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बुधवार, 24 जनवरी 2024

राम लला


राम नाम जीवन के अंधकार को दूर कर देने के समान है। जीवन कितनी ही कठिनाइयों के दौर से गुजर रहा हो, राम नाम मात्र से ही विकट से विकट परिस्थितियों का सामना करने का साहस हमें मिल जाता है। भारत! हमेशा से अवतारों और महानायकों की जन्मस्थलि के रूप में पूज्यनीय रहा है। यही वो धरा है, जहां आदर्श और चमत्कारों की अनेका-नेक प्रतिभूतियों ने जन्म लिया और उसे पल्लवित किया। इनका चरित्र और जीवनशैली ऐसी रही, जिसे लाखों बरसों की संभ्यता में मनुष्य ने मूल्यों की तरह स्वीकार किया है। ऐसी ही शाश्वत चरित्र गाथा है, प्रभु श्री राम की। सूर्यवंशी श्रीराम की चरित गाथा भी भारतीय जनमानस में ऐसी ही स्थाई भाव की तरह रच- बस गयी है। श्री राम की देवता छवि से हटकर उनके मानवीय जीवन के उन सरोकारों से प्रेरणा का सन्दर्भ जुड़ता है, जहाँ वे अपने हिस्से में आयी हर भूमिका और चुनौती का पूरी आतंरिक शक्ति से सामना करते हैं और समाधान की राहें खोजते हैं।
राम लला
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रामलला की प्रतिमा को गहन गहराई से निहारेंगे, तो अनुभव होगा कि बाल्यरूप श्री राम के नेत्र सजल और अधरों पर मृदुल मुस्कान है। मन में अतिशय हर्ष हो तो नेत्र सजल हो जाते हैं। मूर्ति बनाते समय मूर्तिकार भाव मग्न होकर प्रतिमा में ही समहित हो जाता है। छैनी हथोड़े कहाँ-कैसे  चलने-चलाने हैं आदि आगे का कार्य ईश्वर अनुरूप स्वत: होता जाता है। श्रीराम मंदिर अयोध्या में स्थापित श्रीरामलला की मूर्ति तिरुपति बाला जी की तरह आकर्षक, नयनाभिराम और मनोहर है। देव मूर्तियों के आकार-प्रकार आदि संबंधी विधान पुराणों में वर्णित हैं।  

क्यों हैं मर्यादा पुरुषोत्तम? 

विपत्ती हो, उत्पत्ति हो, साहस हो या संयम हो, राम नाम ही है जो दुख-दारुण दूर करने वाला और सुख-सतयुग, त्रेता और द्वापर में समान रूप से उल्लेखित आदिकवि वाल्मीकि द्वारा रचित महाकाव्य रामायण के जाने कितने ही अध्यायों और प्रसंगों ने राम के माध्यम से आने वाली अनगिनत पीढ़ियों के लिए जीवन, कर्म और चिंतन को नया आधार दिया। उनके इन्हीं मूल्यों को आगे बढ़ाया गोस्वामी तुलसीदास ने। उन्होंने लिखा है

जेहि यह कथा सुनी नहिं होई। जनि आचरजु करै सुनि सोई॥
कथा अलौकिक सुनहिं जे ग्यानी। नहिं आचरजु करहिं अस जानी॥

रामकथा कै मिति जग नाहीं। असि प्रतीति तिन्ह के मन माहीं॥
नाना भाँति राम अवतारा। रामायनं सत कोटि अपारा॥

अर्थात, जिसने यह कथा पहले न सुनी हो, वह सुनकर आश्चर्य न करे। जो ज्ञानी इस विचित्र कथा को सुनते हैं, वे यह जानकर आश्चर्य नहीं रते कि संसार में रामकथा की कोई सीमा नहीं है। उनके मन में ऐसा विश्वास रहता है। नाना प्रकार राम के अवतार हुए हैं और सौ करोड़ तथा अपार रामायणें हैं।

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने भी अपनी रचना 'साकेत' में लिखा है-

 'राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है, कोई कवि बन जाए सहज सम्भाव्य है'।

सूर्यकांत त्रिपाठी, निराला जैसा हिंदी का अप्रतिम कवि 'राम की शक्ति पूजा' के चरम पर राम के मुख से कहता है - 
'आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर'।

लोकनायक- आदिपुरुष - श्रीरामराम सांसारिक जीवन के हर मोर्चे पर उन्हें अनुकरणीय हैं। राम को समझकर व्यक्ति यह निर्णय ले सकता है कि आज के दौर में हमारी नैतिक शक्ति और मर्यादाओं का वजन कितना शेष रह गया है?

न सिर्फ भारतीय, अपितु वैश्विक साहित्य में भी राम का उल्लेख न सिर्फ एक ऐसे चरित्र के रूप में किया जाता है जो मर्यादा पुरुषोत्तम हैं, बल्कि विपरीत परिस्थितियों में भय को दूर कर आशा के दीपक जलाकर समस्त समस्याओं के समाधान की राह भी दिखाता है।

भारतीय परिवेश के रोम-रोम में रामराम लोक नायक हैं। लोक उनकी गाथा को याद कर मुश्किल समय में प्रेरणा लेता है। राम त्याग की प्रतिमूर्ति हैं, राजवंश के होने के बावजूद अपने पिता के आदेश पर सब कुछ त्याग कर साधु जीवन जीने को निकल पड़े थे।
हर परिस्थिति का सामना, बिना डरे, डटकर किया, हार नहीं मानी। हमेशा सत्य, साहस, त्याग, न्याय और पराक्रम के परचम लहराए, लेकिन उसके साथ ही अपने व्यक्तित्व से लगातार प्रेम, दया, करुणा को कभी अलग नहीं होने दिया।
राम वह नायक , जिनका शत्रु भी उनके हाथों संहार के बाद उनका नाम लेता हुआ अपने प्राणों को त्याग गया। राम अलग-अलग वर्ग के लिए अलगअलग रूप में मान्य हैं।
एक वर्ग के लिए राम जहां आस्था और आराधना की मूरत हैं, तो वहीं दूसरे वर्ग के लिए वह मर्यादा पुरुषोत्तम व नीति विद पराक्रम के रूप में मान्य हैं।
राम हमारी रक्षा के प्रतीक हैं, बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रमाण हैं। एक उम्मीद हैं, कि असत्य पर सत्य की जीत निश्चित है। इससे यह प्रमाणित होता है कि राम न सिर्फ हर दौर में प्रासंगिक हैं, बल्कि हर वर्ग के लिए भी किसी न किसी तरह आदर्श का प्रतीक है।
राम एक ऐसा चरित्र है, जो सत्यं - शिवम सुंदरम है। किसी भी दौर में राम परिस्थितियों पर विजय पाने वाले महानायक हैं।
भारत अखंड है- राम सर्वव्यापी हैं। भारत और राम अपने आचारविचार और प्रकार से एक दूसरे के पर्याय हैं।
भारतीय परिवेश में न सिर्फ दैवीय राम की बल्कि मानवीय राम का चरित्र भी प्रमुख पहचान है।
विश्व में शायद ही कोई ऐसा लोकप्रिय, महान और प्रेरणा दायी चरित्र, शायद ही कोई ऐसा किवदंती-पुरुष होगा जिस पर एकाग्र कोई महाकाव्य, मात्र धार्मिक रूप से या ऐतिहासिक रूप से ही महत्वपूर्ण नहीं हो, बल्कि जीवन में आने वाली छोटी-बड़ी समस्याओं से लड़ने की प्रेरणा भी देता हो।

घर पधारेंगे श्री राम

भारत की अगली पीढ़ी में, आज्ञापालन और त्याग रहे।

संघर्षों में भी रहे धीर, मर्यादा का अनुराग रहे।

माता पिता शिक्षकों में यदि, विश्वामित्र सी निष्ठा हो।

अयोध्या संग पुरुषोत्तम की घर घर में प्राण प्रतिष्ठा हो।II रमन्ते योगिनः अस्मिन सा रामं उच्यते।। अर्थात योगी ध्यान में जिस शून्य में रमते हैं उसे राम कहते हैं।

कोशलो नाम मुदिताः स्फीतो जनपदो महान।

निविष्ट: सरयूतीरे प्रभूत धनधान्यवान्

अयोध्या नाम नगरी तत्रऽऽसीत् लोकविश्रुता।

मनुना मानवेन्द्रेण या पुरी निर्मिता स्वयम्।अर्थात सरयू नदी के तट पर संतुष्ट जनों से पूर्ण धनधान्य से भरा-पूरा कोसल नामक एक बड़ा देश है। इसी देश में मनुष्यों के आदिराजा प्रसिद्ध महाराज मनु की बसाई हुई तथा तीनों लोकों में विख्यात अयोध्या नामक नगरी है।

सप्तपुरियों में सर्वप्रथम रामजन्म भूमि अयोध्यापुराणों में सात पवित्र नगरों या तीर्थों की बात कही गई है। कहा गया है कि ये सात तीर्थ मोक्षदायक अर्थात् इन तीर्थों की यात्रा करने वाला व्यक्ति अंत में जीवन-मरण के बंधन से मुक्त होकर भगवान की शरण में पहुंच जाता है। और उसका कल्याण होता है। अयोध्या इन सात नगरों में प्रथम स्थान पर है।

अयोध्या मथुरा माया काशी काञ्ची अवन्तिका।

पुरी द्वारावती चैव सप्तैता मोक्षदांयिकाः॥हिंदू मान्यताओं के अनुसार सात पवित्र नगरों में क्रमशः मथुरा, (हार), शी, हिंदु मान्यताओं अयोध्या, (कांचीपुरम), अवंतिका, उज्जैन और द्वारिका शामिल हैं। इन सात नगरों को सप्तपुरी भी कहा जाता है।
अयोध्या के धार्मिक महत्व का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इन प्राचीन सप्तपुरियों में पहला स्थान अयोध्या को दिया गया है।

अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या।

तस्यां हिरण्ययः कोशः स्वर्गो ज्योतिषावृतः।।अर्थात आठ चक्र और नौ द्वारों वाली अयोध्या देवों की पुरी है, उसमें प्रकाश वाला कोष है, जो आनन्द और प्रकाश से युक्त है।

अयोध्या स्वर्ग के समान है : अथर्ववेदअयोध्या का वर्णन पुराणों और वेदों में भी समान रूप से किया गया है। चार वेदों में से एक अथर्ववेद में अयोध्या को स्वर्ग के बराबर बताया गया है। अथर्ववेद में कहा गया है
आठ चक्र और नौ द्वारों वाली अयोध्या देवताओं की नगरी है। ये अथर्ववेद के 10वें मंडल के दूसरे सूक्त में मंत्र है।
इस वैदिक ऋचा से ज्ञात होता है कि अपने काल में भी अयोध्या न सिर्फ मौजूद थी, बल्कि काफी संपन्न थी। सरयू नदी के तट पर संतुष्ट जनों से पूर्ण धन-धान्य से भरा-पूरा, उत्तरोत्तर उन्नति को प्राप्त कोसल नामक एक बड़ा देश था।
वाल्मीकि रामायण के बालकांड के पंचम सर्ग में 23 श्लोकों में अयोध्या का भूगोल समझाया गया है। इसके मुताबिक अयोध्या 12 योजन लंबी और 3 योजन चौड़ी थी।' इस हिसाब से देखें तो अयोध्या करीब 5200 किमी. में फैली हुई थी।
आज का अयोध्या शहर 120.8 किमी. में ही बसा है। यानी उस काल में अयोध्या आज की अयोध्या से करीब 44 गुना बड़ी थी।

जैन धर्म के पांच तीर्थंकरों की जन्मस्थली है अयोध्याजैन धर्म के अनुसार 24 जैन तीर्थंकरों में से पांच का जन्म अयोध्या में हुआ था। इनमें जैन धर्म के पहले तीर्थंकर ऋषभनाथ दूसरे अजितनाथ, चौथे अभिनंदननाथ, पांचवें सुमितनाथ और 14वें तीर्थंकर अनंतनाथ का जन्म अयोध्या में हुआ के सभी तीर्थकरों को भगवान राम के इक्ष्वाकु वंश का ही माना जाता है।

वैवस्वत मनु महाराज ने की थी अयोध्या की स्थापनारामायण में सरयू नगर के तट पर बसी अयोध्या की स्थापना बारे में कहा गया है कि विवस्वान (सूर्य) के पुत्र वैवस्वत मनु महाराज ने यह नगरी बसाई थी। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार ब्रह्मा की संतान मरीचि थे, मरीचि की संतान कश्यप, कश्यप की संतान विवस्वान और उनके पुत्र वैवस्वत थे।
अयोध्यापति मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम की लीला के अतिरिक्त अयोध्या में श्रीहरि के अन्य सात प्राकट्य हुए हैं, जिन्हें सप्तहरि के नाम से जाना जाता है।
अलग-अलग समय देवताओं और मुनियों की तपस्या से प्रकट हुए भगवान विष्णु के सात स्वरूपों को ही सप्तहरि के नाम से जाना जाता है। इनके नाम भगवान गुप्तहरि, विष्णुहरि, चक्रहरि, पुण्यहरि, चन्द्रहरि, धर्महरि और बिल्वहरि हैं।

भगवान विष्णु के चक्र पर विराजमान है अयोध्यास्कंदपुराण में अयोध्या के बारे में एक रोचक बात कही गई है। इसके अनुसार अयोध्या भगवान विष्णु के चक्र पर विराजमान है। कहते हैं कि जब मनु ने ब्रह्मा से अपने लिए एक नगर बसाने की बात कही तो ब्रह्मा उन्हें भगवान विष्णु के पास ले गए। विष्णु ने साकेत धाम (अयोध्या) में स्थान बताया, जहां विश्वकर्मा ने नगर निर्माण किया।

अयोध्या का अर्थ है योध्या रहित भूमिवेदों के बाद अयोध्या शब्द का जिक्र सदा शुक शिव संहिता, वशिष्ठ संहिता और में भी है जहां इसे 'साकेत लोक' और 'राम लोक' भी कहा जा रहा है।
सारे वेदों, उपनिषद, उपनिषदों और संहिताओं को खंगालें तो अयोध्या के 12 नाम मिलते हैं। ये 12 नाम हैं- अयोध्या, आनंदिनी, सत्या, सत, साकेत, कोशला, विमला, अपराजिता, ब्रह्मपुरी, प्रमोदवन, सांतानिकलोका और दिव्यलोका।

क्या होता है तीर्थ जल और स्नान?मान्यता है कि पवित्र नदी, कुओं, बंदियों का जल अत्यंत ऊर्जादायक और शुद्ध होता है। इसी कारण मूर्ति प्राण प्रतिष्ठा के समय इन्हीं जल से समान कराया जाता है।
स्कन्दपुराण के अनुशीलन से ज्ञात होता है कि तीर्थ तथा प्रकृति का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। तीर्थों के प्रति उस समय जो श्रद्धापूर्ण भावना का आधार मानव के अन्तर्मन में दृढ़ था, वह भावना तीर्थ का सर्वतोभावेन संरक्षण कर रही थी।
तीर्थ जल प्रधान होते हैं। जल ही रस है । रस ही प्रेम है। तीर्थस्नान अर्थात् भगवद् प्रेम रस से सराबोर हो जाना। यह जलमय प्रेमरस (जलहीनता) न होना ही विरह है। जिसके हृदय में भगवत् प्रेमरूपी रसधारा बह रही है, उसका हृदय भी तीर्थ है । जो परदुःख कातर है, उसका यह भाव भी तीर्थ है। जिसकी दृष्टि करुणार्द्र है, जो सबके अन्दर एक ही तत्व का दर्शन करते हैं, उनकी दृष्टि भी तीर्थ है । यह स्कन्दपुराण का उद्घोष है।
तीर्थों के प्रसंग में एक लोकोक्ति सुनी गई थी। हो सकता है, यह लोकोक्ति किसी पुराण अथवा प्राचीन ग्रंथों में वर्णित हो! भगवान् शंकर मातापार्वती के साथ बैल पर बैठे जा रहे थे।
हठात् वे वाहन से उतरे तथा एक वृक्ष के नीचे बने चबूतरे को प्रणाम किया। पार्वती ने इसका कारण जानना चाहा । भगवान् त्रिपुरारि ने कहा कि “यहां दो शताब्दी पहले एक महापुरुष ने तप किया था। अतः मैं इस पुण्यस्थल को प्रणाम कर रहा हूं।
तदनन्तर कुछ आगे बढ़ने पर शंकर ने बैल से उतर कर एक वृक्ष के नीचे की भूमि को प्रणाम किया। पार्वती द्वारा पूछे जाने पर भगवान् शंकर ने कहा "यहां आज से दो हजार वर्ष के पश्चात् एक महापुरुष आकर कुछ समय विश्राम करेंगे। तभी मैं इस पुण्यभूमि को प्रणाम कर रहा हूं।
इस कथा से यह स्पष्ट होता है कि कोई भी सामान्य स्थान किसी महान् आत्मा की सन्निधि के कारण तीर्थ हो जाता है। जो स्थान आज तीर्थ नहीं है, वह आसन्न भविष्य में तीर्थक्षेत्र बन सकता है। इसमें भूमि कारण नहीं है। महापुरुष ही तीर्थ बनाते हैं। उनकी सन्निधि के कारण सामान्य भूमि भी सदियों तक वन्दनीय बनी रहती है। वहां का शुभ स्पन्दन दीर्घकाल तक मनुष्य के लिये शान्तिप्रद हो जाता है।
तीर्थतत्व अगम-अपार है। यहां सब भावना का ही खेल है। उत्तम भावना का संचार होने में प्रभुकृपा ही कारण है। भाव की प्रेरणा से ही कर्म विकसित होता है। भाव का तो कणमात्र ही मानव अस्तित्व में व्यक्त हो पाता है।
बाकी भाव एक महासागर जैसा अन्तर्लीन ही रह जाता है। प्रभुकृपा से भावुकों में ही यह भाव विकसित तथा व्यक्त हो पाता है। भावमयता के अभाव के कारण सामान्य मनुष्य की बुद्धि में स्कन्दपुराण में वर्णित तीर्थरहस्य व्यक्त हो सकना दुष्कर है ।
प्रभु श्री राम की जन्म भूमि अयोध्या राम नाम से जगमगा रही है। सोमवार 22 जनवरी के दिन प्रभु की मूर्ति की प्राण पर प्रतिष्ठा होनी है। प्राण प्रतिष्ठा का अनुष्ठान 16 जनवरी से शुरू हो गया था।
श्रीराम के 5 वर्षीय बाल रूप स्वरूप में मूर्ति का निर्माण किया गया है, जो श्यामल रंग की है। ऐसे में कई लोगों में असमंजस की स्थिति बनी हुई है कि आखिर भगवान श्री राम की मूर्ति काले रंग की ही क्यों बनाई गयी है। इसलिए आइए जानते हैं क्या है भगवान राम की मूर्ति के रंग के पीछे का रहस्य

मूर्ति का रंग काला ही क्योंमहर्षि वाल्मीकि रामायण में भगवान श्री राम के श्यामल रूप का वर्णन किया गया है। इसलिए प्रभु को श्यामल रूप में पूजा जाता है। वहीं, श्री राम की मूर्ति का निर्माण श्याम शिला के पत्थर से किया गया है। यह पत्थर बेहद खास है।
श्याम शिला की आयु हजारों वर्ष मानी जाती है। यही वजह है की मूर्ति हजारों सालों तक अच्छी अवस्था में रहेगी और इसमें किसी तरह का बदलाव नहीं आएगा। वहीं, हिंदू धर्म में पूजा पाठ के दौरान अभिषेक किया जाता है।
ऐसे में मूर्ति को जल, चंदन, रोली या दूध जैसी चीजों से भी नुकसान नहीं पहुंचेगा।

बालस्वरूप में क्यों बनाई गई प्रतिमा?मान्यताओं के अनुसार, जन्म भूमि में बाल स्वरूप की उपासना की जाती है। इसीलिए भगवान श्री राम की मूर्ति बाल स्वरूप में बनाई गयी है।

आचार्य लक्ष्मीकांत दीक्षित कराएंगे रामलला की प्रतिष्ठाइनकी उम्र 85 साल है जो काशी के विद्वान पंडित हैं।, रामलला की प्राण प्रतिष्ठा के मुख्य पुजारी, उम्र 85 साल।- पट्टी खोलकर नेत्रोन्मिलन संपन्न; आज 84 सेकंड में प्राण स्थिरीकरण के बाद प्रभु दर्शन
प्राण-प्रतिष्ठा समारोह में 22 जनवरी सबसे अहम है। इसमें लग्नस्थ गुरु की दृष्टि पंचम, सप्तम एवं नवम पर होने से मुहूर्त उत्तम है। मकर का सूर्य हो जाने से पौषमास का दोष समाप्त हो जाता है।
भगवान की कृपा और गुरुजनों के आशीर्वाद से उपर्युक्त उत्तम मुहूर्त मिला है। 22 जनवरी को सबसे पहले दैनिक मंडप में उन देवताओं का पूजन होगा, जिनका आह्वान किया गया है।
फिर भगवान रामलला को जगाया जाएगा। इसके लिए विशेष मंत्र- 'उत्तिष्ठोत्तिष्ठ गोविंद उत्तिष्ठ गरुड़ध्वज।
उत्तिष्ठ कमलाकांत त्रैलोक्यं मंगलमं कुरु ।' (यानी प्रभु उठिए, हमारे त्रिलोक का मंगल कीजिए... 1 ) का उच्चारण होगा। तालियों और मंत्रोच्चार से रामलला जगाए जाएंगे। फिर स्नान कराया जाएगा। इसके बाद उनका विधिवत शृंगार होगा।
रामलला विराजमान अब तक अस्थाई मंदिर में थे। उन्हें रविवार रात नए मंदिर में लाकर विधि अनुसार सुला दिया गया।
सुबह 11-12 बजे के बीच चारों वेदों के मंत्रों द्वारा मंगलाचरण किया जाएगा। 84 सेकंड के मुख्य मुहूर्त में रामलला के प्राणों का स्थिरीकरण किया जाएगा।
इसी बीच, पीएम मोदी मां सरयू में स्नान करेंगे। वहां से मंदिर प्रांगण में पूर्व दिशा से प्रवेश करेंगे। उसके बाद आचार्यों के द्वारा दशविधि स्नान एवं प्रायश्चित दान संपादित कराने के बाद गर्भगृह में प्रवेश करेंगे।
जहां आचार्यों के द्वारा तिलक एवं स्वस्तिवाचन एवं पौराणिक मंगल मंत्रों का पाठ किया जाएगा।
पुनः संकल्प संपादित होगा और श्रीरामलला सरकार की षोडशोपचार पूजा होगी। इसमें कुल 16 तरह से पूजा की जाएगी। सबसे पहले विग्रह के पैर धोए जाएंगे, फिर हाथ। आचमन कराया जाएगा। फिर विविध स्नान ( घी, शहद, शर्करा आदि) कराएंगे।
इसके बाद शुद्ध जल से स्नान कराया जाएगा। फिर वस्त्र, उपवस्त्र और यज्ञोपवीत पहनाया जाएगा। चंदन, अक्षत, फूल, माला, तुलसी पत्र, नाना प्रकार के परिमल द्रव्य (अबीर-गुलाल, अभ्रक आदि) अर्पण किए जाएंगे। इसके उपरांत इत्र, धूपदीप देंगे। फिर भोग लगेगा। कपूर की आरती होगी। इसके बाद पुष्पांजलि और स्तुति होगी।
इससे पहले रविवार को गतिमान अनुष्ठान में कई महत्वपूर्ण विधियां संपादित की गई। इस मौके पर कांची कामकोटि पीठ के शंकराचार्य पूज्य श्री विजयेंद्र सरस्वती जी के द्वारा विशेष न्यास विधि एवं समर्चना की गई। इस पूजा में समस्त अंगों का आह्वान एवं पूजन होता है। इसके बाद भगवान का नेत्रोन्मिलन, दर्पण दर्शन और शय्याधिवास का विधिवत अनुष्ठान किया गया।
नेत्रोन्मिलन में मंत्रों के बीच रामलला के नेत्रों से पट्टी हटाई गई। फिर दर्पण दिखाया गया और आंखों में काजल लगाया गया। प्राणप्रतिष्ठा का मुख्य उद्देश्य यह होता है कि परमात्मा की सारी शक्तियां इस विग्रह में समाहित हो जाएं।

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