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रविवार, 21 जनवरी 2024

दीप छंद, यमक, मुक्तिका, महाभागवत छंद, नवगीत, दोहा, व्यंग्य, सोरठा, द्विपदी, २१ जनवरी

सलिल सृजन २१ जनवरी 
द्विपदी
राम मरा है, मरा राम है, माया छाया एक समान।
जिसने यह सच जान लिया है, वह इंसान बना भगवान।।
२१.१.२०२४
***
सोरठा सलिला
दृष्टि देखती द्वैत, श्याम-गौर दो हैं नहीं।
आत्म अमिट अद्वैत, दोनों में दोनों कहे।।
कान्ह कन्हैया लाल, कान्हा लला गुपाल जू।
श्याम कृष्ण गोपाल, गिरिधर मुरलीधर भजो।।
नटखट नटवर नैन, नटनागर के जब मिलें।
छीने मन का चैन, मिलन बिना बेचैन कर।।
वेणु हाथ आ; अधर चढ़, रही गर्व से ऐंठ।
रेणु चरण छू कह रही, यहाँ न तेरी पैठ।।
होता भव से पार, कृष्ण कांत जिसके वही।
वह सकता भव-तार, इष्ट जिसे हो राधिका।।
२१-१-२०२३
•••
सॉनेट
संकल्प
जैसी भी है यह दुनिया
हमको है रहकर जीना
शीश उठा तानें सीना
काँपे कभी न कहीं जिया
संकट जब जो भी आएँ
टकराकर हम जीतेंगे
विष भी हँसकर पी लेंगे
गीत सफलता के गाएँ
छोटा कद हौसला बड़ा
वार करेंगे हम तगड़ा र
ह न सकेगा शत्रु खड़ा
हिम्मत कभी न हारेंगे
खुद को सच पर वारेंगे
सारे जग को तारेंगे
२१-१-२०२३
•••
लघु व्यंग्य
विकास
*
हे गुमशुदा! तुम जहाँ कहीं हो चुपचाप लौट आओ. तुम्हें कोई कुछ नहीं कहेगा. तुम्हारे दुःख में युवा बेरोजगार, दलित शोषण के शिकार, पिछड़े
परवरदिगार और अगड़े धारदार हथियार हो रहे हैं.
तुम्हारे बिना आयकर का बढ़ना, मँहगाई का चढ़ना और पड़ोसी का लड़ना बदस्तूर जारी है.
तुम्हारे नाम पर बनते शौचालय, महामार्ग और स्मार्ट शहर तुम्हारे वियोग में उद्घाटन होते ही चटकने लगते हैं. तुम्हारे आने का दावा कर रहे नेता जुमलों का हिमालय खड़ा कर चुनाव जीत रहे हैं. हम अपने घर को न सम्हाल पाने पर भी खुद को विश्व का मसीहा मानकर बूँद-बूँद रीत रहे हैं.
हम तुम्हारे वियोग में सद्भावों का कर रहे हैं विनाश, चौराहे पर रखे बैठे हैं सत्य की लाश, इससे पहले कि आशा हो जाए हताश अपने घर लौट आओ नहीं आना है तो भाड़ में जाओ हे विकास.
***
दोहा
लपक आपने ले लिया, हमसे हिंदी-फूल.
हाय! क्या कहें दे रहीं, हैं अंगरेजी-फूल
*द्विपदी
बोलती हैं अबोले ही बात कुछ आँखें.
भर सकें परवाज़ पंछी, खोलते पाँखें.
२१.१.२०१८
***
नवगीत:
*
मिली दिहाड़ी
चल बाजार
चावल-दाल किलो भर ले-ले
दस रुपये की भाजी
घासलेट का तेल लिटर भर
धनिया-मिर्ची ताजी
तेल पाव भर फ़ल्ली का
सिंदूर एक पुडिया दे
दे अमरूद पांच का, बेटी की
न सहूं नाराजी
खाली जेब पसीना चूता
अब मत रुक रे!
मन बेजार
निमक-प्याज भी ले लऊँ तन्नक
पत्ती चैयावाली
खाली पाकिट हफ्ते भर को
फिर छाई कंगाली
चूड़ी-बिंदी दिल न पाया
रूठ न मो सें प्यारी
अगली बेर पहलऊँ लेऊँ
अब तो दे मुस्का री!
चमरौधे की बात भूल जा
सहले चुभते
कंकर-खार
***
अभिनव प्रयोग:
नवगीत :
.
मिलती काय न ऊँचीवारी
कुरसी हमखों गुइयाँ
.
हमखों बिसरत नहीं बिसारे
अपनी मन्नत प्यारी
जुलुस, विशाल भीड़ जयकारा
सुविधा-संसद न्यारी
मिल जाती, मन की कै लेते
रिश्वत ले-दे भैया
.
पैलां लेऊँ कमीशन भारी
बेंच खदानें सारी
पाछूं घपले-घोटाले सौ
रकम बिदेस भिजा री
होटल फैक्ट्री टाउनशिप
कब्जा लौं कुआ तलैया
.
कौनौ सैगो हमरो नैयाँ
का काऊ सेन काने?
अपनी दस पीढ़ी खें लाने
हमें जोड़ रख जानें
बना लई सोने की लंका
ठेंगे पे राम-रमैया
.
(बुंदेली लोककवि ईसुरी की चौकड़िया फागों की लय पर आधारित, प्रति पद १६-१२ x ४ पंक्तियाँ, महाभागवत छंद )
***
मुक्तक:
*
चिंता न करें हाथ-पैर अगर सर्द हैं
कुछ फ़िक्र न हो चहरे भी अगर ज़र्द हैं
होशो-हवास शेष है, दिल में जोश है
गिर-गिरकर उठ खड़े हुए, हम ऐसे मर्द हैं.
*
जीत लेंगे लड़ के हम कैसा भी मर्ज़ हो
चैन लें उतार कर कैसा भी क़र्ज़ हो
हौसला इतना हमेशा देना ऐ खुदा!
मिटकर भी मिटा सकूँ मैं कैसा भी फ़र्ज़ हो
२१-१-२०१५
***
छंद सलिला:
दस मात्रिक दैशिक छंद:
*
दस दिशाओं के आधार पर दस मात्रिक छंदों को दैशिक छंद कहा जाता है. विविध मात्रा बाँट से ८९ प्रकार के दैशिक छंद रचे जा सकते हैं.
(अब तक प्रस्तुत छंद: अग्र, अचल, अचल धृति, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रा वज्रा, उपेन्द्र वज्रा, कीर्ति, घनाक्षरी, छवि, दीप, दोधक, निधि, प्रेमा, माला, वाणी, शक्तिपूजा, शाला, सार, सुगति/शुभगति, सुजान, हंसी)
दस मात्रिक दीप छंद
*
दस मात्रक दीप छंद के चरणान्त में ३ लघु १ गुरु १ लघु अर्थात एक नगण गुरु-लघु या लघु सगण लघु या २ लघु १ जगण की मात्रा बाँट होती है.
उदाहरण:
१. दीप दस नित बाल, दे कुचल तम-व्याल
स्वप्न नित नव पाल, ले 'सलिल' करताल
हो न तनिक मलाल, विनत रख निज भाल
दे विकल पल टाल, ले पहन कर-माल
२. हो सड़क-पग-धूल, नाव-नद-नभ कूल
साथ रख हर बार, जीत- पर मत हार
अनवरत बढ़ यार, आस कर पतवार
रख सुदृढ़ निज मूल, फहर नभ पर झूल
३. जहाँ खरपतवार, करो जड़ पर वार
खड़ी फसल निहार, लुटा जग पर प्यार
धरा-गगन बहार, सलामत सरकार
हुआ सजन निसार, भुलाकर सब रार
२१.१.२०१४
***
अभिनव प्रयोग:
यमकमयी मुक्तिका:
*
नहीं समस्या कोई हल की.
कोशिश लेकिन रही न हलकी..
विकसित हुई सोच जब कल की.
तब हरि प्रगटें बनकर कलकी..
सुना रही है सारे बृज को
छल की कथा गगरिया छलकी..
बिन पानी सब सून हो रहा
बंद हुई जब नलकी नल की..
फल की ओर निशाना साधा
कौन करेगा फ़िक्र न फल की?
नभ लाया चादर मखमल की.
चंदा बिछा रहा मलमल की..
खल की बात न बट्टा सुनता.
जब से संगत पायी खल की..
श्रम पर निष्ठां रही सलिल की
दुनिया सोचे लकी-अनलकी..
कर-तल की ध्वनि जग सुनता है.
'सलिल' अनसुनी ध्वनि पग-तल की..
२३-२-२०११
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