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गुरुवार, 25 जनवरी 2024

राजेंद्र वर्मा, गीत, ध्वजा तिरंगी, लघुकथा, पुनीत छंद, मुक्तिका, दोहा, सलिल २५ जनवरी

सलिल सृजन २५ जनवरी 
*
दो कवि एक कुण्डलिया 
बाय-बाय चिड़ियाँ करें, टाटा भैया  काग।
करती यामा को  विदा, बूढ़ी अम्मा जाग। -राजकुमार महोबिया, उमरिया
बूढ़ी अम्मा जाग, जागरण करें रात भर।
सर्दी से ठिठुराँय, कथरिया लिए प्रात कर।।
राम राम को भूल, हो हाय तोते करें।
टाटा भैया काग, बाय-बाय चिड़िया करें।। सलिल 
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कार्यशाला
कुंडलिया
रचना विधान
- पहली दो पंक्ति दोहा।
- बाद की चार पंक्तियाँ रोला।
- दोहा १३-११, दो पंक्ति।
- रोला ११-१३, चार पंक्ति।
- दोहे का चौथा चरण जैसे का तैसा रोला का पहला चरण होना अनिवार्य।
- रोला के अंत में दोहा के आरंभिक वर्ण, शब्द, पंक्त्यांश या पंक्ति जरूरी।
•••
कुंडलिया
राम काव्य
मन मंदिर सिय-राम हैं, मूँद नयन ले देख।
राम लला विग्रह कहे, लाँघ न लछमन-रेख।।
लाँघ न लछमन रेख, दरश कर शांति-चाव से।
अनुशासित रह लेख, इष्ट-छवि भक्ति-भाव से।।
दास राम की सृष्टि, सभी से स्नेह सदा कर।
सम्यक् रख निज दृष्टि, स्वच्छ रख निज मन मंदिर।।
२५-१-२०२४
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गीत
अगिन नमन गणतंत्र महान
जनगण गाए मंगलगान
*
दसों दिशाएँ लिए आरती
नजर उतारे मातु भारती
धरणि पल्लवित-पुष्पित करती
नेह नर्मदा पुलक तारती
नीलगगन विस्तीर्ण वितान
अगिन नमन गणतंत्र महान
*
ध्वजा तिरंगी फहरा फरफर
जनगण की जय बोले फिर फिर
रवि बन जग को दें प्रकाश मिल
तम घिर विकल न हो मन्वन्तर
सत्-शिव-सुंदर मूल्य महान
अगिन नमन गणतंत्र महान
*
नीव सुदृढ़ मजदूर-किसान
रक्षक हैं सैनिक बलवान
अभियंता निर्माण करें नव
मूल्य सनातन बन इंसान
श्वास-श्वास हो रस की खान
अगिन नमन गणतंत्र महान
*
केसरिया बलिदान-क्रांति है
श्वेत स्नेह सद्भाव शांति है
हरी जनाकांक्षा नव सपने-
नील चक्र निर्मूल भ्रांति है
रज्जु बंध, निर्बंध उड़ान
अगिन नमन गणतंत्र महान
*
कंकर हैं शंकर बन पाएँ
मानवता की जय जय गाएँ
अडिग अथक निष्काम काम कर
बिंदु सिंधु बनकर लहराएँ
करे समय अपना जयगान
अगिन नमन गणतंत्र महान
***
गीत
देश हमारा है
*
देश हमारा है, सरकार हमारी है,
क्यों न निभाई, हमने जिम्मेदारी है?
*
नियम व्यवस्था का पालन हम नहीं करें,
दोष गैर पर निज, दोषों का नहीं धरें।
खुद क्या बेहतर कर सकते हैं, वही करें।
सोचें त्रुटियाँ कितनी कहाँ सुधारी हैं?...
*
भाँग कुएँ में घोल, हुए मदहोश सभी
किसके मन में किसके प्रति आक्रोश नहीं?
खोज-थके, हारे पाया सन्तोष नहीं।
फ़र्ज़ भुला, हक़ चाहें मति गई मारी है...
*
एक अँगुली जब तुम को मैंने दिखलाई।
तीन अंगुलियाँ उठीं आप पर, शरमाईं
मति न दोष खुद के देखे थी भरमाई।
सोचें क्या-कब हमने दशा सुधारी है?...
*
जैसा भी है तन्त्र, हमारा अपना है।
यह भी सच है बेमानी हर नपना है।
अँधा न्याय-प्रशासन, सत्य न तकना है।
कद्र न उसकी जिसमें कुछ खुद्दारी है...
*
कौन सुधारे किसको? आप सुधर जाएँ।
देखें अपनी कमी, न केवल दिखलायें।
स्वार्थ भुला, सर्वार्थों की जय-जय गायें।
अपनी माटी सारे जग से न्यारी है ...
***
सॉनेट
उम्र नदी की नापी थाह
समल सलिल की धार अपार
सके घाट से विहँस निहार
लहरों ने की जमकर वाह
कोशिश मछली करे न डाह
देखो मिले न भाटा-ज्वार
तैरो अनथक उतरो पार
जलकुंभी से बच अवगाह
हिम्मत रखो न जाना हार
श्वास-आस प्रभु का उपहार
हर दिन मना तीज-त्यौहार
सुधियों का अमृत कर पान
संबंधों का कर जयगान
हरा न पाए पीड़ा ठान
२५•१•२०२३
•••
बुधिया लेता टोह- बसंत शर्मा
कृति परिचय :
बुधिया लेता टोह: चीख लगे विद्रोह
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
स्वातंत्र्योत्तर भारतीय साहित्य छायावादी रूमानियत (पंत, प्रसाद, महादेवी, बच्चन), राष्ट्रवादी शौर्य (मैथिली शरण गुप्त, माखन लाल चतुर्वेदी, दिनकर, सोहनलाल द्विवेदी) और प्रगतिवादी यथार्थ (निराला, नागार्जुन, त्रिलोचन, मुक्तिबोध) के संगुफन का परिणाम है। गीत के संदर्भ में परंपरा और नवता के खेमों में बँटे मठधीश अपनी सुविधा और दंभ के चलते कुछ भी कहें और करें, यह सौभाग्य है कि हिंदी का बहुसंख्यक नव रचनाकार उन पर ध्यान नहीं देता, अनुकरण करना तो दूर की बात है। अपनी आत्म चेतना को साहित्य सृजन का मूलाधार मानकर, वरिष्ठों के विमर्श को अपने बौद्धिक तर्क के धरातल पर परख कर स्वीकार या स्वीकार करने वाले बसंत शर्मा ऐसे ही नव-गीकार हैं जो नव-गीत और नवगीत को भारत पकिस्तान नहीं मानते और वह रचते हैं जो कथ्य की आवश्यकता है। नर्मदा तीर पर चिरकाल से स्वतंत्र चिंतन-मनन-सृजन की परंपरा रही है। रीवा नरेश रघुराज सिंह से लेकर गुजराती कवि नर्मद तक की यह परंपरा वर्तमान में भी निरंतर गतिमान है। बसंत शर्मा राजस्थान की मरुभूमि से आकर इस सनातन प्रवाह की लघुतम बूँद बनने हेतु यात्रारंभ कर रहे हैं।
गीत-प्रसंग में तथाकथित प्रगतिवादी काव्य समीक्षकों द्वारा गीत को नकारने ही नहीं गीत के मरने की घोषणा करने और नवान्वेषण के पक्षधरों द्वारा गीत-तत्वों के पुनरावलोकन और पुनर्मूल्यांकन के स्थान पर निजी मान्यताओं को आरोपित करने ने नव रचनाकारों के समक्ष दुविधा उपस्थित कर दी है। 'मैं इधर जाऊँ कि उधर जाऊँ?' की मन:स्थिति से मुक्त होकर बसंत ने शीत-ग्रीष्म के संक्रांति काल में वैभव बिखेरने का निर्णय किया तो यह सर्वथा उचित ही है। पारंपरिक गीत-तनय के रूप में नवगीत के सतत बदलते रूप को स्वीकारते हुए भी उसे सर्वथा भिन्न न मानने की समन्वयवादी चिंतन धारा को स्वीकार बसंत ने अपनी गीति रचनाओं को प्रस्तुत किया है। नवगीत के संबंध में महेंद्र भटनागर के नवगीत: दृष्टि और सृष्टि की भूमिका में श्रद्धेय देवेंद्र शर्मा ने ठीक ही लिखा है "वह रचना जो बहिरंग स्ट्रक्चर के स्तर पर भले ही गीत न हो किन्तु वस्तुगत भूमि पर नवोन्मेषमयी हो उसे नवगीतात्मक ही कहना संगत होगा.... गीत के लिए जितना छंद आवश्यक है, उतनी लय। लय यदि आत्मा है तो छंद उसको धारण करने वाला कलेवर है। प्रकारांतर से लय यदि जनक है तो छंद उसको धारण करने वाला कलेवर है। कविकर्म के संदर्भ में कहा गया है- "छंदोभंग न कारयेत" और छंदोभंग की स्थिति जब रचनाकार का 'लय' पर अभीष्ट अधिकार न हो।... नवगीत विद्वेषी पारम्परिक (मंचीय) गीतकारों और नयी कविता के पक्षपाती इधर एक भ्रामक प्रचार करते नहीं तक रहे कि नवगीत में जिस बोध-पक्ष और चेतना-पक्ष का उन्मेष हुआ वह प्रयोगवाद और नयी कविता का ही 'उच्छिष्ट' है। ऐसी सोच पर हँसा या रोया ही जा सकता है।...'नवगीत' नयी 'कविता' का 'सहगामी' तो है, 'अनुगामी' कतई नहीं है।"
कवि बसंत ने परंपरानुपालन करते हुए शारद-स्तवनोपरांत उन्हें समर्पित इन रचनाओं में 'लय' के साथ न्याय करते हुए 'निजता', 'तथ्यपरकता', 'सोद्देश्यता' तथा 'संप्रेषणीयता' के पंच पुष्पों से सारस्वत पूजन किया है। इनमें 'गीत' और 'नवगीत' गलबहियाँ कर 'कथ्य' को अभिव्यक्त करते हैं। नर्मदांचल में गीत-नवगीत को भारत-पाकिस्तान की तरह भिन्न और विरोधी नहीं नीर-क्षीर की तरह अभिन्न और पूरक मानने की परंपरा है। जवाहर लाल चौरसिया तरुण, यतीन्द्र नाथ राही, संजीव वर्मा 'सलिल', राजा अवस्थी, विजय बागरी की श्रृंखला में बसंत शर्मा और अविनाश ब्योहार अपनी निजता और वैशिष्ट्य के साथ जुड़े हैं। बसंत की रचनाओं में लोकगीत की सुबोधता, जनगीत का जुड़ाव, पारम्परिक गीत का लावण्य और नागर गीत की बदलाव की चाहत वैयक्तिक अभिव्यक्ति के साथ संश्लिष्ट है। वे अंतर्मन की उदात्त भावनाओं को काल्पनीयक बिम्ब-प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त करते हुए देते। यथार्थ और कल्पना का सम्यक सम्मिश्रण इन गीतों- नवगीतों को सहज ग्राह्य बना देते हैं।
धौलपुर राजस्थान में जन्में बसंत जी भारतीय रेल सेवा में चयनित होकर परिचालन प्रबंधन के सिलसिले में देश के विभिन्न भागों से जुड़े रहे हैं। उनके गीतों में ग्रामीण उत्सवधर्मिता और नागर विसंगतियाँ, प्रकृति चित्रण और प्रशासनिक विडम्बनाएँ, विशिष्ट और आम जनों का मत-वैभिन्न्य रसमयता के साथ अभिव्यक्त होता है। गौतम बुद्ध कहते हैं 'दुःख ही सत्य है।' आंग्ल उपन्यासकार थॉमस हार्डी के अनुसार 'हैप्पीनेस इज ओनली एन इण्टरल्यूड इन द जनरल ड्रामा ऑफ़ पेन.' अर्थात दुःखपूर्ण जीवन नाटक में सुख केवल क्षणिक पट परिवर्तन है। इसीलिये शैलेन्द्र लिखते हैं 'दुनिया बनानेवाले काहे को दुनिया बनाई?' बसंत इनसे पूरी तरह सहमत नहीं हैं। उनका हीरो 'बुधिया' बादलों की टोह लेते हुए साहब को विद्रोह लगने पर भी चीख-पुकार करता है क्योंकि उसे अपने पुरूषार्थ पर भरोसा है-
आये बादल, कहाँ गए फिर,
बुधिया लेता टोह ...
... आढ़तियों ने मिल फसलों की
सारी कीमत खाई
सूख गयी तुलसी आँगन की
झुलस गयी अमराई
चीख पुकार कृषक की लगती
साहब को विद्रोह
परम्परा से कृषि प्रधान देश भारत को बदल कर चंद उद्योगपतियों के हित साधन हेतु किसानी को हानि का व्यवसाय बनाने की नीति ने किसानों को कर्जे के पाश में जकड़कर पलायन के लिए विवश कर दिया है-
बैला खेत झोपड़ी गिरवी
पर खाली पॉकेट
छोड़ा गाँव आज बुधिया ने
बिस्तर लिया लपेट ....
... रौंद रहीं खेतों को सड़कें
उजड़ रहे हैं जंगल
सूख गया पानी झरनों का
कैसे होगा मंगल?
आदम ने कर डाला नालों-
नदियों का आखेट
प्रकृति और पर्यावरण की चिंता 'बुधिया' को चैन नहीं लेने देती। खाट को प्रतीक बनाकर कवि सफलतापूर्वक गीत नायक की विपन्नता 'कम कहे से ज्यादा समझना' की तर्ज पर उद्घाटित करता है-
जैसे-तैसे ढाँक रही तन,
घर में टूटी खाट
बैठा उकड़ू तर बारिश में
बुधिया जोहे बाट
गाँव से पलायन कर सुख की आस में शहर आनेवाला यह कहाँ जानता है कि शहर की आत्मा पर भी गाँव की तरह अनगिन घाव हैं। अपनी जड़ छोड़कर भागनेवाले पूर्व की जड़ पश्चिम के मूल्यों को अपनाकर भी जम नहीं पातीं-
दूर शहर से हवा पश्चिमी
गाँवों तक आई
देख सड़क को पगडंडी ने
ली है अँगड़ाई
बग्घी घोड़ी कार छोड़कर
मटक रहा दूल्हा
नई बहुरिया भागे होटल
छोड़ गैस-चूल्हा
जींस पहनकर नाच रही हैं
बड़की भौजाई
ठौर-ठिकाना ढूँढते गाँव झाड़-पेड़-परिंदों के बिना निष्प्राण हैं। कोढ़ में खाज है- "संबंधों के मुख्य द्वार पर / शक कठोर प्रहरी।" सरकारी लालफीताशाही की असलियत कवि से छिप नहीं पाती-
"बजता लेकिन कौन उठाये
सच का टेलीफून?"
पैसे लिए बिना कोई भी
कब थाने में हिलता
बिना दक्षिणा के पटवारी
कब किसान से मिलता
लगे वकीलों के चक्कर तो
उतर गई पतलून
जीवन केवल दर्द-दुःख का दस्तावेज नहीं है, सुख के शब्द भी इन पर अंकित-टंकित हैं। इन गीतों का वैशिष्टय दुःख के साथ सुख को भी समेटना है। इनमें फागुन मोहब्बतों की फसल उगाने आज भी आता है-
गीत-प्रीत के हमें सुनाने
आया है फागुन
मोहब्बतों की फसल उगाने
आया है फागुन
सरसों के सँग गेहूं खेले,
बथुआ मस्त उगे
गौरैया के साथ खेत में
दाने काग चुने
हिल-मिलकर रहना सिखलाने
आया है फागुन
'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन' की विरासत वाले देश को श्रम की महत्ता बतानी पड़े इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है-
रिद्धि-सिद्धि तो वहीं दौड़तीं,
श्रम हो जहाँ अकूत
बसंत जी समय के साथ कदमताल करते हुए तकनीक को इस्तेमाल ही नहीं करते, उसे अपनी नवगीत का विषय भी बनाते हैं-
वाट्स ऐप हो या मुखपोथी
सबके अपने-अपने मठ हैं
रहते हैं छत्तीस अधिककतर
पड़े जरूरत तो तिरसठ हैं
रंग निराले, ढंग अनोखे
ओढ़े हुए मुखौटे अनगिन
लाइक और कमेंट खटाखट
चलते ही रहते हैं निश-दिन
छंद हुए स्वच्छंद युवा से
गीत-ग़ज़ल के भी नव हठ हैं
कृति नायक 'बुधिया' उसी तरह बार-बार विविध बिम्बों-प्रतीकों के साथ भिन्न-भिन्न भावनाओं को शब्दित करता है जैसे मेरे नवगीत संग्रहों "काल है संक्रांति का" में 'सूर्य' तथा "सड़क पर" में 'सड़क' में गया है। हो सकता है शब्द-युग्म प्रयोगों की तरह यह चलन भी नए नवगीतकारों में प्रचलित हो। आइये, बुधिया की अर्जी पर गौर करें-
अर्जी लिए खड़ा है बुधिया
दरवाजे पर खाली पेट
राजाजी कुर्सी पर बैठे
घुमा रहे हैं पेपरवेट
कहने को तो 'लोकतंत्र' है,
मगर 'लोक' को जगह कहाँ है?
मंतर सारे पास 'तंत्र' के
लोक भटकता यहाँ-वहाँ
रोज दक्षिणा के बढ़ते हैं
सुरसा के मुँह जैसे रेट
राजाजी प्रजा को अगड़ी-पिछड़ी में बाँट कर ही संतुष्ट नहीं होते, एक-एक कर सबका शिकार करना अपन अधिकार मानते हैं। प्यासी गौरैया और नालों पर लगी लंबी लाइन उन्हें नहीं दिखती लेकिन बुढ़िया मिट्टी के घड़े को चौराहे पर तपते और आर ओ वाटर को फ्रिज में खिलवाड़ करते देखता है-
घट बिन सूनी पड़ी घरौंची
बुधिया भरता रोज उसासी
इन रचनाओं में देश-काल समाज की पड़ताल कर विविध प्रवृत्तियों को इंगित सम्प्रेषित किया गया है। कुछ उदाहरण देखें-
लालफीताशाही-
फाइलों में सज रही हैं / अर्जियां हर दीन की, चीख-पुकार कृषक की लगती / साहब को विद्रोह।
भ्रष्टाचार-
दाम है मुश्किल चुकाना / ऑफिसों में टीप का, पैसे लिए बिना कोई भी / कब थाने में हिलता, बिना दक्षिणा के पटवारी / कब किसान से मिलता।
न्यायालय-
लगे वकीलों के चक्कर तो / उतर गई पतलून।
कुंठा- सबकी चाह टाँग खूँटी पर / कील एक ठोंके।
गरीबी-
जैसे-तैसे ढाँक रही तन / घर में टूटी खाट / बैठा उकड़ूँ तर बारिश में / बुधिया जोहे बाट, बैला खेत झोपड़ी गिरवी / पर खाली पॉकेट, बिना फीस के, विद्यालय में / मिला न उसे प्रवेश।
राजनैतिक-
जुमले लेकर वोट माँगने / आते सज-धज नेता।
जन असंतोष- कहीं सड़क पर, कहीं रेल पर / चल रास्ता रोकें रोकें।
पर्यावरण-
कूप तड़ाग बावली नदियाँ / सूखीं, सूने घाट, खड़ा गाँव से दूर सूखता / बेबस नीम अकेला, चहक नहीं अब गौरैया की / क्रंदन पड़े सुनाई।
किसान समस्या-
पानी सँग सिर पर सवार था / बीज खाद का चक्कर, रौंद रहीं खेतों को सड़कें / उजड़ रहे हैं जंगल, आढ़तियों ने मिल फसलों की / सारी कीमत खाई।
सामाजिक- उड़े हुए हैं त्योहारों से / अपनेपन के रंग, हुई कमी परछी-आँगन की / रिश्तों का दीवाला, सूख गई तुलसी आँगन की / झुलस गई अमराई अमराई, जींस पहनकर नाच रही हैं / बड़की भौजाई, संबंधों के मुख्य द्वार पर / शक कठोर प्रहरी।
जनगण की व्यथा-कथा किन्ही खास शब्दों की मोहताज नहीं होती। नीरज भले ही 'मौन ही तो भावना की भाषा है' कहें पर आज जब चीत्कार भी अनसुना किया जा रहा है, नवगीत को पूरी शिद्दत के साथ वह सब कहना ही होगा जो वह कहना चाहता है। बसंत जी नवगीतों में शब्दों को वैसे ही पिरोते हैं जैसे माला में मोती पिरोये जाते हैं। इन नवगीतों में नोन, रस्ता, बैला, टोह, दुबारा, बहुरिया, अँगनाई, पँखुरियाँ, फिकर, उजियारे, पसरी, बिजूका, भभूका, परजा, लकुटी, घिरौंची, उससे, बतियाँ रतियाँ, निहारत जैसे शब्दों के साथ वृषभ, आरोह, अवरोह, तृषित, स्वप्न, अट्टालिकाएँ, विपदा, तिमिर, तृष्णा, संगृहीत, ह्रदय, गगन, सद्भावनाएँ, आराधनाएँ, वर्जनाएँ, कलुष, ग्रास जैसे संस्कृतनिष्ठ शब्दों को पूरी स्वाभाविकता के साथ प्रयोग करते हैं। इन गीतों में जितनी स्वाभाविकता के साथ साहब, फाइलों, ऑफिसों, पॉकेट, लैपटॉप, रॉकेट, जींस, बार्बी डॉल, मोबाईल, रेस, चैटिंग, सैटिंग, चेन, स्विमिंग पूल, डस्टबिन, बुलडोजर, गफूगल, रेट, जैकेट, वेट, वाट्स ऐप, लाइक, कमेंट, फ्रिज, आर ओ वाटर, बोतल, इंजीनियरिंग, होमवर्क आदि अंगरेजी शब्द प्रयोग में लाए गए हैं, उतने ही अपनेपन के साथ उम्र, अर्जियां, लबों, रिश्तों, हर्जाने, कर्जा, मूरत, कश्मकश, ज़िंदगी, दफ्तर, कोशिश, चिट्ठी, मंज़िल, साजिश, सरहद, इमदाद, रियायत समंदर, अहसान जैसे अरबी-फ़ारसी-तुर्की व् अन्य भाषाओँ के प्रचलित शब्द भी बेहिचक-बखूबी प्रयोग किये गए हैं।
नवगीतों में पिछले कुछ वर्षों से निरंतर बढ़ रही शब्द-युग्मों को प्रयोग करने की प्रवृत्ति बसंत जी के नवगीतों में भी हैं। नव युग्मों के विविध प्रकार इन गीतों में देखे जा सकते हैं यथा- दो सार्थक शब्दों का युग्म, पहला सार्थक दूसरा निरर्थक शब्द, पहला निरर्थक दूसरा सार्थक शब्द, दोनों निरर्थक शब्द, पारिस्थितिक शब्द युग्म, संबंध आधारित शब्द युग्म, मौलिक शब्द युग्म, एक दूसरे के पूरक, एक दूसरे से असम्बद्ध, तीन शब्दों का युग्म आदि। रोटी-नोन, जैसे-तैसे, चीख-पुकार, हरा-भरा, ठौर-ठिकाना, मुन्ना-मुन्नी, भाभी-भैया, काका-काकी, चाचा-ताऊ, जीजा-साले, दादी-दादा, अफसर-नेता, पशु-पक्षी, नाली-नाला, मंदिर-मस्जिद, सज-धज, गम-शूम, झूठ-मूठ, चाल-ढाल, खाता-पीता, छुआ-छूत, रोक-थाम, रात-दिन, पाले-पोज़, आँधी-तूफ़ान, आरोह-अवरोह, गिल्ली-डंडा, सर-फिरी, घर-बाहर, तन-मन, जाती-धर्म, हाल-चाल, साँझ-सकारे, भीड़-भड़क्का, कौरव-पांडव, आस-पास, रंग-बिरंगे, नाचे-झूमे, टैग-तपस्या, बग्घी-घोडा, खेत-मढ़ैया, निश-दिन, नाचो-गाओ, पोखर-कूप-बावड़ी, इसकी-उसकी-सबकी, ढोल-मँजीरा, रिद्धि-सिद्धि, तहस-नहस, फूल-शूल, आदि।
बसंत जी शब्दावृत्तियों के प्रयोग में भी पीछे नहीं हैं। हर-हर, हँसते-हँसते, मचा-मचा, दाना-दाना, खो-खो, साथ-साथ, संग-संग, बिछा-बिछा, टुकुर-टुकुर, कटे-कटे, हँस-हँस, गली-गली, मारा-मारा, बारी-बारी आदि अनेक शब्दावृत्तियाँ विविध प्रसंगों में प्रयोग कर भाषा को मुहावरेदार बनाने का सार्थक प्रयास किया गया है।
अलंकार
अन्त्यानुप्रास सर्वत्र दृष्टव्य है। यमक, उपमा व श्लेष का भी प्रयोग है। विरोधाभास- जितने बड़े फ़्लैट-कारें / मन उतना ज्यादा छोटा। व्यंजना- बहुतई अधिक विकास हो रहा।
मुहावरे
कहीं-कहीं मुहावरों के प्रयोग ने रसात्मकता की वृद्धि की है- दिल ये जल जाए, मेरी मुर्गी तीन टाँग की आदि।
आव्हान
इस कृति का वैशिष्ट्य विसंगतियों के गहन अन्धकार में आशा का दीप जलाए रखना है। संकीर्ण मानसिकता के पक्षधर भले ही इस आधार पर नवता में संदेह करें पर गत कुछ दशकों से नवगीत का पर्याय अँधेरा और पीड़ा बना दिए जाने के काल में नवता उजाले हुए हर्ष का आव्हान करना ही है। ''आइये, मिलकर बनायें / एक भारत, श्रेष्ठ भारत'' के आव्हान के साथ गीतों-नवगीतों की इस कृति का समापन होना अपने आप में एक नवत्व है। छंद और लय पर बसंत जी पकड़ है। व्यंजनात्मकता और लाक्षणिकता का प्रभाव आगामी कृतियों में और अधिक होगा। बसंत जी की प्रथम कृति उनके उज्जवल भविष्य का संकेत करती है। पाठक निश्चय ही इन गीतों में अपने मन की बात पाएँगे हुए कहेंगे- ''अल्लाह करे जोरे-कलम और जियादा।''
२५.१.२०२०
***
दोहा सलिला
आज बने गणतंत्र हम, जनता हुई प्रसन्न।
भेद-भाव सब दूर हो, जन-जन हो संपन्न।
*
प्रजातंत्र में प्रजा का, सेवक होता तंत्र।
जनसेवी नेता बनें, यही सफलता-मंत्र।।
*
लोकतंत्र में लोकमत, होता है अनमोल।
हानि न करिए देश की, कलम उठाएँ तोल।।
*
तंत्र न जन की पीर हर, खुद भोगे अधिकार।
तो जनतंत्र न सफल है, शासन करे विचार।।
*
ध्वजा तिरंगी देश की, आन, बान, सम्मान।
झुकने कभी न दे 'सलिल', विहँस लुटा दें जान।।
*
संविधान को जानकर, पालन करिए नित्य।
अधिकारों की नींव हैं, फ़र्ज़ मानिए सत्य।।
*
जाति-धर्म को भुलाकर, भारतीय हैं एक।
भाईचारा पालकर, चलो बनें हम नेक।।
२६.१.२०१८
***
सोरठे गणतंत्र के
जनता हुई प्रसन्न, आज बने गणतंत्र हम।
जन-जन हो संपन्न, भेद-भाव सब दूर हो।
*
सेवक होता तंत्र, प्रजातंत्र में प्रजा का।
यही सफलता-मंत्र, जनसेवी नेता बनें।।
*
होता है अनमोल, लोकतंत्र में लोकमत।
कलम उठाएँ तोल, हानि न करिए देश की।।
*
खुद भोगे अधिकार, तंत्र न जन की पीर हर।
शासन करे विचार, तो जनतंत्र न सफल है।।
*
आन, बान, सम्मान, ध्वजा तिरंगी देश की।
विहँस लुटा दें जान, झुकने कभी न दे 'सलिल'।।
*
पालन करिए नित्य, संविधान को जानकर।
फ़र्ज़ मानिए सत्य, अधिकारों की नींव हैं।।
*
भारतीय हैं एक, जाति-धर्म को भुलाकर।
चलो बनें हम नेक, भाईचारा पालकर।।
***
मुक्तिका
मिल गया
*
घर में आग लगानेवाला, आज मिल गया है बिन खोजे.
खुद को खुदी मिटानेवाला, हाय! मिल गया है बिन खोजे.
*
जयचंदों की गही विरासत, क्षत्रिय शकुनी दुर्योधन भी
बच्चों को धमकानेवाला, हाथ मिल गया है बिन खोजे.
*
'गोली' बना नारियाँ लूटीं, किसने यह भी तनिक बताओ?
निज मुँह कालिख मलनेवाला, वीर मिल गया है बिन खोजे.
*
सूर्य किरण से दूर रखा था, किसने शत-शत ललनाओं को?
पूछ रहे हैं किले पुराने, वक्त मिल गया है बिन खोजे.
*
मार मरों को वीर बन रहे, किंतु सत्य को पचा न पाते
अपने मुँह जो बनता मिट्ठू, मियाँ मिल गया है बिन खोजे.
*
सत्ता बाँट रही जन-जन को, जातिवाद का प्रेत पालकर
छद्म श्रेष्ठता प्रगट मूढ़ता, आज मिल गया है बिन खोजे.
*
अब तक दिखता जहाँ ढोल था, वहीं पोल सब देख हँस रहे
कायर से भी ज्यादा कायर, वीर मिल गया है बिन खोजे.
२५.१.२०१८
***
सामयिक दोहा सलिला
*
गाँधी जी के नाम पर, नकली गाँधी-भक्त
चित्र छाप पल-पल रहे, सत्ता में अनुरक्त
*
लालू के लल्ला रहें, भले मैट्रिक फेल
मंत्री बन डालें 'सलिल', शासन-नाक नकेल
*
ममता की समता करे, किसमें है सामर्थ?
कौन कर सकेगा 'सलिल', पल-पल अर्थ-अनर्थ??
*
बाप बाप पर पुत्र है, चतुर बाप का बाप
धूल चटाकर चचा को, मुस्काता है आप
*
साइकिल-पंजा मिल हुआ, केर-बेर का संग
संग कमल-हाथी मिलें, तभी जमेगा रंग
*
एक दोहा
हर दल ने दलदल मचा, साधा केवल स्वार्थ
हत्या कर जनतंत्र की, कहते- है परमार्थ
*
एक दोहा मुक्तिका
निर्मल मन देखे सदा, निर्मलता चहुँ ओर
घोर तिमिर से ज्यों उषा, लाये उजली भोर
*
नीरस-सरस न रस रहित, रखते रसिक अँजोर
दोहा-रस संबंध है, नद-जल, गागर-डोर
*
मृगनयनी पर सोहती, गाढ़ी कज्जल-कोर
कृष्णा एकाक्षी लगा, लगे अमावस घोर
*
चित्त चुराकर कह रहे, जो अकहे चितचोर
उनके चित का मिल सका, कहिये किसको छोर
*
आँख मिला मन मोहते, झुकती आँख हिलोर
आँख फिरा लें जान ही, आँख दिखा झकझोर
***
मुक्तक सलिला :
बेटियाँ
*
आस हैं, अरमान हैं, वरदान हैं ये बेटियाँ
सच कहूँ माता-पिता की शान हैं ये बेटियाँ
पैर पूजो या कलेजे से लगाकर धन्य हो-
एक क्या दो-दो कुलों की आन हैं ये बेटियाँ
*
शोरगुल में कोकिला का गान हैं ये बेटियाँ
नदी की कलकल सुरीली तान हैं ये बेटियाँ
माँ, सुता, भगिनी, सखी, अर्धांगिनी बन साथ दें-
फूँक देतीं जान देकर जान भी ये बेटियाँ
*
मत कहो घर में महज मेहमान हैं ये बेटियाँ
यह न सोचो सत्य से अनजान हैं ये बेटियाँ
लेते हक लड़ के हैं लड़के, फूँक भी देते 'सलिल'-
नर्मदा जल सी, गुणों की खान हैं ये बेटियाँ
*
ज़िन्दगी की बन्दगी, पहचान हैं ये बेटियाँ
लाज की चादर, हया का थान हैं ये बेटियाँ
चाहते तुमको मिले वरदान तो वर-दान दो
अब न कहना 'सलिल कन्या-दान हैं ये बेटियाँ
*
सभ्यता की फसल उर्वर, धान हैं ये बेटियाँ
महत्ता का, श्रेष्ठता का भान हैं ये बेटियाँ
धरा हैं पगतल की बेटे, बेटियाँ छत शीश की-
भेद मत करना, नहीं असमान हैं ये बेटियाँ
२५.१.२०१७
===
नवगीत:
कागतन्त्र है
*
कागतन्त्र है
काँव-काँव
करना ही होगा
नहीं किया तो मरना होगा
.
गिद्ध दिखाते आँख
छीछड़े खा फ़ैलाते हैं.
गर्दभ पंचम सुर में,
राग भैरवी गाते हैं.
जय क्षत्रिय की कह-कह,
दंगा आप कराते हैं.
हुए नहीं सहमत जो
उनको व्यर्थ डराते हैं
नाग तंत्र के
दाँव-पेंच,
बचना ही होगा,
नहीं बचे तो मरना होगा.
.
इस सीमा से आतंकी
जब मन घुस आते हैं.
उस सरहद पर डटे
पड़ोसी सड़क बनाते हैं.
ब्रम्ह्पुत्र के निर्मल जल में
गंद मिलाते हैं.
ये हारें तो भी अपनी
सरकार बनाते हैं.
स्वार्थ तंत्र है
जन-गण को
जगना ही होगा
नहीं जगे तो मरना होगा.
.
नए साल में नए तरीके
हम अपनाएँगे.
बाँटें-तोड़ें, बेच-खरीदें
सत्ता पाएँगे.
हुआ असहमत जो उसका
जीना मुश्किल कर दें
सौ बंदर मिल, घेर शेर को,
हम घुड़काएँगे.
फ़ूट मंत्र है
एक साथ
मिलना ही होगा
नहीं मिले तो मरना होगा.
.
३१.१२. २०१७
***
पुस्तक सलिला-
नवगीतों के घाट पर कागज़ की नाव
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: कागज़ की नाव, नवगीत संग्रह, राजेंद्र वर्मा, वर्ष २०१५, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द, जैकेट सहित, बहुरंगी, पृष्ठ ८०, मूल्य १५० रु., उत्तरायण प्रकाशन, के ३९७ आशियाना कॉलोनी, लखनऊ २२६०१२, दूरभाष ९८३९८२५०६२, नवगीतकार संपर्क ३/१९ विकास नगर लखनऊ २२६०२२, चलभाष ८००९६६००९६।]
*
'साम्प्रतिक मानव समाज से सम्बद्ध संवेदना के वे सारे आयाम, विसंगतियाँ और विद्रूपताएँ तथा संबंधों का वह खुरदुरापन जिन्हें भोगने-जीने को हम-आप अभिशप्त हैं, इन सारी परिस्थितियों को नवगीतकार राजेंद्र वर्मा ने अपने कविता के कैनवास पर बड़ी विश्वसनीयता के साथ उकेरा है। सामाजिक यथार्थ को आस्वाद्य बना देना उनकी कला है। अनुभूति की गहनता और अभिव्यक्ति की सहजता के दो पाटों के बीच खड़ा आम पाठक अपने को संवेदनात्मक स्तर पर समृद्ध समझने लगता है, यह समीकरण राजेंद्र वर्मा के नवगीतों से होकर गुजरने का एक आत्मीय अनुभव है।' वरिष्ठ नवगीतकार श्री निर्मल शुक्ल ने 'कागज़ की नाव' में अंतर्निहित नवगीतों का सटीक आकलन किया है।
राजेंद्र वर्मा बहुमुखी प्रतिभा के धनी रचनाकार हैं. दोहे, गीत, व्यंग्य लेख, लघुकथा, ग़ज़ल, हाइकु, आलोचना, कविता, कहानी आदि विधाओं में उनकी १५ पुस्तकें प्रकाशित हैं। वे सिर्फ लिखने के लिये नहीं लिखते। राजेंद्र जी के लिये लेखन केवल शौक नहीं अपितु आत्माभिव्यक्ति और समाज सुधार का माध्यम है। वे किसी भी विधा में लिखें उनकी दृष्टि चतुर्दिक हो रही गड़बड़ियों को सुधारकर सत-शिव-सुन्दर की स्थापना हेतु सक्रिय रही है। नवगीत विधा को आत्मसात करते हुए राजेंद्र जी लकीर के फ़कीर नहीं बनते। वे अपने चिंतन, अवलोकन, और आकलन के आधार पर वैषम्य को इन्गित कर उसके उन्मूलन की दिशा दिखाते हैं। उनके नवगीत उपदेश या समाधान को नहीं संकेत को लक्ष्य बनाते हैं क्योंकि उन्हें अपने पाठकों के विवेक और सामर्थ्य पर भरोसा है।
आम आदमी की आवाज़ न सुनी जाए तो विषमता समाप्त नहीं हो सकती। राजेंद्र जी सर्वोच्च व्यवस्थापक और प्रशासक को सुनने की प्रेरणा देते हैं -
तेरी कथा हमेशा से सुनते आये हैं,
सत्य नरायन! तू भी तो सुन
कथा हमारी।
समय कुभाग लिये
आगे-आगे चलता है
सपनों में भी अब तो
केवल डर पलता है
घायल पंखों से
उड़ने की है लाचारी।
यह लाचारी व्यक्ति की हो या समष्टि की, समाज की राजेंद्र जी को प्रतिकार की प्रेरणा देती है और वे कलम को हथियार की तरह उपयोग करते हैं।
सच की अवहेलना उन्हें सहन नहीं होती। न्याय व्यवस्था की विकलांगता उनकी चिंता का विषय है-
कौआरोर मची पंचों में
सच की कौन सुने?
बेटे को खतरा था
किन्तु सुरक्षा नहीं मिली
अम्मा दौड़ीं बहुत
व्यवस्था लेकिन नहीं हिली
कुलदीपक बुझ गया
न्याय की देवी शीश धुनें।
'पुरस्कार दिलवाओ' शीर्षक नवगीत में राजेन्द्र जी पुरस्कारों के क्रय-विक्रय की अपसंस्कृति के प्रसार पर वार करते हैं-
कब तक माला पहनाओगे?
पुरस्कार दिलवाओ।
पद्म पुरस्कारों का देखो / लगा हुआ है मेला
कुछ तो करो / घटित हो मुझ पर
शुभ मुहूर्त की बेला
पैसे ले लो, पर मोमेंटो / सर्टिफिकेट दिलाओ।
आलोचकों द्वारा गुटबंदी और चीन्ह-चीन्ह कर प्रशंसा की मनोवृत्ति उनसे अदेखी नहीं है-
बीती जाती एक ज़िंदगी / सर्जन करते-करते
आलोचकगण आपस में बस / आँख मार कर हँसते।
मेरिट से क्या काम बनेगा सिफारिशें भिजवाओ।
मौलिक प्रतीक, अप्रचलित बिम्ब, सटीक उपमाएँ राजेंद्र जी के नवगीतों का वैशिष्ट्य है। वे अपने कथन से पाठक को चमत्कृत नहीं करते अपितु नैकट्य स्थापित कर अपनी बात को पाठक के मन में स्थापित कर देते हैं। परिवारों के विघटन पर 'विलग साये' नवगीत देखें-
बँट गयी दुनिया मगर / हम कुछ न कर पाये।
घाट बँटा दीवार खिंचकर/ बँट गये खपरैल-छप्पर
मेड़ छाती ठोंक निकली / बाग़ में खेतों के भीतर
हम किसी भी एक के / हिस्से नहीं आये
कुछ इधर हैं, कुछ उधर हैं / आत्म से भी बेखबर हैं
बात कैसी भी कहें हम / छिड़ रहा जैसे समर है
बह गयी कैसी हवा / खुद से विलग साये
आत्म से बेखबर होना और खुद से साये का भी अलग होना समाज के विघटन के प्रति कवि की पीड़ा और चिंता को अभिव्यक्त करता है।
राजेंद्र जी राजनैतिक अराजकता, प्रशासनिक जड़ता और अखबारी निस्सारता के चक्रव्यूह को तोड़ने के लिये कलम न उठायें, यह कैसे संभव है-
राजा बहरा, मंत्री बहरा / बहरा थानेदार
कलियुग ने भी मानी जैसे / वर्तमान से हार
चार दिनों से राम दीन की बिटिया गायब है
थानेदार जनता, लेकिन सिले हुए लब हैं
उड़ती हुई खबर है, लेकिन फैलाना मत यार!
घटना में शामिल है खुद ही / मंत्री जी की कार
कॉलेज के चरसी को भी कुछ-कुछ मालुम है
लेकिन घटना-वाले दिन से गुमसुम-गुमसुम है
टी. व्ही. वालों ने भी अब तक शुरू न की तकरार
सोमवार से आज हो गया / है देखो इतवार
प्रथम सूचना दर्ज़ कराने में छक्के छूटे
किन्तु नामजद रपट कराने में हिम्मत टूटे
थाने का थाना बैठा है जैसे खाये खार
बेटी के चरित्र पर उँगली / रक्खे बारम्बार
यह नवगीत घटना का उल्लेख मात्र नहीं करता अपितु पूरे परिवेश को शब्द चित्र की तरह साकार कर पाता है।
राजेंद्र जी का भाषिक संस्कार और शब्द वैभव असाधारण है। वे हिंदी, उर्दू, अवधी, अंग्रेजी के साथ अवधी के देशज शब्दों का पूरी सहजता से उपयोग कर पाते हैं। कागज़, मस्तूल, दुश्मन, पाबंदी, रिश्ते, तासीर, इज्जत, गुलदस्ता, हालत, हसरत, फ़क़त, रौशनी, बयान, लब, तकरार, खर, फनकार, बेखबर, वक़्त, असलहे, बेरहम, जाम, हाकिम, खातिर, मुनादी, सकून, तारी, क़र्ज़, बागी, सवाल, मुसाफिर, शातिर, जागीर, गर्क, सिफारिश जैसे उर्दू लफ्ज़ पूरे अपनेपन सहित इंगिति, अभिजन, समीरण, मृदुल, संप्रेषण, प्रक्षेपण, आत्मरूप, स्मृति, परिवाद, सात्विक, जलद, निस्पृह, निराश्रित, रूपंकर, हृदवर, आत्म, एकांत, शीर्षासन, निर्मिति, क्षिप्र, परिवर्तित, अभिशापित, विस्मरण, विकल्प, निर्वासित जैसे संस्कृतनिष्ठ शब्दों से गलबहियाँ डाले हैं तो करमजली, कौआरोर, नथुने, जिनगी, माड़ा, टटके, ललछौंह, हमीं, बँसवट, लरिकौरी, नेवारी, मेड़, छप्पर, हुद्दा, कनफ़ोड़ू, ठाड़े, गमका, डांडा, काठ, पुरवा जैसे देशज शब्द उनके कंधे पर झूल रहे हैं। इनके साथ ही शब्द दरबार में शब्द युग्मों की अच्छी-खासी उपस्थिति दर्ज़ हुई है- मान-सम्मान, धूल-धूसरित, आकुल-व्याकुल, वाद-विवाद, दान-दक्षिणा, धरा-गगन, साथ-संग, रात-दिवस, राहु-केतु, आनन-फानन, छप्पर-छानी, धन-बल, ठीकै-ठाक, झुग्गी-झोपड़िया, मौज-मस्ती, टोने-टुटके, रास-रंग आदि दृष्टव्य हैं।
मन-पाखी, मत्स्य-न्याय, सत्यनरायन, गोडसे, घीसू-माधो, मन-विहंग आदि शब्दों का प्रयोग स्थूल अर्थ में नहीं हुआ है। वे प्रतीक के रूप में प्रयुक्त होकर अर्थ के साथ-साथ भाव विशेष की भी अभिव्यंजना करते हैं। राजेंद्र जी मुहावरेदार भाषा के धनी हैं। छोटे-बड़े सभी ने मिल छाती पर मूँग दली, रिश्ते हुए परास्त, स्वार्थ ने बाजी मारी, शीश उठाया तो माली ने की हालत पतली, किन्तु गरीबी ने घर भर का / फ़क़त एक सपना भी छीना, समय पड़े तो / प्राण निछावर / करने का आश्वासन है, मुँह फेरे हैं देखो / कब से हवा और ये बादल, ठण्ड खा गया दिन, खेत हुआ गेहूँ, गन्ने का मन भर आया, किन्तु वे सिर पर खड़े / साधे हुए हम, प्रथम सूचना दर्ज करने में छक्के छूटे, भादों में ही जैसे / फूल उठा कांस, मेंड़ छाती ठोंक निकली, बात का बनता बतंगड़ जैसी भाषा पाठक-मन को बाँधती है।
राजेंद्र जी नवगीत को कथ्य के नयेपन, भाषा शैली में नवीनता, बिम्ब-प्रतीकों के नयेपन के निकष पर रचते हैं। क्षिप्र मानचित्र शीर्षक नवगीत ग़ज़ल या मुक्तिका के शिल्प पर रचित होने के साथ-साथ अभिनव कथ्य को प्रस्तुत करता है-
क्या से क्या चरित्र हो गया / आदमी विचित्र हो गया
पुण्यता अधर में रह रही / नित नवीन चोट सह रही
स्नान कर प्रभुत्व-गंग में / पातकी पवित्र हो गया
मित्रता में विष मिला दिया / शत्रुता को मधु पिला दिया
स्वार्थ-पूर्ति का हुआ चलन / शत्रु ही सुमित्र हो गया
द्रव्य के समीकरण बने / न्य झुका अनय के सामने
वीरता के सूर्य को ग्रहण / क्षिप्र मानचित्र हो गया
राजेन्द्र जी की छंदों पर पकड़ है। निर्विकार बैठे शीर्षक नवगीत का मुखड़ा महाभागवत जातीय विष्णुपद छंद में तथा अन्तरा लाक्षणिक जातीय पद्मावती छंद में है। दोनों छंदों को उन्होंने भली-भाँति साधा है-
नये- नये महराजे / घूम रहे ऐंठे।
लोकतंत्र के अभिजन हैं ये / देवों से भी पावन हैं ये
सेवक कहलाते-कहलाते / स्वामी बन ऐंठे
लाज-शरम पी गये घोलकर / आत्मा बेची तोल-तोलकर
लाख-करोड़ नहीं कुछ इनको / अरबों में पैठे
नयी सदी के नायक हैं ये / छद्मराग के गायक हैं ये
लोक जले तो जले, किन्तु ये / निर्विकार बैठे
मुखड़े और अँतरे में एक ही छंद का प्रयोग करने में भी उन्हें महारत हासिल है। देखिये महाभागवत जातीय विष्णुपद में रचित कागज़ की नाव शीर्षक नवगीत की पंक्तियाँ -
बारह अभावों की / आयी है / डूबी गली-गली
डीएम साढ़े / हम देख रहे / काग़ज़ की नाव चली
माँझी के हाथों में है / पतवार / आँकड़ों की
है मस्तूल उधर ही / इंगिति / जिधर धाकड़ों की
लंगर जैसे / जमे हुए हैं / नामी बाहुबली
ऊपर उद्धृत 'सत्यनरायन' शीर्षक नवगीत अवतारी तथा दिगपाल छंदों में है। राजेन्द्र जी का वैशिष्ट्य छंदों के विधान को पूरी तरह अपनाना है। वे प्रयोग के नाम पर छंदों को तोड़ते-मरोड़ते नहीं। भाषा तथा भाव को कथ्य का सहचर बना पाने में वे दक्ष हैं। 'जाने कितने / सूर्य निकल आये' में तथ्य दोष है। कहीं-कहीं मुद्रण त्रुटियाँ हैं। जैसे ग्रहन, सन्यासिनि, उर्जा आदि।
अव्यवस्था और कुव्यवस्था पर तीक्ष्ण प्रहार कर राजेंद्र जी ने नवगीत को शास्त्र की तरह प्रयोग किया है- राज अभृ, मंत्री बहरा / बहरा थानेदार, अच्छे दिन आनेवाले थे / किन्तु नहीं आये, नए-नए राजे-महराज / घूम रहे ऐंठे, कौआरोर मची पँचों में / सच की कौन सुने?, ऐसा मायाजाल बिछा है / कोई निकले भी तो कैसे?, जन-जन का है / जन के हेतु / जनों द्वारा / पर, निरुपाय हुआ जाता / जनतंत्र हमारा आदि अभिव्यक्तियाँ आम आदमी की बात सामने लाती हैं। राजेन्द्र जी आम आदमी को अभषा में उसकी बात कहते हैं। कागज़ की नाव का पाठक इसे पूरी तरह पढ़े बिना छोड़ नहीं पाता यह नवगीतकार के नाते राजेंद्र जी की सफलता है।
२५.१.२०१६
***
लघु कथा:
शब्द और अर्थ
*
शब्द कोशकार ने अपना कार्य समाप्त किया...कमर सीधी कर लूँ , सोचते हुए लेटा कि काम की मेज पर कुछ खटपट सुनायी दी... मन मसोसते हुए उठा और देखा कि यथास्थान रखे शब्दों के समूह में से निकल कर कुछ शब्द बाहर आ गये थे। चश्मा लगाकर पढ़ा 'लोकतंत्र', प्रजातंत्र', 'गणतंत्र' और 'जनतंत्र'
शब्द कोशकार चौका - ' अरे! अभी कुछ देर पहले ही तो मैंने इन्हें यथास्थान रखा रखा था, फ़िर ये बाहर कैसे...?'
'चौंको मत...तुमने हमारे जो अर्थ लिखे हैं वे अब हमें अनर्थ लगते हैं। दुनिया का सबसे बड़ा लोक तंत्र लोभ तंत्र में बदल गया है। प्रजा तंत्र में तंत्र के लिये प्रजा की कोई अहमियत ही नहीं है। गण विहीन गण तंत्र का अस्तित्व ही सम्भव नहीं है। जन गण मन गाकर जनतंत्र की दुहाई देने वाला देश सारे संसाधनों को तंत्र के सुख के लिये जुटा और जनगन के मन को दुखा रहा है। -शब्दों ने एक के बाद एक मुखर होते हुए कहा।
***
नवगीत:
भारत आ रै
.
भारत आ रै ओबामा प्यारे,
माथे तिलक लगा रे!
संग मिशेल साँवरी आ रईं,
उन खों हार पिन्हा रे!!
.
अपने मोदी जी नर इन्दर
बाँकी झलक दिखा रए
नाम देस को ऊँचो करने
कैसे हमें सिखा रए
'झंडा ऊँचा रहे हमारा'
संगे गान सुना रे!
.
देश साफ़ हो, हरा-भरा हो
पनपे भाई-चारा
'वन्दे मातरम' बोलो सब मिल
लिये तिरंगा प्यारा
प्रगति करी जो मूंड उठा खें
दुनिया को दिखला रए
.
२५-१-२०१५
***
मुक्तिका:
रात
संजीव
( तैथिक जातीय पुनीत छंद ४-४-४-३, चरणान्त sssl)
.
चुपके-चुपके आयी रात
सुबह-शाम को भायी रात
झरना नदिया लहरें धार
घाट किनारे काई रात
शरतचंद्र की पूनो है
'मावस की परछाईं रात
आसमान की कंठ लंगोट
चाहे कह लो टाई रात
पर्वत जंगल धरती तंग
कोहरा-पाला लाई रात
वर चंदा तारे बारात
हँस करती कुडमाई रात
दिन है हल्ला-गुल्ला-शोर
गुमसुम चुप तनहाई रात
गीत
ध्वजा तिरंगी...
*
ध्वजा तिरंगी मात्र न झंडा
जन गण का अभिमान है.
कभी न किंचित झुकने देंगे,
बस इतना अरमान है...
*
वीर शहीदों के वारिस हम,
जान हथेली पर लेकर
बलिदानों का पन्थ गहेंगे,
राष्ट्र-शत्रु की बलि देकर.
सारे जग को दिखला देंगे
भारत देश महान है...
*
रिश्वत-दुराचार दानव को,
अनुशासन से मारेंगे.
पौधारोपण, जल-संरक्षण,
जीवन नया निखारेंगे.
श्रम-कौशल को मिले प्रतिष्ठा,
कण-कण में भगवान है...
*
हिंदी ही होगी जग-वाणी,
यह अपना संकल्प है.
'सलिल' योग्यता अवसर पाए,
दूजा नहीं विकल्प है.
सारी दुनिया कहे हर्ष से,
भारत स्वर्ग समान है...
***
दोहा
लोभ तंत्र का नट हो, कोक तंत्र का नाश।
लोकतंत्र तब आएगा, हों मत तनिक हताश।।
२५.१.२०१४
***
सामयिक गीत:
पंच फैसला...
*
पंच फैसला सर-आँखों,
पर यहीं गड़ेगा लट्ठा...
*
नाना-नानी, पिता और माँ सबकी थी ठकुराई.
मिली बपौती में कुर्सी, क्यों तुम्हें जलन है भाई?
रोजगार है पुश्तों का, नेता बन भाषण देना-
फर्ज़ तुम्हारा हाथ जोड़, सर झुका करो पहुनाई.
सबको अवसर? सब समान??
सुन-कह लो, करो न ठट्ठा...
*
लोकतंत्र है लोभतन्त्र, दल दाम लगाना जाने,
लोभ तंत्र रु ठोंकतंत्र ने काम किए मनमाने.
भोंक पीठ में छुरा, भाइयों! शोक तंत्र मुस्काए-
मृतकों के घर जा पैसे दे, शासन लगा लुभाने..
संसद गर्दभ ढोएगी
सारे पापों का गट्ठा...
*
उठा पनौती करी मौज, हो गए कहीं जो बच्चे.
हम देते नकार रिश्तों को, हैं निर्मोही सच्चे.
देश खेत है राम लला का, चिड़ियाँ राम लला की-
पंडा झंडा कोई हो, हम खेल न खेले कच्चे..
कहीं नहीं चाणक्य जड़ों में
डाल सके जो मट्ठा...
*
नेता जी-शास्त्री जी कैसे मरे? न पता लगाया..
अन्ना हों या बाबा, दिन में तारे दिखा भगाया.
घपले-घोटालों से फुर्सत, कभी तनिक पाई तो-
बंदर घुड़की दे-सुन कर फ़ौजी का सर कटवाया.
नैतिक जिम्मेदारी ले वह
जो उल्लू का पट्ठा...
*
नागनाथ गर हटा, बनेगा साँपनाथ ही नेता.
फैलाया दूजा तब हमने, पहला जाल समेटा.
केर-बेर का संग बना मोर्चा झपटेंगे सत्ता-
मौनी बाबा कोई न कोई मिल जाएगा बेटा.
जोकर लिए हाथ में हम
जन को दे सत्ता-अट्ठा...
२५-१-२०१३
***


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