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शनिवार, 6 जनवरी 2024

सॉनेट, सलिल सृजन ६ जनवरी, लघुकथा, मुक्तक, नवगीत, दोधक छंद

सलिल सृजन ६ जनवरी
सॉनेट 
फ़साना 
*
नए सिरे से फ़साना कहा-सुना जाए,   
बदल न खुद को सके तो बदल लिए कपड़े,   
न कोई बात तो बेबात ही मिले-झगड़े,  
न हकीकत सहन तो ख्वाब ही बुना जाए ।
रुई नहीं तो चलो शीश ही धुना जाए,     
जो ढोल पीट रहे; वे नहीं रहे अगड़े,
लड़े तकदीर से जो बढ़ गए नहीं पिछड़े, 
कमी कहाँ है हमारी चलो गुना जाए। 
करें जो काम तो अकाम हो बिसार सकें, 
करें गलत न कभी; जो करें वही हो सही, 
मिलें खुद से जो कभी, गमगुसार हो जाए ।  
मिले जो नाम तो अनाम पे निसार सकें,   
कभी  गुमनाम न हो याद हसीं जो है तही, 
लिखे नगमे जो कभी जिसके लिए वो गाए । 
***
सोनेट
कोहरा
*
कोहरा छाया राजनीति में, नहीं सूझती राह,
राह न रुचती सद्भावों की, सत्ता-पद का मोह,
जनसेवा व्यवसाय बनाकर करें देश से द्रोह,
अपने दुश्मन आप हुए हम, लड़ा रही है डाह ।
कहे न कोई वाह, चोट दे-पा भरते हैं आह,
फूटी आँख न कोई किसी को तनिक रहा है सोह,
लें कानून हाथ में जनगण रोज करे विद्रोह,
आम आदमी को न कहीं भी मिलती आज पनाह ।
कोहरा छाया संबंधों पर हुआ लापता नेह,
देह साध्य, आत्मा को कोई नहीं रहा पहचान,
भूल गए परमार्थ, स्वार्थ ही आज हो गया साध्य।
आँगन में उठती दीवारें, बिखर रहा है गेह,
क्रंदन करते-सुनते भूले, हम कोयल का गान,
तज विराटता; हुई क्षुद्रता कहिए क्यों आराध्य ।
६.१.२०२४
***
नव प्रयोग
(छंद- सॉनेट सोरठा)
नमन शारदे मातु, मति दे आत्मा जगा दे।
खुद की कर पहचान, काम सभी निष्काम कर।
कोई रहे न गैर, जीवन सकल ललाम कर।।
सविता ऊषा प्रात, नव उजास मन समा दे।।
सोते बीता जन्म, माँ झकझोर जगा हमें।
अनुशासन का पाठ, भूल गए कर याद लें।
मातृभूमि पर प्राण, कर कुर्बां मुस्का सकें।।
करें प्रकृति से प्रेम, पौधारोपण कर हँसें।।
नाद अनाहद भूल, भवसागर में सिसकते।
निष्फल रहे प्रयास, बाधित हो पग भटकते।
माता! थामो बाँह, छंद सिखा दो अटकते।।
मैया! सुत नादान, बुद्धि-ज्ञान दे तार दे।
जग मतलब का मीत, जननी अविकल प्यार दे।
कर माया से मुक्त, जीवन जरा निखार दे।।
६-१-२०२३, १०•२५
●●●
मुक्तक
तमन्ना है तमन्ना को सकें, सुन-समझ मिलकर संग।
सुनें अशआर नज़्में चंद, बिखरे ग़ज़ल के भी रंग।।
सलिल संजीव हो पाकर सखावत, हुनर कुछ सीखे।
समझदारों की संगत के, तनिक लायक बने-दीखे।।
६-१-२०२३
***
मुक्तक
विधान : ३०वर्ण, भ य र त म न स न भ य।
*
अंबर निराला, नीलिमा में लालिमा घोले, मगन मन लीन चुप है, कुछ न बोले।
उषा भास्कर उजाला, कालिमा पी मस्त हो डोले, मनुज जग गीत नव गा, उठ अबोले।।
करे स्वागत उसी का, भाग्य जो नैना न हो मूँदे, डगर पर हो विचरता, हर सवेरे।
बहाए हँस पसीना, कामना ले काम ना छोड़े, फिसल कर हो सँभलता, सफल हो ले।
६-१-२०२१
***
लघुकथा
समानाधिकार
*
"माय लार्ड! मेरे मुवक्किल पर विवाहेतर अवैध संबंध बनाने के आरोप में कड़ी से कड़ी सजा की माँग की जा रही है। उसे धर्म, नैतिकता, समाज और कानून के लिए खतरा बताया जा रहा है। मेरा निवेदन है कि अवैध संबंध एक अकेला व्यक्ति कैसे बना सकता है? संबंध बनने के लिए दो व्यक्ति चाहिए, दोनों की सहभागिता, सहमति और सहयोग जरूरी है। यदि एक की सहमति के बिना दूसरे द्वारा जबरदस्ती कर सम्बन्ध बनाया गया होता तो प्रकरण बलात्कार का होता किंतु इस प्रकरण में दोनों अलग-अलग परिवारों में अपने-अपने जीवन साथियों और बच्चों के साथ रहते हुए भी बार-बार मिलते औए दैहिक सम्बन्ध बनाते रहे - ऐसा अभियोजन पक्ष का आरोप है।
भारत का संविधान भाषा, भूषा, क्षेत्र, धर्म, जाति, व्यवसाय या लिंग किसी भी अधर पर भेद-भाव का निषेध कर समानता का अधिकार देता है। यदि पारस्परिक सहमति से विवाहेतर दैहिक संबंध बनाना अपराध है तो दोनों बराबर के अपराधी हैं, दोनों को एक सामान सजा मिलनी चाहिए अथवा दोनों को दोष मुक्त किया जाना चाहिए।अभियोजन पक्ष ने मेरे मुवक्किल के साथ विवाहेतर संबंध बनानेवाली के विरुद्ध प्रकरण दर्ज नहीं किया है, इसलिए मेरे मुवक्किल को भी सजा नहीं दी जा सकती।
वकील की दलील पर न्यायाधीश ने कहा- "वकील साहब आपने पढ़ा ही है कि भारत का संविधान एक हाथ से जो देता है उसे दूसरे हाथ से छीन लेता है। मेरे सामने जिसे अपराधी के रूप में पेश किया गया है मुझे उसका निर्णय करना है। जो अपराधी के रूप में प्रस्तुत ही नहीं किया गया है, उसका विचारण मुझे नहीं करना है। आप अपने मुवक्किल के बचाव में तर्क दे पर संभ्रांत महिला और उसके परिवार की बदनामी न हो इसलिए उसका उल्लेख न करें।"
अपराधी को सजा सुना दी गयी और सिर धुनता रह गया समानाधिकार।
**** salil.sanjiv@gmail.com, ७९९९५५९६१८ ****
नवगीत:
.
काल है संक्रांति का
तुम मत थको सूरज!
.
दक्षिणायन की हवाएँ
कँपाती हैं हाड़
जड़ गँवा, जड़ युवा पीढ़ी
काटती है झाड़
प्रथा की चूनर न भाती
फेंकती है फाड़
स्वभाषा को भूल, इंग्लिश
से लड़ाती लाड़
टाल दो दिग्भ्रान्ति को
तुम मत रुको सूरज!
*
उत्तरायण की फिज़ाएँ
बनें शुभ की बाड़
दिन-ब-दिन बढ़ता रहे सुख
सत्य की हो आड़
जनविरोधी सियासत को
कब्र में दो गाड़
झाँक दो आतंक-दहशत
तुम जलाकर भाड़
ढाल हो चिर शांति का
तुम मत झुको सूरज!
***
नवगीत:
*
सत्याग्रह के नाम पर.
तोडा था कानून
लगा शेर की दाढ़ में
मनमानी का खून
*
बीज बोकर हो गये हैं दूर
टीसता है रोज ही नासूर
तोड़ते नेता सतत कानून
सियासत है स्वार्थ से भरपूर
.
भगतसिंह से किया था अन्याय
कौन जाने क्या रहा अभिप्राय?
गौर तन में श्याम मन का वास
देश भक्तों को मिला संत्रास
.
कब कहाँ थे खो गये सुभाष?
बुने किसने धूर्तता के पाश??
समय कैसे कर सकेगा माफ़?
वंश का ही हो न जाए नाश.
.
तीन-पाँच पढ़ते रहे
अब तक जो दो दून
समय न छोड़े सत्य की
भट्टी में दे भून
*
नहीं सुधरे पटकनी खाई
दाँत पीसो व्यर्थ मत भाई
शास्त्री जी की हुई क्यों मौत?
अभी तक अज्ञात सच्चाई
.
क्यों दिये कश्मीरियत को घाव?
दहशतों का बढ़ गया प्रभाव
हिन्दुओं से गैरियत पाली
डूबा ही दी एकता की नाव
.
जान की बाजी लगाते वीर
जीतते हैं युद्ध सहकर पीर
वार्ता की मेज जाते हार
जमीं लौटा भोंकते हो तीर
.
क्यों बिसराते सत्य यह
बिन पानी सब सून?
अब तो बख्शो देश को
'सलिल' अदा कर नून
६.१.२०१७
***
लघुकथा
दस्तूर
*
अच्छे अच्छों का दीवाला निकालकर निकल गई दीपावली और आ गयी दूज...
सकल सृष्टि के कर्म देवता, पाप-पुण्य नियामक निराकार परात्पर परमब्रम्ह चित्रगुप्त जी और कलम का पूजन कर ध्यान लगा तो मनस-चक्षुओं ने देखा अद्भुत दृश्य.
निराकार अनहद नाद... ध्वनि के वर्तुल... अनादि-अनंत-असंख्य. वर्तुलों का आकर्षण-विकर्षण... घोर नाद से कण का निर्माण... निराकार का क्रमशः सृष्टि के प्रागट्य, पालन और नाश हेतु अपनी शक्तियों को तीन अदृश्य कायाओं में स्थित करना...
महाकाल के कराल पाश में जाते-आते जीवों की अनंत असंख्य संख्या ने त्रिदेवों और त्रिदेवियों की नाम में दम कर दिया. सब निराकार के ध्यान में लीन हुए तो हर चित्त में गुप्त प्रभु की वाणी आकाश से गुंजित हुई:
__ "इस समस्या के कारण और निवारण तुम तीनों ही हो. अपनी पूजा, अर्चना, वंदना, प्रार्थना से रीझकर तुम ही वरदान देते हो औरउनका दुरूपयोग होने पर परेशान होते हो. करुणासागर बनने के चक्कर में तुम निष्पक्ष, निर्मम तथा तटस्थ होना बिसर गये हो."
-- तीनों ने सोच:' बुरे फँसे, क्या करें कि परमपिता से डांट पड़ना बंद हो?'.
एक ने प्रारंभ कर दिया परमपिता का पूजन, दूसरे ने उच्च स्वर में स्तुति गायन तथा तीसरे ने प्रसाद अर्पण करना.
विवश होकर परमपिता को धारण करना पड़ा मौन.
तीनों ने विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका पर कब्जा किया और भक्तों पर करुणा करने के लिए बढ़ दिया दस्तूर।
***
लघुकथा
भाव ही भगवान
*
एक वृद्ध के मन में अंतिम समय में नर्मदा-स्नान की चाह हुई. लोगों ने बता दिया कि नर्मदा जी अमुक दिशा में कोसों दूर बहती हैं, तुम नहीं जा पाओगी. वृद्धा न मानी... भगवान् का नाम लेकर चल पड़ी...कई दिनों के बाद दिखी उसे एक नदी... उसने 'नरमदा तो ऐसी मिलीं रे जैसे मिल गै मताई औ' बाप रे' गाते हुए परम संतोष से डुबकी लगाई. कुछ दिन बाद साधुओं का एक दल आया... शिष्यों ने वृद्धा की खिल्ली उड़ाते हुए बताया कि यह तो नाला है. नर्मदा जी तो दूर हैं हम वहाँ से नहाकर आ रहे हैं. वृद्धा बहुत उदास हुई... बात गुरु जी तक पहुँची. गुरु जी ने सब कुछ जानने के बाद, वृद्धा के चरण स्पर्श कर कहा : 'जिसने भाव के साथ इतने दिन नर्मदा जी में नहाया उसके लिए मैया यहाँ न आ सकें इतनी निर्बल नहीं हैं. 'कंकर-कंकर में शंकर', 'मन चंगा तो कठौती में गंगा' का सत्य भी ऐसा ही है. 'भाव का भूखा है भगवान' जैसी लोकोक्ति इसी सत्य की स्वीकृति है. जिसने इस सत्य को गह लिया उसके लिये 'हर दिन होली, रात दिवाली' हो जाती है. मैया तुम्हें नर्मदा-स्नान का पुण्य है लेकिन जो नर्मदा जी तक जाकर भी भाव का अभाव मिटा नहीं पाया उसे नर्मदा-स्नान का पुण्य नहीं है. मैया! तुम कहीं मत जाओ, माँ नर्मदा वहीं हैं जहाँ तुम हो. भाव ही भगवान है''
१९.११.२०१५
***
नवगीत:
.
उठो पाखी!
पढ़ो साखी
.
हवाओं में शराफत है
फ़िज़ाओं में बगावत है
दिशाओं की इनायत है
अदाओं में शराफत है
अशुभ रोको
आओ खाखी
.
अलावों में लगावट है
गलावों में थकावट है
भुलावों में बनावट है
छलावों में कसावट है
वरो शुभ नित
बाँध राखी
.
खत्म करना अदावत है
बदल देना रवायत है
ज़िंदगी गर नफासत है
दीन-दुनिया सलामत है
शहद चाहे?
पाल माखी
***
मुक्तिका:
.
गीतों से अनुराग न होता
जीवन कजरी-फाग न होता
रास आस से कौन रचाता?
मौसम पहने पाग न होता
निशा उषा संध्या से मिलता
कैसे सूरज आग न होता?
बाट जोहता प्रिय प्रवास की
मन-मुँडेर पर काग न होता
चंदा कहलाती कैसे तुम
गर निष्ठुरता-दाग न होता?
नागिन क्वांरी रह जाती गर
बीन सपेरा नाग न होता
'सलिल' न होता तो सच मानो
बाट घाट घर बाग़ न होता
६-१-२०१५
***
छंद सलिला:
दोधक छंद
*
(अब तक प्रस्तुत छंद: अग्र, अचल, अचल धृति, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रा वज्रा, उपेन्द्र वज्रा, कीर्ति, घनाक्षरी, प्रेमा, वाणी, शक्तिपूजा, सार, माला, शाला, हंसी)
दोधक दो गुरु तुकान्ती पंक्तियों का मात्रिक छंद है. इस छंद में हर पंक्ति में ३ भगण तथा २ गुरु कुल १६ मात्राएँ तथा ११ वर्ण मात्राएँ होते हैं ।


तीन भगण दो गुरु मिल रचते, दोधक छंद ललाम
ग्यारह अक्षर सोलह मात्रा, तालमेल अभिराम


उदाहरण:
१. काम न काज जिसे वह नेता।
झूठ कहे जन-रोष प्रणेता।।
होश न हो पर जोश दिखाये।
लोक ठगा सुनता रह जाए।।
दे खुद ही खुद को यश सारा।
भोग रहा पद को मद-मारा।।


२. कौन कहो सुख-चैन चुराते।
काम नहीं पर काम जताते।।
मोह रहे कब से मन मेरा।
रावण की भगिनी पग-फेरा।।
होकर बेसुध हाय लगाती।
निष्ठुर कौन? बनो मम साथी।।
स्त्री मुझ सी तुम सा नर पाये।
मान कहा, नहिं जीवन जाए।।


३. बंदर बालक एक सरीखे…
बात न मान करें मनमानी।
मान रहे खुद को खुद ज्ञानी।
कौन कहे कब क्या कर देंगे।
कूद गिरे उठ रो-हँस लेंगे।
ऊधम खूब करें, संग चीखें…
खा कम फेंक रहे मिल ज्यादा,
याद नहीं रहता निज वादा।
शांत रहें खाकर निज कसमें,
आज कहें बिसरें सब रस्में।
राह नहीं इनको कुछ दीखे…
६.१.२०१४
***
लघुकथा:
एकलव्य
संजीव 'सलिल'
*
- 'नानाजी! एकलव्य महान धनुर्धर था?'
- 'हाँ; इसमें कोई संदेह नहीं है.'
- उसने व्यर्थ ही भोंकते कुत्तों का मुंह तीरों से बंद कर दिया था ?'
-हाँ बेटा.'
- दूरदर्शन और सभाओं में नेताओं और संतों के वाग्विलास से ऊबे पोते ने कहा - 'काश वह आज भी होता.'
६.१.२०१३
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