा

पूजें राक्षस तमो रजो गुण / विदयाहीन बने रहते

कल्पित घोर तपों में रत हो / मुक्ति-कामना से दहते


        विदुर महामंत्री होने के कारण धृतराष्ट्र से सहमत होते हुए भी असहमति बोलकर नहीं जताते और मौन रहते हैं किंतु एक दिन उनका भी धैर्य चुक जाता है- 


पाण्डव कौरव दोनों मुझको / हे महाराज! प्रिय लगते ।
पर उचित न पथ दुर्योधन का, / मेरे नीति - वचन कहते॥ 

 

अठारहवें सन्यास-सिद्धि सर्ग में वैराग्य का अर्थ, ब्रह्म की अनुभूति तथा श्री कृष्ण शरणागति से मोक्ष प्राप्ति का संकेत देकर यह कृष्णार्जुन संवाद पूर्ण होता है।

 

करता जो निष्काम कर्म वह / दृढ़ वैरागी भी होता

संपूर्ण कर्म करता योगी / इच्छा का भार नहीं ढोता

आश्रय त्याग सभी कर्मों का / बस मेरा ही ध्यान करो

मुक्त पाप स्व कर दूँगा मैं / अन्य न मेरी शरण गहो


         दूत होते हुए भी संजय अंतत:, परामर्श देने से खुद को नहीं रोक पाता- 


निष्काम कर्म करते रहना, / ध्यान सदा रख ईश्वर का।
संजय बोले बड़ा मन्त्र यह, / सुख लाएगा अन्तर का॥

 

अंतिम प्रभाव सर्ग कवयित्री की मौलिक उद्भावना है जिसके अंतर्गत कृष्ण-अर्जुन संवाद सुन रहे धृतराष्ट्र, गांधारी, कुंती व विदुर तथा वक्ता संजय पर हुई प्रतिक्रिया का सूक्ष्म संकेतन है।

 

धृतराष्ट्र गीता-ज्ञान ग्रहण न कर पांडवों को दोषी मानकर उनकी मृत्यु कामना करते हैं-

 

कहते धृतराष्ट्र पांडवों को / नहीं चाहिए रन लड़ना

अति विशाल कौरव सेना से / व्यर्थ उन्हें होगा मरना

 

गांधारी अधिकांश समय अपने पुत्रों के हित चिंतन में लीन रहीं, उन्हें ज्ञान खंड रुचा-

 

रहीं वहीं पर गांधारी / खंड खंड ही सुन पाईं

निकल विचारों से अपने वह / ज्ञान खंड को गुन पाईं

 

कुंती को श्री कृष्ण के दैव्यत्व में अडिग विश्वास है। वे गीता-ज्ञान ग्रहण कर धृतराष्ट्र को भावी का संकेत कर देती हैं-

 

जिस पक्ष रहेंगे कृष्ण सदा, जीत उसी की होनी है

समग्र सृष्टि मदद है करती / बहस व्यर्थ ही होनी है

 

संजय इस दिव्य वार्ता को सुनते-सुनाते हुए वैराग्य भाव में स्थित हो जाते हैं-

 

वैरागी ज्ञानी जैसी गति / हुई मगर अब संजय की

सारा गीता ज्ञान सुन लिया / छवि देखि परमात्मा की


       पुस्तकांत में कृष्णार्जुन संवाद का श्रवण कर रहे पंच महाभागी जनों का मानस मंथन कर पाँच अध्याय रचकर सुनीता ने सकल प्रसंग को विविध दृष्टियों से पाठकों के लिए मननीय बनाया है। इस अंश से यह स्पष्ट होता है कि हर मनुष्य अपनी चेतन, संस्कारों और विचारों के अनुरूप घटनाओं का विश्लेषण और चरित्रों का मूल्यांकन करता है, तदनुसार निष्कर्ष निकालता है, कार्य करता है और उसका परिणाम पाता है। विधि के विधान या भाग्य को दोष देना निरर्थक है। धृतराष्ट्र और गांधारी यदि अन्यों के दृष्टिकोण को ग्रहण कर सके होते तो श्री कृष्ण को शापित नहीं होना पड़ता, विजय पश्चात भीम आदि को नष्ट करने के दुष्प्रयास धृतराष्ट्र नहीं करते। लोक कहता है- 


                                    होनी तो होकर रहे, अनहोनी ना होय 

                                   जाको राखे साइयाँ, मार सके नहिं कोय'

 

‘कृष्ण वचन प्रज्ञानिका’ का वैशिष्ट्य भाषिक सारल्य, शाब्दिक सटीकता, सम्यक विवेचन, लय बद्धता तथा संक्षिप्तता है। सुनीता ने गीता के पाँचों श्रोताओं की मानसिकता, पात्रता और ग्रहण सामर्थ्य का संकेत मात्र किया है, यदि वह इन्हें पाँच अध्यायों में विस्तार से विवेचित करतीं और समकालिक परिदृश्य से संबद्ध कर देतीं तो यह कृति और अधिक विचारोत्तेजक, मननीय और भीमाकारी होकार सामान्य पाठक के लिए गरिष्ठ और केवल विद्वज्जनों के लिए ग्राह्य होती। वर्तमान रूप में यह विद्वज्जनों ही नहीं, सामान्य पाठकों को भी मुक्त चिंतन के उस धरातल पर ले जाने में समर्थ है जहाँ से वे श्री कृष्ण भक्ति मार्ग पर पग बढ़ा सकें। सुनीता को इस महत सारस्वत अनुष्ठान के लिए बधाई और इसकी सफलता हेतु अनंताशीष।

                                                                                संजीव

संपर्क- विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

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धृतराष्ट्र

नेत्रहीन धृतराष्ट्र जन्म से, दुखी कुपित रहते अक्सर ।
भाग्य विहीन हुआ मैं ऐसा मेरे साथ हुआ क्योंकर?

ईर्ष्या भ्राता पांडु से रही, पलती बढ़ती बचपन से ।
देख नहीं सकते दृग फिर भी, द्वेष न निकला जीवन से॥

सिंहासन भी गया हाथ से, दृष्टिहीनता के कारण।
शब्द मौन भूचाल हृदय में, नहीं दूर तक था तारण ॥

विधना मुझसे खेल रही क्यों, भाव उठें ये ही मन में ।
अत्याचार सहूँ मैं कितना, लिखा यही क्या जीवन में ?

कुंठित होकर जा सिमटे सब वैचारिक आयाम कहीं ।
स्वार्थ साधना लक्ष्य बन गया, इससे बढ़कर धाम नहीं॥

विधना मोड़ नया ले आयी, भ्राता पाण्डु गये वन को ।
सिंहासन धृतराष्ट्र पा गये, प्राण मिला नव जीवन को॥

मेरा पुत्र बनेगा राजा, हर प्रयास होगा मेरा।
प्राणों से प्रिय सुत दुर्योधन, काटूंगा हर तम - घेरा॥

भ्राता - सुत भी तो प्रिय मुझको, निज सुत प्रिय अतिशय लेकिन।
अगर न मैं सरंक्षण दूंगा, गद्दी जाएगी फिर छिन॥

कहने दो जग को जो कहता, क्या अंतर पड़ता मुझको ?
अधिकार छिना जब था मेरा, नहीं समझ आया उनको ॥

लोग कहेंगे पुत्र - मोह में न्याय नहीं कर पाता हूं।
उनके अनुचित कर्मों पर भी मैं उनको दुलराता हूं॥

कैसे बढ़ने दे सकता मैं, पाण्डव को कुरु गौरव से?
चाह रहा निज कुल हित ही तो, जिसमें मेरे प्राण बसे॥

बनूं त्याग की मूरत क्योंकर, कुछ पाण्डव भी त्याग करें।
मेरे हेतु किया क्या किसने, कुछ वो भी तो धीर धरें॥

भीष्म विदुर के परामर्श से, पत्थर रख कर निज मन पर।
युवराज युधिष्ठिर को घोषित, किया मगर आखिर थककर॥

माना लाक्षागृह अनुचित था, भूल किया दुर्योधन ने।
क्या करता यदि क्षमा न करता, क्या लगता मैं भी कहने?

क्या दे देता दण्ड उसे मैं, अपना कुल - घातक बनता।
भ्राता ज्येष्ठ रहा हूँ मैं ही, नृप का निज - सुत हक बनता॥

राज चाहते क्यों पाण्डव ही, टाल विवाद वही सकते। 
बनने दें नृप दुर्योधन को, साये स्याह सभी टलते ॥

पाण्डव लाक्षागृह से जीवित, बच निकलेंगे पता न था।
बात खुशी की जीवित वे पर, समझे मेरी कौन व्यथा?

मृत जान उन्हें दुर्योधन को, घोषित था युवराज किया।
अब न छोड़ना पद वह चाहे, समझ स्वयं का ताज लिया॥

फिर मैं क्या कर सकता आखिर, प्राणों से प्रिय दुर्योधन।
छोड़ युधिष्ठिर ही दें पद को, शान्त रहे सबका जीवन॥

जाने कृष्ण उन्हें भड़काते, क्योंकर रहते हैं अक्सर?
अधिकार दिलाने को तत्पर न्याय धर्म की बातें कर॥

हित मेरे सुत दुर्योधन का, दिखता उनको कभी नहीं।
पाण्डव ही प्रिय उनको जैसे, लें सुधि कौरव की न कहीं॥

माना चक्र सुदर्शनधारी, शूरवीर अति बलशाली।
बनते तारणहारा अक्सर, वार न उनका हो खाली ॥

तो क्या डरकर हार मान लूँ, निज सुत का हित जाने दूं ?
राज्य सौंप कर पाण्डु - सुतों को तो क्या दुर्दिन आने दूँ ?

अगर न मैं सोचूंगा तो फिर, और कौन सोचेगा क्यों?
अपने सुत का भला चाहता, दूजा तो चाहेगा क्यों?

अगर पाण्डवों ने किंचित भी, अहित किया कौरव कुल का,
प्रश्न क्षमा का नहीं उठेगा, मिटा चिन्ह दूंगा सबका॥

मन करता है लगा गले से, फोड़ उन्हें दूं मूरत सा।
बार - बार का क्लेश मिटे यह, जो अनहोनी सूरत सा॥

नृप हूँ वाचाल न हो सकता, मौन साधना ही होगा।
साम दाम या दण्ड भेद पथ, का ये मन राही होगा॥

गान्धारी


धर्मपरायण सदाचारिणी, उदार दयालु गुणी कन्या ।
गान्धार कुमारी अति सुन्दर सदगुण धारे भी धन्या॥

शत पुत्रवती वरदान मिला, गुरु वेदव्यास से उसको।
सात्विक भाव प्रसिद्धि दिलाते, ख्याति गयी थी चहुँ दिश को॥

ख्याति बनी अभिशाप वहीं जब, आये भीष्म लगन लेकर।
दृष्टिहीन धृतराष्ट्र के लिए, जिन्हें बनाना उसका वर॥

अगर मना करते पितु उनको, दण्ड भुगतना भी पड़ता।
चिन्तित परिजन बोल न पायें, छायी मुख पर भी जड़ता॥

गान्धारी ने लेकर निर्णय, दिया उबार संकट से कुल।
बनूं धृतराष्ट्र की परिणीता, जाये कठिनाई रज धुल॥

बाँध रही हूँ निज आँखों पर, पट्‌टी अपने हाथों से।
नेत्रहीन वर लिखा भाग्य में, क्या होगा अब बातों से॥

देख नहीं सकते स्वामी यदि, अन्धकार उनका जीवन।
मुझको भी वैसे ही तम में, रहना पति अनुगामी बन॥

चाहे मेरी निष्ठा समझो या मानो प्रतिरोध इसे
मुझ पर क्या बीते मैं जानूं लेकिन है परवाह किसे ?

कुन्ती को छोटी बहना सम मान दिया मैं करती हूँ
सुख दुख पीड़ा मन की बातें बाँट लिया मै करती हूँ

पांचाली को भी पुत्री सा, प्रेम किया मैं करती हूँ।
ऑच न आये उस पर कोई ध्यान दिया मैं करती हूँ॥

पर पुत्र मोह में निज पुत्रों को ॥ सत राह न दिखला पाती।
कैसे कर्कश होऊं उन पर मेरे सुत मेरी थाती॥

जानूं कृष्ण बड़े बलशाली, दिव्य शक्तियों के धारक।
कूटनीति के कुशल प्रबन्धक अस्त्र - शस्त्र उनके मारक॥

कौरव पुत्रों का संरक्षण, वे चाहें तो कर सकते ।
पर बस पाण्डव हित में उनके सोच विचार चला करते ॥

अगर चाहते कृष्ण हृदय से, रोक युद्ध को सकते थे।
टल भी जाता विनाश भारी, बात धर्म की करते थे॥

जीवित होते सुत सब मेरे, चहुँदिश खुशहाली होती ।
खूब लबालब भरी सुधा से जीवन की प्याली होती ॥

 पाण्डव जैसे कौरव भी तो, इस कुल के बालक ही थे।
अगर कृपा उन पर थी इतनी, मेरे सुत क्यों भारी थे ?

बालक तो हठ करते ही हैं, भूल भी कभी हो जाती ।
मृत्युदण्ड क्या देना ही हल, राह न दूजी मिल पाती?

पुत्र अगर त्रुटि करता कोई, उद्दण्ड निकल ही जाये।
अर्थ न इसका दोषी कह दें, प्राणों पर ही बन आये ॥

पथ से थोड़ा गया भटक सुत, अन्यायी पदवी पाये॥
नहीं अधर्मी हो जाता वह, दण्ड कठोर दिया जाये॥

राह निकाली जा सकती थी, अगर कृष्ण चाहे होते।
पक्षपात क्यों किया उन्होंने, आँसू अब धीरज खोते॥

क्या दोष पाण्डवों को दूँ मैं, वे भी हैं बालक सम ही।
मारे पुत्र गये उनके भी, जीत मिला उनको तम ही॥

पाण्डव तो मोहरे की तरह, उन पर नीर बहाऊंगी।
किंतु कृष्ण को क्षमा नहीं मैं, कभी कहीं कर पाऊंगी।

बाद युद्ध के गान्धारी से, मिलने जब माधव आये।
कौरव - माता के मुख पर वह, क्रोध रोष लाली पाये॥

स्वाभाविक था संयम खोना, ज्ञात कृष्ण को था लेकिन।
बुलवाया था गान्धारी ने, रहते कैसे जाये बिन ?

धधक उठी बातों में ज्वाला, गान्धारी रोक न पायी।
मन के भीतर दबी हुई जो, चिंगारी बाहर आयी॥

डूबा जैसे वंश हमारा, एक न शत सुत शेष बचा।
देखोगे वैसी गति तुम भी, खेल तुम्हीं ने सभी रचा॥

शाप यही देती हूं तुमको, वंश हीन हो जाओगे।
जो पीड़ा मैंने भोगी वह, पीड़ा तुम भी भोगोगे॥

कुन्ती

पुत्री राजा शूरसेन की, वसुदेव बहन सुकुमारी।
नाम पृथा जिसका बचपन में भातु मारिशा थी वारी॥

चाचा कुन्तीभोज ने लिया, गोद पृथा सुकुमारी को।
निःसन्तान रहे थे अब तक, मिली सुता अति पुलकित वो॥

नव नाम मिला कुन्ती उसको, रही लाडली सबकी जो।
शान्त मृदुल सत्कारी सुन्दर, हृदय जीत लेती थी वो॥

दुर्वासा ऋषि ने सेवा से प्रसन्न हो वरदान दिया।
पंचदेव होंगे वश में जब, तुमने उनको याद किया॥

लगी परखने एक दिवस जब, गुरु के वर की सच्चाई।
याद सूर्य को किया उसी क्षण, दृग सम्मुख रवि - छवि आई॥

कुंती बोली हे देव! सुनें, दर्शन पाकर धन्य हुई।
अब वापस आप चले जाएं, शंका हिय अनुमन्य हुई॥

बिना दिए वर जा न सकूं मैं, अतः यही कर देता हूं।
तेजस्वी सुत मेरे जैसा, पाने का वर देता हूँ॥

बिन ब्याही माता कहलाऊं, अपयश झेल नहीं सकती।
पुत्र मिला तेजस्वी रवि सम, साथ मगर कैसे रखती ?

अतः टोकरी में रख उसको, गंगा - धार बहा आयी।
पत्थर रखकर मन पर अपने, अपराध ग्लानि भर लायी॥

शेष न कोई पथ दूजा था, अतः नियति स्वीकार लिया।
आया जो भी समझ मुझे वह मैंने अंगीकार किया॥

ब्याही गयी हस्तिनापुर में, प्रथम पाण्डु - परिणीता बन॥
टीस उठाती स्मृतियों से तब, धीरे - धीरे उबरा मन॥

रानी बनी हस्तिनापुर की, दिन बीते खुशहाली में।
मन को जैसे पंख लग गये, जगमग जगत दिवाली में॥

एक समान न रहते सब दिन, नियति व्यथा पीड़ा लायी।
मद्र देश की राजकुमारी, माद्री सौतन बन आयी॥

सहज उदार सरल मन कुन्ती, पुनः नियति स्वीकार लिया।
मिलता वह जो भाग्य लिखा हो, बस यह हृदय विचार किया॥

शाप पाण्डु को आखेटन में ऋषि किंदामा से मिलता।
पश्चाताप करें वह वन जा, वैचारिक मन्थन चलता॥

कुंती पतिव्रत धर्म निभाती बाधा खड़ी न वह करती
माद्री भी सहमति जतलाती वन जाने को हठ करती ॥

वरदान मिला जो कुंती को उनसे त्रय सुत पाती है।
बहन मान कर माद्री को भी, द्वय सुत - सुख दिलवाती है॥

मोहित माद्री पर पांडु हुए, भूल शाप रति - लीन सहज।
प्राण पखेरू तत्क्षण निकले, असर शाप का हुआ महज॥

फिर एक बार था कुंती पर घन साया सा लहराया ।
सती हुई माद्री तज निज सुत पालन कुंती पर आया॥

पालन पोषण पाण्डु - सुतों का, अब कुन्ती को करना था।
लौट हस्तिनापुर आई वह, धीरज निज मन धरना था॥

गान्धारी के साथ सदा वह घुल-मिल कर रहती थी ।
दुर्योधन धृतराष्ट्र दुशासन सबके प्रति मृदु कहती थी॥

भाव न प्रतिहिंसा का किंचित, कौरव प्रति कुंती - मन में।
चाहे शूल न बिछाये कितने निज पुत्रों के जीवन में॥

सदा भतीजे कृष्ण पर रहा, विश्वास अटूट हृदय में।
रक्षण न्याय नीति का करके, रहते सत्य धर्म जय में॥

नैतिक सामाजिक मूल्यों की, डोर सदा थामे रहती ।
एक सूत्र में सब पुत्रों को, कर प्रयास बाँधे रखती॥

पुत्रवधू के साथ भी रहा, रिश्ता मधुरिम कुन्ती का।
बुद्धिमती दृढ़ निश्चय वाली, सार समझती जगती का॥

ज्ञात हुआ जब कर्ण पुत्र निज करती रही प्रयास सभी।
कर्ण पाण्डवों संग मिल रहे, भूल हुई जो हुई कभी॥

तत्पर अब अपयश स्वीकारूं , जीवित सारे पुत्र रहें।
अग्रज कर्ण सभी पुत्रों के, मिलकर सब एकत्र रहें॥

भरा विसंगतियों से जीवन पीड़ा का सामान रहा।
माता बलशाली पुत्रों की, पर न समय आसान रहा॥

विदुर

दासी पुत्र विदुर धर्मात्मा, सुत थे व्यास महामुनि के।
धृतराष्ट्र पाण्डु के भ्राता सम, परित: आभा ज्ञान दिखे॥

लेते रहते पक्ष धर्म का, नीति-परक संवादों में।
संग सत्य के रहें हमेशा, दिखता साहस बातों में॥

दासी - सुत होने की पीड़ा, मनोदशा चाकर वाली।
विश्वास स्वयं पर कम रहता, साहस ज्ञान रहे खाली॥

भाव दीनता का हावी था, अन्तरमन के प्रांगण में।
ओज न आ पाया वाणी में, मन दशा रही ज्यो रण में ॥

विदुर सोचते कभी कहीं क्या, कोई मुझको समझेगा?
दुर्योधन को समझाऊं तो क्रोध उसे आ जाएगा॥

जन्मा दासी - पुत्र रूप में, सीख न युद्ध - कला पाया।
भीष्म पितामह मुझे सिखाएं, ऐसा भाग्य कहाँ पाया?

क्षत्रिय जन ही युद्ध कलाएं, सीख सकेंगें नियम यही।
सब अपने विद्रोह करूं क्या, गुरुजन मे यह बात कही॥

शास्त्रों वेदों राजनीति का ज्ञानार्जन कर पाया हूँ।
बुद्धिमान विद्वान सरल छवि, मन्त्री पद तक आया हूँ॥

वरना दासी - सुत को कितना मान यहाँ मिल पाता है?
चाह रही रण - कौशल सीखूँ, युद्ध पराक्रम भाता है॥

करता हूँ स्वीकार हृदय से, नियति जहाँ ले आयी है।
कुछ विधना ने सोचा होगा, जो यह किस्मत पायी है॥

शांत सरल मन दूरदर्शिता, गुण मेरे हैं ज्ञात मुझे।
करते मुझको कृष्ण प्रेम हैं, भाती है यह बात मुझे॥

चर्चा करते महाराज भी, नीति विषय पर हैं मुझसे।
विदुर नीति पहचान बन रही, ये भी मुझको बात रुचे॥

संतोष सरलता भक्ति सहज, नीति निपुणता मेरा बल।
डगर धर्म की चलना मुझको, तनिक न भाता मुझको छल॥

रखनी भी पहचान जरूरी, अपने और पराये की।
संकट ज्ञात करा जाता सब, भला समय भरमाये भी॥

पितृ विहीन हुए पाण्डव यदि क्यों उनका अधिकार छिने?
जब पथ-भ्रष्ट हुए कौरव - जन, उनके भी तो पाप गिने॥

असहाय विवश पाता निज को, बस कह ही तो सकता हूँ।
मगर डिगूँगा नहीं डगर से, सच को थामे रहता हूँ॥

दुर्योधन दुःशासन कौरव, या फिर हो धृतराष्ट्र सभी।
भरी हुई है हृदय कुटिलता, मुझको तो है ज्ञात सभी।

धर्मपरायण रहे युधिष्ठिर, संग सभी निज भ्रात लिए।
अतुलित बलशाली सब के सब, नीति न्याय के कार्य किए॥

कौरव चालें चलें हमेशा, पाण्डव - जीवन संकट में।
काट सकूं हर कुटिल चाल को, झेल सकें पाण्डव झटके॥

पांचाली के चीर हरण में, किया विरोध यथासंभव।
मगर बाध्य नृप आज्ञा मानूँ, हा। धिक जीवन का वैभव॥

पुत्र-मोह में महाराज भी, अन्याय बहुत कर जाते।
पाण्डु - सुतों के संग नहीं वह, न्याय कभी कर पाते॥

माना देख नहीं सकते पर अन्तर - दृष्टि न खोलें क्यों ?
अधिकार पाण्डवों का भी है, बात नहीं वे समझें क्यों ?

जो भी मैं कह सकता हूँ वह, बिन भय के कह जाऊंगा।
चक्षु खुले रख जो भी कर सकता हूँ कर जाऊंगा॥

पाण्डु - सुतों पर मेरे रहते, आँच न कोई आ पाये।
सदा प्रयास रहेगा मेरा, अधिकार उन्हें मिला जाये॥

कुन्ती भाभी धर्म - परायण कृष्ण धर्म के रक्षक हैं।
धर्मराज युधिष्ठिर के संग, पाण्डव सतपथ तक्षक हैं॥

मौन समर्थन मेरा उनको, पक्ष न खुलकर ले सकता।
संभव यथा रहा है जितना, रक्षण को तत्पर रहता॥

कृष्ण त्याग कर राजभोग को, गृह मेरे जो आते हैं।
अपना मान बढ़ा पाता हूँ, धन्य प्राण हो जाते हैं॥

संजय

गावाल्गण विद्वान सूत थे, सुत उनका संजय बुनकर।
विनम्र धार्मिक स्वभाव मधुरिम राजसभा में रहें मुखर॥

रहे सारथी महाराज के, सलाहकार बने संजय।
बातें राज्य हितों की करते, कर पाते न कभी अभिनय॥

बात खरी ही बोलें संजय, कड़े वचन कह जाते थे।
धृतराष्ट्र रहे या सुत उनके, धर्म - नीति समझाते थे॥

अन्यायों का विरोध करते,बिन किंचित भय रख मन में।
सहानुभूति रही पाण्डव से, कृष्ण - भक्ति की जीवन में॥

मन्त्री थे धृतराष्ट्र राज्य में, सत्य सलाह दिया करते ।
होते क्षुब्ध महाराज मगर, बातें स्पष्ट किया करते॥

जब पाण्डव वनवास गये थे, चेताया नृप को तब भी।
नाश समूल लिखा कुरु कुल का, पर प्रजा निरीह मरेगी॥

पूर्व महाभारत के भेजा, पास युधिष्ठिर राजन ने ।
धर्मराज के संदेशे को, लौट सुनाया संजय ने॥

दोनों पक्षों को समझाया, जैसे भी हो युद्ध टले।
अथक प्रयास करें जो संभव, संजय को यह युद्ध खले॥

हुआ सुनिश्चित जब यह सबको टल सकता अब युद्ध नहीं।
दिव्य दृष्टि दी वेद व्यास ने संजय सकते देख कहीं॥

पल-पल का हाल सुना सकते, रण स्थल हाल बता सकते।
कौरव पाण्डव सेनाओं का, आँखों देखा वर्णन कहते॥

साथ सुनाया भगवद्गीता, संवादों की शैली में।
अर्जुन माधव से क्या पूछें, कृष्ण कहें क्या रैली में ?

हाल सुनाते संजय सोचें, अद्भुत ज्ञान सुनें सारे।
मनोदशा अनुकूल ग्रहण कर, सबने ज्ञान हृदय धारे॥

एकाग्र नहीं मन अगर हुआ, व्यर्थ ज्ञान हो जाएगा।
बस निज हित की बात सुनें यदि, क्षीण असर हो जाएगा॥

गान्धारी धृतराष्ट रहें या कुन्ती विदुर उपस्थित सब।
खो जाते अपने चिन्तन में वर्णन मध्य कहें क्या अब?

विस्तृत इतना वृहद ज्ञान वह, समझेंगे बस ईश्वर ही।
छलकी जाती ज्ञान गगरिया, पर कहती आयाम सही॥

क्षुद्र बहुत अपने को मानूं, अल्प बुद्धि क्या समझूंगा?
धन्य हुआ मैं दिव्य दृष्टि पा, संभव ज्ञान समेटूंगा॥

कृपा रही ईश्वर की मुझ पर, दिव्य दृष्टि पाया मैंने।
देख सका अर्जुन के जैसे, कृष्ण - रूप देखा मैनें॥

सफल हो गया जीवन जीना, रोष न कोई अब मन में।
लीलाधर की लीला देखी, मैने भी इस जीवन में॥

रूप दिव्य जो कृष्ण दिखाते अर्जुन को रण के स्थल पर।
रूप वही संजय ने भी था, देखा अन्तः सिहरन भर॥

दिव्य कृष्ण छवि दर्शन करके, रहा न पहले सा जीवन।
अन्तः करण हुआ परिवर्तित, हो आया वैरागी मन॥

तटस्थ होकर हाल सुनाते, यथारूप वर्णन करते। 
पक्ष - विपक्ष भाव अब धूमिल, रंजित रक्त - कथा कहते॥

अन्दर रहती उदासीनता, वैरागी सम भावों में।
दायित्व नहीं था पूर्ण हुआ, व्यर्थ समय न सुझावों में॥

धर्म - युद्ध यह नियति कराये, सबके अपने लेखे हैं।
ज्ञान कृष्ण का ग्रहण कर लिया, फल कर्मों के देखें हैं॥

भाया अब सन्यासी जीवन, गूढ़ ज्ञान की सुन बातें।
कृष्ण - भक्ति में बीते जीवन, चाहें दिन हों या रातें॥

दिव्य दृष्टि खो दी संजय ने, जब वह युद्ध समाप्त हुआ।
आमूल - चूल परिवर्तन भी, संजय भीतर व्याप्त हुआ॥

बातें गूढ़ बहुत थीं लेकिन, समझ सका जो ज्ञान न कम।
धन्य हुआ जीवन यह मेरा अब न हृदय में रहता तम॥

वाद विवाद न बहस लगे प्रिय, भक्ति मौन में मुखर हुई।
अन्तर दिशा दशा सुधरी मृदु, अन्तर आत्मा निखर हुई॥

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