परम् पूज्य परम भागवत श्रीभाईजी' श्रीहनुमानप्रसादजी' पोद्दार '
आदमी नहीं, फरिश्ता
- रियाज अहमद अंसारी
कुछ बयान करनेसे पहले यह बतलाना जरूरी है कि मेरा पूज्य श्रीभाईजीसे परिचय कैसे हुआ। बादशाह बाबरने अयोध्याके 'श्रीराम-जन्मभूमि-मन्दिर' को तोड़कर मस्जिद बनवा दी और उसका नाम 'बाबरी मस्जिद' रख दिया था। तबसे उस स्थानके लिये बराबर हिन्दुओं और मुसलमानोंमें झगड़े व खून-खराबे होते रहे। सन् १९४९ में भी इस स्थानको वापस लेनेके लिये हिन्दुओंमें तहरीक शुरू हुई, जिसकी वजहसे न केवल अयोध्या, बल्कि पूरे मुल्ककी फिजा खराब होने लगी। ऐसा देखकर मैंने एक ईमानदार मुसलमानकी हैसियतसे एक बयान अखबारोंमें दिया- इस्लाम किसी गैर-मुस्लिम धर्म स्थानको तोड़कर मस्जिद बनानेकी इजाजत नहीं देता और बादशाह बाबरने अपने दौरे हुकूमतमें 'श्रीराम-जन्मभूमि-मन्दिर' को तोड़कर तथा मस्जिद बनवाकर कोई इस्लामी काम नहीं किया है, बल्कि बाबरकी इस हरकतने हिन्दुस्तानके हिन्दुओंके दिलोंमें इस्लाम और मुसलमानोंसे नफरत पैदा कर दी है। इसलिये आजके हम मुसलमानोंको चाहिये कि 'श्रीराम-जन्मभूमि-मन्दिर' श्रीरामको माननेवाले हिन्दुओंको वापस कर दें, ताकि यह नफरत हमेशाके लिये खत्म हो जाय। इस सिलसिलेमें मैंने सरकारसे भी माँग की थी कि वे इस मन्दिरको हिन्दुओंको वापस दिलानेके लिये कोई ठोस कदम उठायें।
मेरे इस बयानको अखबारोंमें पढ़कर श्रीभाईजीने मुझे बुलाया और मैं उनके निवास स्थानपर जाकर उनसे मिला। कहनेको तो हमारी यह पहली मुलाकात थी, लेकिन श्रीभाईजीने मुझसे इस तरहकी बातें की, जैसे हम बहुत दिनोंसे एक-दूसरेको जानते रहे हों। उन्होंने बहुत सीधे-सादे प्यारभरे लफ्जोंमें मुझसे देरतक बातें कीं। जब मैं वापस जाने को तैयार हुआ, तब श्रीभाईजी ही न केवल खड़े हो गये, बल्कि मुझे अपने आफिस के दरवाजे तक छोड़ने आये। जब मैं रिक्शे पर बैठ गया, तब श्रीभाईजीने अपने दोनो हाथों को जोड़कर सलाम किया और मैंने भी अपने दोनों हाथों को जोड़कर उनके सलाम जबाब दिया। अपनी जिंदगी में पहली बार मैंने दोनों हाथों को जोड़कर सलामका जवाब दिया था।इसलिये कि हम मुसलमान लोग एक ही हांथ उठाकर सलामका जवाब देते हैं। भाईजी के इस मुलाकात का मुझ पर बहुत असर पड़ा और मैंने सोचा कि इतना बड़ा इन्सान मुझ जैसे नाचीज आदमी से इस तरह पेश आया इनमें अपने बड़े होनेका कोई गुमानतक नहीं है। पूज्य भाई जी के बारे में मेरे मनमें यह पहली राय कायम हुई।
श्री रामजन्मभूमि मंदिरकी तहरीक जोर पकड़ती गयी, उसकी वजहसे श्रीभाईजीसे मेरी सलाह मस्वराह के सिलसिलेमें बराबर होती रही। अयोध्याके रहनेवाले एक हिन्दू ब्रह्मचारी मुसलमानोंके साथ हो गये और से उत्तर प्रदेशके बड़े-बड़े शहरोंमें जाकर मुसलमानों के साथ आम जलसे में 'मस्जिद बाबरी' की हिमायत करते और मुसल्मानोको तरह-तरहसे बहकाते और मेरे खिलाफ भी बहुत बोलते रहे। वे गोरखपुर भी आये और वहीं उन्होंने मेरे खिलाफ जोरदार शब्दों में मुसलमानों को बरगलाया। मुस्लिम अखबारात तो मेरे खिलाफ लिखते ही रहते थे। नतीजा यह हुआ कि पूरे उत्तर प्रदेश और खासकर गोरखपुर के मुसलमान मेरे मुखालिफ हो गये। मेरे रिश्तेदार व खानदानके लोग भी मुझसे दूर रहने लगे और मुझे तरह-तरहकी तकलीफ मिलने लगी । मेरे वालिद साहबने मौलवियोंके दबावमें आकर मुझे खुदसे अलग कर दिया। अब मेरे पास कारोबार करनेके लिये भी पूँजी नहीं थी। नौकरी आसानीसे नहीं मिलती, मैं बिल्कुल बेकार हो गया। श्रीभाईजी बराबर मुझसे मुलाकातके दौरान कहते रहे भाई साहब! मेरे लायक कोई सेवा हो तो बिना संकोच कहियेगा। मुझे अपना ही समझिये, मैं कोई गैर नहीं हूँ।
अफसोस, मैं बदनसीब श्रीभीईजीकी इन फैयाजाना बातों का मतलब नहीं समझ सका और से घर फाके होने लगे। मेरा शरीर कमजोर होने लगा और मेरी हालत बीमारकी-सी हो गयी। इस कारण कई दिन श्रीभाईजीसे मिलने नहीं जा सका। इस दौरान मेरे यहाँ लगातार तीन दिन तक खाना नहीं बना। मेरी लड़की शहेदा, उन दिनों चार सालकी थी और मेरे दो बच्चोंसे छोटी थी, वह भूखसे रोने लगी। मेरे पास खानेके लिये कुछ नहीं था और न कोई पड़ोसी देने, वाला था, इसी लिये कि मैं मौलवियोंके कहनेके अनुसार काफिर था, एक मस्जिदको मन्दिर कहता था। हालांकि मेरा कहना हिन्दुओंकी तरफदारी करना नहीं था, बल्कि इस्लामके कानून के मुताबिक था, लेकिन आज सच्चा मुसलमान वह माना जाता है, जो गायकी कुर्बानी को,और गैरमुस्लिमोंको बुरा कहे, उन्हें गालियों दे तथा उनकी इबादतगाहोंको नुकसान पहुँचाए। है इस किस्से को यही छोड़ देना चाहता हूँ, इसलिये कि एक-न-एक दिन हम सबको खुदा की अदालतमें हाजिर होना ही है, जो सबको पैदा करता है, पोसता है और अपनी अदालत में बुलाकर सबके कर्मोंके अनुसार फैसला करता है। मैं मुतमईन हूँ कि मेरा और मौलवियों का मामला भी खुदाकी अदालतमें जरूर पेश होगा ।
खैर मैं यह कह रहा था कि अपनी लड़की शहेदा की हालत मुझसे देखी नहीं गयी और मेरी बरदास्त वाली ताकत बिल्कुल खत्म हो गयी। मैंने सारी मुसीबतोंसे निजात पानेके किये आत्महत्या का फैसला कर लिया। आने वाली रात का वक्त इसके मुनासिब समझा। इस फैसलेसे मुझे एक सकून मिल गया और मैं इत्मीनान से अपने बिस्तर पर लेट गया। दिनके लगभग दस बजे थे। किसी ने दरवाजा खटखटाया।मैं उठकर बाहर आया तो देखा, सड़क पर रुकी हुई मोटर के नजदीक श्री भाई जी खड़े हैं। मैने उनसे अन्दर आनेकी गुजारिश की और वे अन्दर आकर कुर्सी पर बैठ गये। मैं उनके पास चारपाईपर बैठ गया, जिसपर थोड़ी देर पहले मैं लेटा हुआ था। भाईजी ने मुस्कराते हुए मिजाजपुर्सी की और कहा भाई साहब, आप तो बीमार से लगते है।
जबाब में मेरे मुँह से केवल 'जी' निकला।
इसपर दूसरा सवाल भाईजीने किया- क्या तकलीफ है? कौन-सी बीमारी है ?
भला उनसे कैसे कहता कि भाईजी, भूखा रहते रहते कमजोर हो गया हूँ। इधर तीन दिनों से पानी पीने के सिवा मुझे कुछ खानेको नहीं मिला, इसलिये मेरी हालत ऐसी हो गयी है। मुझसे कुछ कहा नहीं गया मैं खामोश रहा। मुझे चुप पाकर भाईजीने फिर बड़े तसल्ली-आमेज लफ़्ज़ों में कहना शुरू किया- भाई साहब! यह दुनिया दुखकी जगह है। यहाँ सबको तकलीफ उठानी पड़ती है और सच्चे लोगोंपर तो और भी मुसीबत आती है, इसलिये कि भगवान उनकी परीक्षा लेते हैं।
भाईजीकी ये बाते मुझ पर कोई खास असर नहीं कर रही थी, क्योंकि आज रातको अपने प्रोग्राम पर अमल कर लेनेके बाद मुझे दुनियाकी सारी मुसीबतोंसे छुटकारा मिल जानेवाला था तो फिर मुझे उनकी बातोंने क्या लुफ्त मिलता ? सिर्फ भाईजीके अदबमें मैंने एक फीकी-सी मुस्कुराहटके साथ गर्दन हिलाकर उनके ख्यालातकी ताईद की। बातें करते हुए एक बड़ा-सा लिफाफा मेरी तरफ बढ़ाते हुए उन्होंने फरमाया- 'भाई साहब! आपको इसकी जरूरत है, इसे रख लीजिये। इन्कार न कीजिएगा, नहीं तो मुझे बड़ा दुःख होगा।'
मैंने लिफाफा अपने हाथमें लेते हुए पूछा- 'इसमें क्या है, भाईजी?'
मैं समझ रहा था कि रुपयेके सिवा इस समय इसमें और क्या हो सकता है। भाईजीने फरमाया- 'थोड़े रुपये हैं, इस वक्त काम चलाइये। जल्दी ही मैं कारोबार करनेके लिये और पैसों का भी इन्तजाम करनेकी चेष्टा करूँगा।' इतना सुनते ही मुझे ऐसा लगा जैसे मेरी सारी कमजोरियाँ एकदम दूर हो गयीं। मैंने कहा- 'भाईजी! मैं आपके इन एहसानका बदला कैसे चुका सकूँगा?
भाईजीने कहा- भाई साहब! यह कैसा एहसान और कैसा बदला। आपको आराम मिल जाए, यही मैं चाहता हूँ।
भाईजी बोलते रहे और मैं सोच रहा था कि इनको कैसे मालूम हो गया कि मुझे रुपयोंकी जरूरत है?, किसने जाकर कह दिया ? मैं इसी विचार में था कि भाईजीने फरमाया- 'भाई साहब! मेरी आपसे प्रार्थना है। अगर आप इजाजत दे तो मैं अर्ज करूँ।'
मैंने कहा- 'हुक्म कीजिये। भाईजी! आपका हर हुक्म मेरे सर-आँखोंपर होगा।'
पुज्य भाईजीने फ़रमाया- 'आपने आज रात अपनी जिंदगी के साथ जो करनेका निश्चय किया है, यह ठीक नहीं। जिंदगी खुदा की दी हुई चीज है। इसे खत्म करनेका अधिकार भी उसीको है, आदमीको नहीं। आप इस इरादेको छोड़ दीजिए।'
भाईजी की मुँह से इतनी बातें सुनकर मेरे हैरत की इन्तहा न रही। उस लमहा ऐसा लगा, जैसे मुझपर बिजली गिर पड़ी हो। मेरे बदनके सारे रोंगटे खड़े हो गये। मैं सोचने लगा कि अपने सिवा मैंने इस इरादे को किसीको भी बाखबर नहीं किया, फिर इन्हें कैसे मालूम हुआ? जरूर इनमें कोई ऐसी ग़ैबी ताकत है। ऐसा खयाल आते ही में चारपाईसे उठकर खड़ा हो गया और बोला- 'भाईजी, आप इन्सान नहीं है, फरिश्ता हैं।'
उन्होंने मुस्कुराते हुए फरमाया- 'मैं फरिश्ता नहीं हूँ।'
मैंने कहा- 'तो फिर मेरे इस इरादेका आपको कैसे पता चला?'
उन्होंने फरमाया- 'भाई साहब! दिल को दिलसे राहत होती है। आपके दिलमें जो बात आई, यह मेरे दिलको ज्ञात हो गई।'
भाईजी इतना कहकर खुलकर हँस दिये। यह सब कुछ देखनेके बाद मुझमें भाईजीसे सजीद सवाल-जबाब करनेकी ताकत खत्म हो चुकी थी। मैं खामोश हो गया। अब भाईजी ने उठते हुए कहा- 'मुझे आज्ञा दीजिए फिर मुलाकात होगी।'
'जैसी आपकी मर्जी' कहते हुए मैं उनके साथ मोटर तक गया और उनको हाथ जोड़कर नमस्ते कहते हुए रुखसत किया और अन्दर आकर लिफाफा खोलकर देखा और गिनती की तो सौ-सौके बीस नोट, यानी दो हजार रूपये थे। इससे कुछ ही देर पहले मेरे पास दो रुपये नहीं थे और अब दो हजार रुपये थे। उस समय वे दो हजार मेरे लिये दो लाख नहीं, दो करोड़के बराबर थे। लगभग बीस दिनों बाद भाई जीने मुझे आठ हजार रुपये और दिये, तब मैंने उनसे अर्ज किया- 'भाईजी। मैं ये रुपये आपको कैसे वापस करूँगा?'
उन्होंने फरमाया- 'भाई साहब! इन्हें वापस करनेकी जरूरत नहीं है। मैं कोई कर्ज नहीं दे रहा हूँ आपकी सेवा कर रहा हूँ। इन रुपयों से आप कारोबार करके अपने बाल-बच्चोंकी, परिवरिश कीजिए।'
मेरा खानदानी पेशा हैंडलूमसे कपड़े बनवाना है। भाईजीके दिये हुए पैसौंका मैंने एक छोटा-सा मकान बनवाया और हैंडलूम लगाकर कारोबार शुरू कर दिया। मेरे परिवारकी जिंदगी आरामसे बसर होने लगी।
इस वाकियातसे मेरे मनमें भाईजीके लिये जो राय कायम हुई, वह यह थी कि वे आदमीं नहीं, फरिश्ता हैं और सच भी है, सारी उम्र भाईजीने मुझ जैसे नाचीजके साथ जिस प्यार और हमदर्दीका ही नहीं, सगे भाईका-सा सलूक किया, वह इस जमीनपर नहीं दीखता । जब भी मुझे नकलीफ होती, मैं उनके पास चला जाता और मेरी मदद किए बिना नहीं रहते। सिफ्त यह थी कि वे मुझे हमेशा देकर भी मुझे और मेरी इज्जतको ऊँचा रखते। 'फरिश्ता' भी ऐसा सलूक करता होगा, मुझे शक है।
आभार- 'परम् भागवत श्री पोद्दार जी ' ग्रन्थ
(संकलनकर्ता-श्रीराधेश्याम जी बंका)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें