कुल पेज दृश्य

शनिवार, 27 जनवरी 2024

हरियाणवी, हाइकु, सोरठा, चित्रगुप्त, सरस्वती, ग्वारीघाट, पुनीत छंद, रोला, नवगीत

हरियाणवी हाइकु
*
लिक्खण बैठ्या
हरियाणवी कविता
कग्गज कोरा।१।
*
अकड़ कोन्या
बैरी बुढ़ापा आग्या
छाती तान के।२।
*
भला हकीम
आक करेला नीम
कड़वा घणा।३।
*
रै बेइमान!
छुआछूत कर्‌या
सब हैं एक।४।
*
सबतै ऊँच्चा
जीवन मैं अपने
दर्जा गुरु का।५।
*
हँसी गौरैया
किलकारी मारकै
मनी बैसाखी।६।
*
चैन की बंसी
दुनिया को चुभती
चाट्टी चिन्ता नै।७।
*
सुपणा पूरा
जीत ल्याई मैडल
गाम की लाड़ो।८।
*
देश नै नेता
खसोटन लाग्या हे
रब बचाए।९।
*
जीत कै जंग
सबनै चुनरिया
करती दंग।१०।
*
घर म्हं घर
खतरा चिड़िया नै
तोड़ पिंजरा।११।
*
भुक्खा किसान
मरणा हे लड़कै
नहीं झुककै।१२।
***
हिंदी हाइकु
*
याद ही याद
पोर-पोर समाई
स्वाद ही स्वाद।१।
*
सरिता बहे
अनकहनी कहे
कोई न सुने।२।
*
रीता है कोष
कम नहीं है जोश
यही संतोष।३।
*
जग नादान
नाहक भटकता
बने जिज्ञासु।४।
*
नहीं गैर से
खतराही खतरा
अपनों ही से।५।
*
नहीं हराना
मुझे किसी को कभी
यही जीत है।६।
*
करती जंग
बुराईयों से बिंदी
दुनिया दंग।७।
*
धूप का रूप
अनुपम अनूप
मिस इण्डिया।८।
***
सोरठा सलिला
*
लख वसुधा सिंगार, महुआ मुग्ध महक रहा।
किंशुक हो अंगार, दग्ध हृदय कर झट दहा।।
वेणी लाया साथ, मस्त मोगरा पान भी।
थाम चमेली हाथ, झूम कर रहा ठिठोली।।
रंग कुसुंबी डाल, राधा जू ने भिगाया।
मलकर लाल गुलाल, बनवारी ने खिझाया।।
रीझ नैन पर नैन, मिले झुके उठ मिल लड़े।
चारों हो बेचैन, दोनों में दोनों धँसे।।
दिल ने दिल का हाल, बिना कहे ही कह दिया।
दिलवर हुआ निहाल, कहा दिलरुबा ने पिया।।
२७-१-२०२३
चित्रगुप्त जी का न्याय
एक घोर पापी चोर,जुआरी, शराबी, व्यसनी मनुष्य ने जीवन में एक भी पुण्य न कर र पाप ही पाप किए।
एक दिन उसने महारानी की सवारी बाजार से निकलते देखी और महारानी के सिर पर सजी हुई मोगरे के फूलों की वेणी (माला) देखते ही उसे चुराकर अपनी प्रेयसी को उपहार स्वरूप देने का विचार किया। सैनिकों को छकाते हुए बहुत चतुराई से उसने महारानी के सिर से वह वेणी निकाली और लेकर सरपट अपनी प्रेयसी के पास भागा।
उसे वेणी चुराकर भागता देख महारानी के रक्षक सैनिक उसे पकड़ने के लिए दौड़े। चोर व्यसनी था, उसका शरीर भागते-भागते शीघ्र ही थक-चुक गया और वह एक पत्थर से ठोकर खाकर गिर पड़ा। संयोग से वह एक चबूतरे पर स्थापित शिवलिंग के निकट गिरा। चाहकर भी वह उठ नहीं पा रहा था, भागता कैसे? उसे पकड़ने के लिए पल-पल समीप आ रहे राजा के सैनिक उसे यमदूतों की तरह लग रहे थे। चोर के मुँह से निकला- "अब तो मरना है ही! ले तू ही पहन ले इसे!" उसने वेणी शिवलिंग को पहना दी और उसके प्राण पखेरू उड़ गए।
मरते ही उसे चित्रगुप्त जी के दरबार में लाया गया। यमराज बोले- "प्रभु! इस जीव ने जीवन में एक भी पुण्य नहीं किया। इसका पूरा जीवन पापमय आचरण करते हुए व्यतीत हुआ है, इसे सौ कल्प तक नरक-वास करने का दंड दीजिए।
चित्रगुप्त जी ने उसके कर्मों का सूक्ष्म विचारण कर कहा- 'इसने मृत्यु से ठीक पहले अंत समय में शंकर भगवान को निस्वार्थ भाव से वेणी अर्पित की और उन्हीं को स्मरण कर प्राण तजे इसलिए यह एक मुहूर्त के लिए इंद्रपद का अधिकारी है। "
यह सुनते ही यमराज ने चोर से पूछा कि वह नरक भोगकर एक मुहूर्त स्वर्ग का शासन करेगा या पहले स्वर्ग का राजा बनकर नरक में यातना झेलेगा?
चोर ने सोचा कि पहले स्वर्ग के आनंद ले लेना चाहिए बाद में तो नरक की अग्नि में जलना ही है। इंद्रदेव को यह सुचना मिली तो उन्होंने उस चोर को अपशब्द कहते हुए उसे इन्द्रासन के अयोग्य बताया पर देवाधिदेव श्री चित्रगुप्त के न्यायादेश का पालन करनी ही पड़ा। उस चोर को इंद्र के स्थान पर एक मुहूर्त के लिए स्वर्ग के सिंहासन पर बैठा दिया गया।
इंद्रदेव दवरा किए गए अपमान से क्षुब्ध चोर ने इंद्रासन पर बैठते ही सोचा कि स्वर्ग का खजाना खाली कर इंद्र से अपमान का बदला लेना है।उसने विनम्रतापूर्वक देवगुरु बृहस्पति से पूछा- "गुरुदेव! मैंने मरने से पहले जिसको माला पहनाई थी… क्या नाम था उसका… शिव! मैं स्वर्ग की समस्त संपदा शिव को दान देना है। आप साक्षी के रूप में ऋषि-महर्षियों को बुलवाइए।"
इंद्रासन पर आसीन देवराज के आदेश का पालन अनिवार्य था। चोर एक मुहूर्त के लिए ही सही पर था तो इंद्र ही। सप्तऋषि, नारद जी तथा अन्य ऋषिगण आ गए तो इस चोर ने जो अभी इंद्र था उसने दान आरंभ किया। गुरु बृहस्पति ने उसके हाथ में जल दिया और उसने स्वर्ग की सब संपदा, कामधेनु, कल्पवृक्ष, ऐरावत हाथी, वज्र आदि शिव को दान दे दी।
एक मुहूर्त पूरा होते ही यमदूत उसे नरक ले जाने आ गए। तभी शिव जी के पार्षदों ने यमदूतों को उसे नरक ले जाने से रोक दिया कि निष्काम भाव से स्वर्ग-संपदा शिव जी को दान देने के कारण उसके करोड़ों पाप वैसे ही भस्म हो गए है जैसे अग्नि में काष्ठ।
शिवदूतों और यमदूतों में संघर्ष की स्थिति बनने के पहले ही स्वयं श्रीमन्नारायण भगवान प्रगट हुए और बोले: "बेटा तुमने शिव जी को दान दिया पर मुझ शिवभक्त को भूल गए? अब अगले जन्म में मैं स्वयं तुमसे दान लेने आऊँगा।
अगले जान में चोर महाराज बलि हुआ और उससे उसकी स्वर्ग सदृश्य संपदा तीन पग में विष्णु जी ने दान में ले ली। कर्मेश्वर चित्रगुप्त जी के न्याय विधान को यम ही नहीं विष्णु जी और शिव जी ने भी मान्यता दी।
***
शारदे माँ!
तार दे माँ!
मन विकल है
प्यार दे माँ।।
*
करो छाया, हरो माया,
साधना कर सके काया।।
वंदना कर, प्रार्थना कर,
अर्चना कर सिर नवाया।।
भाव सुमन बटोर लाया
हँस इन्हें स्वीकार ले माँ!
मन विकल है
प्यार दे माँ
शारदे माँ!
तार दे माँ!
*
मति पुनीता, हो विनीता,
साम गाए, बाँच गीता।।
कथ्य रस लय भाव अर्पित
अर्चना कर सिर नवाया।।
शब्द-सुमन बटोर लाया
हँस इन्हें स्वीकार ले माँ!
मन विकल है
प्यार दे माँ
शारदे माँ!
तार दे माँ!
*
रच ऋचाएँ साम गाऊँ,
तुझे मन में बसा पाऊँ।
बहुत भूला, बहुत भटका
अब तुम्हीं में मैं समाऊँ।।
सत्य-शिव-सुंदर रचा माँ
भव तरूँ, पतवार दे माँ!
शारदे माँ!
तार दे माँ!
२७-१-२०२१
***
ग्वारीघाट जबलपुर की एक शाम
*
लल्ला-लल्ली रोए मचले हमें घूमना मेला
लालू-लाली ने यह झंझट बहुत देर तक झेला
डाँटा-डपटा बस न चला तो दोनों करें विचार
होटल या बाजार गए तो चपत लगेगी भारी
खाली जेब मुसीबत होगी मँहगी चीजें सारी
खर्चा कम, मन बहले ज्यादा, ऐसा करो उपाय
चलो नर्मदा तीर नहाएँ-घूमें, है सदुपाय
शिव पूजें पाएँ प्रसाद सूर्योदय देखें सुंदर
बच्चों का मन बहलेगा जब दिख जाएँगे बंदर
स्कूटर पर चारों बैठे मानो हो वह कार
ग्वारीघाट पहुँचकर ऊषा करे सिंगार
नभ पर बैठी माथे पर सूरज का बेंदा चमके
बिंब मनोहर बना नदी में, हीरे जैसा दमके
चहल-पहल थी खूब घाट पर घूम रहे नारी-नर
नहा रहे जो वे गुंजाएँ बम भोले नर्मद हर
पंडे करा रहे थे पूजा, माँग दक्षिणा भारी
पाप-पुण्य का भय दिखलाकर चला चढ़ोत्री आरी
जाने क्या-क्या मंत्र पढ़ें फिर मस्तक मलते चंदन
नरियल चना चिरौंजीदाने पंडित देता गिन गिन
घूम थके भूखे हो बच्चे पैर पटककर बोले
अब तो चला नहीं जाता, कैसे बोलें बम भोले
लालू लाया सेव जलेबी सबने भोग लगाया
नौकायन कर मौज मनाई नर्मदाष्टक गाया
२७-१-२०२०
***
कार्यशाला
*
ऐसे सच्चे मित्र हैं, जीवन निधि अनमोल
घावों पर मरहम सरिस, होके उनके बोल - अनिल अनवर
होते उनके बोल, अमिय सम नवजीवन दें
मृदुला विमला नेह नर्मदा बन मधुवन दें
मिले गुलाबों से हमें जैसे परिमल इत्र
वैसे सही विमर्श दें, ऐसे सच्चे मित्र - संजीव
***
मुक्तिका:
रात
( तैथिक जातीय पुनीत छंद ४-४-४-३, चरणान्त sssl)
.
चुपके-चुपके आयी रात
सुबह-शाम को भायी रात
झरना नदिया लहरें धार
घाट किनारे काई रात
शरतचंद्र की पूनो है
'मावस की परछाईं रात
आसमान की कंठ लंगोट
चाहे कह लो टाई रात
पर्वत जंगल धरती तंग
कोहरा-पाला लाई रात
वर चंदा तारे बारात
हँस करती कुडमाई रात
दिन है हल्ला-गुल्ला-शोर
गुमसुम चुप तनहाई रात
२७-१-२०२०
छंद सलिला
दोहा
जैसे ही अनुभूति हो, कर अभिव्यक्ति तुरंत
दोहा-दर्पण में लखें, आत्म-चित्र कवि-संत
*
कुछ प्रवास, कुछ व्यस्तता, कुछ आलस की मार
चाह न हो पाता 'सलिल', सहभागी हर बार
*
सोरठा
बन जाते हैं काम, कोशिश करने से 'सलिल'
भला करेंगे राम, अनथक करो प्रयास नित
*
रोला
सब स्वार्थों के मीत, किसका कौन सगा यहाँ?
धोखा देते नित्य, मिलता है अवसर जहाँ
राजनीति विष बेल, बोकर-काटे ज़हर ही
कब देखे निज टेंट, कुर्सी ढाती कहर ही
*
काव्य छंद
सबसे प्यारा पूत, भाई जाए भाड़ में
छुरा दिया है भोंक, मजबूरी की आड़ में
नाम मुलायम किंतु सेंध लगाकर बाड़ में
खेत चराते आप, अपना बेसुध लाड़ में
*
द्विपदी
पत्थर से हर शहर में, मिलते मकां हजारों
मैं ढूँढ-ढूँढ हारा, घर एक नहीं मिलता
***
लौकिक जातीय सप्त मात्रिक छंद
१. पदांत यगण
तज बहाना
मन लगाना
सफल होना
लक्ष्य पाना
जो मिला है
हँस लुटाना
मुस्कुराना
खिलखिलाना
२. पदांत मगण
न भागेंगे
न दौड़ेंगे
करेंगे जो
न छोड़ेंगे
*
३. पदांत तगण
आओ मीत
गाओ गीत
नाता जोड़
पाओ प्रीत
*
४. पदांत रगण
पाया यहाँ
खोया यहाँ
बोया सदा
काटा यहाँ
*
कर आरती
खुश भारती
सन्तान को
हँस तारती
*
५. पदांत जगण
भारत देश
हँसे हमेश
लेकर जन्म
तरे सुरेश
*
६. पदांत भगण
चपल चंचल
हिरन-बादल
दौड़ते सुन
ढोल-मादल
*
७. पदांत नगण
मीठे वचन
बोलो सजन
मूँदो न तुम
खोलो नयन
*
८. पदांत सगण
सुगती छंद
सच-सच कहो
मत चुप रहो
जो सच दिखे
निर्भय कहो
२७-१-२०१७
***
नवगीत
तुम कहीं भी हो
.
तुम कहीं भी हो
तुम्हारे नाम का सजदा करूँगा
.
मिले मंदिर में लगाते भोग मुझको जब कभी तुम
पा प्रसादी यूँ लगा बतियाओगे मुझसे अभी तुम
पर पुजारी ने दिया तुमको सुला पट बंद करके
सोचते तुम रह गये
अब भक्त की विपदा हरूँगा
.
गया गुरुद्वारा मिला आदेश सर को ढांक ले रे!
सर झुका कर मूँद आँखें आत्म अपना आँक ले रे!
सबद ग्रंथी ने सुनाया पूर्णता को खंड करके
मिला हलुआ सोचता मैं
रह गया अमृत चखूँगा
.
सुन अजानें मस्जिदों के माइकों में जा तलाशा
छवि कहीं पाई न तेरी भरी दिल में तब हताशा
सुना फतवा 'कुफ्र है, यूँ खोजना काफिर न आ तू'
जा रहा हूँ सोचते यह
राह अपनी क्यों तजूँगा?
.
बजा घंटा बुलाया गिरजा ने पहुंचा मैं लपक कर
माँग माफ़ी लूँ कहाँ गलती करी? सोचा अटककर
शमा बुझती देख तम को साथ ले आया निकलकर
चाँदनी को साथ ले,
बन चाँद, जग रौशन करूँगा
.
कोई उपवासी, प्रवासी कोई जप-तप कर रहा था
मारता था कोई खुद को बिना मारे मर रहा था
उठा गिरते को सम्हाला, पोंछ आँसू बढ़ चला जब
तब लगा है सार जग में
गीत गाकर मैं तरूँगा
***
उल्लाला सलिला:
*
(छंद विधान १३-१३, १३-१३, चरणान्त में यति, सम चरण सम तुकांत, पदांत एक गुरु या दो लघु)
*
अभियंता निज सृष्टि रच, धारण करें तटस्थता।
भोग करें सब अनवरत, कैसी है भवितव्यता।।
*
मुँह न मोड़ते फ़र्ज़ से, करें कर्म की साधना।
जगत देखता है नहीं अभियंता की भावना।।
*
सूर सदृश शासन मुआ, करता अनदेखी सतत।
अभियंता योगी सदृश, कर्म करें निज अनवरत।।
*
भोगवाद हो गया है, सब जनगण को साध्य जब।
यंत्री कैसे हरिश्चंद्र, हो जी सकता कहें अब??
*
भृत्यों पर छापा पड़े, मिलें करोड़ों रुपये तो।
कुछ हजार वेतन मिले, अभियंता को क्यों कहें?
*
नेता अफसर प्रेस भी, सदा भयादोहन करें।
गुंडे ठेकेदार तो, अभियंता क्यों ना डरें??
*
समझौता जो ना करे, उसे तंग कर मारते।
यह कड़वी सच्चाई है, सरे आम दुत्कारते।।
*
हर अभियंता विवश हो, समझौते कर रहा है।
बुरे काम का दाम दे, बिन मारे मर रहा है।।
*
मिले निलम्बन-ट्रान्सफर, सख्ती से ले काम तो।
कोई न यंत्री का सगा, दोषारोपण सब करें।।
२७-१-२०१५
***
कृति चर्चा:
मरुभूमि के लोकजीवन की जीवंत गाथा "खम्मा"
*
[कृति विवरण: खम्मा, उपन्यास, अशोक जमनानी, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी सजिल्द, पृष्ठ १३७, मूल्य ३०० रु., श्री रंग प्रकाशन होशंगाबाद]
*
राजस्थान की मरुभूमि से सन्नाटे को चीरकर दिगंत तक लोकजीवन की अनुभूतियों को अपने हृदवेधी स्वरों से पहुँचाते माँगणियारों के संघर्ष, लुप्त होती विरासत को बचाये रखने की जिजीविषा, छले जाने के बाद भी न छलने का जीवट जैसे जीवनमूल्यों पर केंद्रित "खम्मा" युवा तथा चर्चित उपन्यासकार अशोक जमनानी की पाँचवी कृति है. को अहम्, बूढ़ी डायरी, व्यासगादी तथा छपाक से हिंदी साहत्य जगत में परिचित ही नहीं प्रतिष्ठित भी हो चुके अशोक जमनानी खम्मा में माँगणियार बींझा के आत्म सम्मान, कलाप्रेम, अनगढ़ प्रतिभा, भटकाव, कलाकारों के पारस्परिक लगाव-सहयोग, तथाकथित सभ्य पर्यटकों द्वारा शोषण, पारिवारिक ताने-बाने और जमीन के प्रति समर्पण की सनातनता को शब्दांकित कर सके हैं.
"जो कलाकार की बनी लुगाई, उसने पूरी उम्र अकेले बिताई" जैसे संवाद के माध्यम से कथा-प्रवाह को संकेतित करता उपन्यासकार ढोला-मारू की धरती में अन्तर्व्याप्त कमायचे और खड़ताल के मंद्र सप्तकी स्वरों के साथ 'घणी खम्मा हुकुम' की परंपरा के आगे सर झुकाने से इंकार कर सर उठाकर जीने की ललक पालनेवाले कथानायक बींझा की तड़प का साक्षी बनता-बनाता है.
अकथ कहानी प्रेम की, किणसूं कही न जाय
गूंगा को सुपना भया, सुमर-सुमर पछताय
मोहब्बत की अकथ कहानी को शब्दों में पिरोते अशोक, राहुल सांकृत्यायन और विजय दान देथा के पाठकों गाम्भीर्य और गहनता की दुनिया से गति और विस्तार के आयाम में ले जाते हैं. उपन्यास के कथासूत्र में काव्य पंक्तियाँ गेंदे के हार में गुलाब पुष्पों की तरह गूँथी गयी हैं.
बेकलू (विकल रेत) की तरह अपने वज़ूद की वज़ह तलाशता बींझा अपने मित्र सूरज और अपनी संघर्षरत सुरंगी का सहारा पाकर अपने मधुर गायन से पर्यटकों को रिझाकर आजीविका कमाने की राह पर चल पड़ता है. पर्यटकों के साथ धन के सामानांतर उन्मुक्त अमर्यादित जीवनमूल्यों के तूफ़ान (क्रिस्टीना के मोहपाश में) बींझा का फँसना, क्रिस्टीना का अपने पति-बच्चों के पास लौटना, भींजा की पत्नी सोरठ द्वारा कुछ न कहेजाने पर भी बींझा की भटकन को जान जाना और उसे अनदेखा करते हुए भी क्षमा न कर कहना " आपने इन दिनों मुझे मारा नहीं पर घाव देते रहे… अब मेरी रूह सूख गयी है… आप कुछ भी कहो लेकिन मैं आपको माफ़ नहीं कर पा रही हूँ… क्यों माफ़ करूँ आपको?' यह स्वर नगरीय स्त्री विमर्श की मरीचिका से दूर ग्रामीण भारत के उस नारी का है जो अपने परिवार की धुरी है. इस सचेत नारी को पति द्वारा पीटेजाने पर भी उसके प्यार की अनुभूति होती है, उसे शिकायत तब होती है जब पति उसकी अनदेखी कर अन्य स्त्री के बाहुपाश में जाता है. तब भी वह अपने कर्तव्य की अनदेखी नहीं करती और गृहस्वामिनी बनी रहकर अंततः पति को अपने निकट आने के लिये विवश कर पाती है.
उपन्यास के घटनाक्रम में परिवेशानुसार राजस्थानी शब्दों, मुहावरों, उद्धरणों और काव्यांशों का बखूबी प्रयोग कथावस्तु को रोचकता ही नहीं पूर्णता भी प्रदान करता है किन्तु बींझा-सोरठ संवादों की शैली, लहजा और शब्द देशज न होकर शहरी होना खटकता है. सम्भवतः ऐसा पाठकों की सुविधा हेतु किया गया हो किन्तु इससे प्रसंगों की जीवंतता और स्वाभाविकता प्रभावित हुई है.
कथांत में सुखांती चलचित्र की तरह हुकुम का अपनी साली से विवाह, उनके बेटे सुरह का प्रेमिका प्राची की मृत्यु को भुलाकर प्रतीची से जुड़ना और बींझा को विदेश यात्रा का सुयोग पा जाना 'शो मस्त गो ऑन' या 'जीवन चलने का नाम' की उक्ति अनुसार तो ठीक है किन्तु पारम्परिक भारतीय जीवन मूल्यों के विपरीत है. विवाहयोग्य पुत्र के विवाह के पूर्व हुकुम द्वारा साली से विवाह अस्वाभाविक प्रतीत होता है.
सारतः, कथावस्तु, शिल्प, भाषा, शैली, कहन और चरित्र-चित्रण के निकष पर अशोक जमनानी की यह कृति पाठक को बाँधती है. राजस्थानी परिवेश और संस्कृति से अनभिज्ञ पाठक के लिये यह कृति औत्सुक्य का द्वार खोलती है तो जानकार के लिये स्मृतियों का दरीचा.... यह उपन्यास पाठक में अशोक के अगले उपन्यास की प्रतीक्षा करने का भाव भी जगाता है.
********
कुण्डलिया
मंगलमय हो हर दिवस, प्रभु जी दे आशीष.
'सलिल'-धार निर्मल रखें, हों प्रसन्न जगदीश..
हों प्रसन्न जगदीश, न पानी बहे आँख से.
अधरों की मुस्कान न घटती अगर बाँट दें..
दंगल कर दें बंद, धरा से कटे न जंगल
मंगल क्यों जाएँ, भू का हम कर दें मंगल..
२७-१-२०१३
***

कोई टिप्पणी नहीं: