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बुधवार, 31 जनवरी 2024

गीत, लोकतंत्र, छंद एकावली, छंद शशिवदना, रामशंकर वर्मा, समीक्षा, सॉनेट, साधना

सलिल सृजन ३१ जनवरी
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सॉनेट
साधना
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साध पले मन में सतत, साध सके तो साध।
करे साध्य की साधना, संसाधन संसाध्य।
जीव रहे पल पल निरत, हो संजीव अबाध।।
करें काम कर कामना, हो प्रसन्न आराध्य।।
श्वास श्वास घुल-मिल सके, आस-आस हो संग।
नयनों में हो निमंत्रण, अधरों पर हो हास।।
जीवन में बिखरें तभी, खुशहाली के रंग।।
लिए हाथ में हाथ हो, जब जब खासमखास।।
योग-भोग का समन्वय, सभी सुखों का मूल।
प्रकृति-पुरुष हों शिवा-शिव, रमा-रमेश सुजान।
धूप-छाँव में साथ रह, इक दूजे अनुकूल।।
रसमय हों रसलीन हों, हों रसनिधि रसखान।।
हाथ हाथ में हाथ ले, हाथ हाथ के साथ।
साथ निभाने चल पड़ा, रखकर ऊँचा माथ।।
३१-१-२०२२
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कृति चर्चा-
चार दिन फागुन के - नवगीत का बदलता रूप
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
[कृति विवरण- चार दिन फागुन के, रामशंकर वर्मा, गीत संग्रह, वर्ष २०१५, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी, सजिल्द, जैकेट सहित, पृष्ठ १५९, मूल्य ३००/-, उत्तरायण प्रकाशन, के ९७ आशियाना, लखनऊ २२६०१२, ९८३९८२५०६२, नवगीतकार संपर्क टी ३/२१ वाल्मी कॉलोनी, उतरेठिया लखनऊ २२६०२९, ९४१५७५४८९२ rsverma8362@gmail.com. ]
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धूप-छाँव की तरह सुख-दुःख, मिलन-विरह जीवन-सिक्के के दो पहलू हैं। एक के बिना दूसरे का अस्तित्व नहीं। इस सनातन सत्य से युवा गीतकार रामशंकर वर्मा सुपरिचित हैं। विवेच्य गीत-नवगीत संग्रह छार दिन फागुन के उत्सवधर्मी भारतीय जनमानस से पंक्ति-पंक्ति में साक्षात करता चलता है। ग्राम्य अनुभूतियाँ, प्राकृतिक दृष्यावलियाँ, ऋतु परिवर्तन और जीवन के ऊँच-नीच को सम्भावेन स्वीकारते आदमी इन गीतों में रचा-बसा है। गीत को कल्पना प्रधान और नवगीत को यथार्थ प्रधान माननेवाले वरिष्ठ नवगीत-ग़ज़लकार मधुकर अष्ठाना के अनुसार ''जब वे (वर्मा जी) गीत लिखते हैं तो भाषा दूसरी तो नवगीत में भाषा उससे पृथक दृष्टिगोचर होती है।'' यहाँ सवाल यह उठता है कि गीत नवगीत का भेद कथ्यगत है, शिल्पगत है या भाषागत है? रामशंकर जी नवगीत की उद्भवकालीन मान्यताओं के बंधन को स्वीकार नहीं करते। वे गीत-नवगीत में द्वैत को नकारकर अद्वैत के पथ पर बढ़ते हैं। उनके किस गीत को गीत कहें, किसे नवगीत या एक गीत के किस भाग को गीत कहें किसे नवगीत यह विमर्श निरर्थक है।
गीति रचनाओं में कल्पना और यथार्थ की नीर-क्षीरवत संगुफित अभेद्य उपस्थिति अधिक होती है, केवल कल्पना या केवल यथार्थ की कम। कोई रचनाकार कथ्य को कहने के लिये किसी एक को अवांछनीय मानकर रचना करता भी नहीं है। रामशंकर जी की ये गीति रचनाएँ निर्गुण-सगुण, शाश्वतता-नश्वरता को लोकरंग में रंगकर साथ-साथ जीते चलते हैं। कुमार रविन्द्र जी ने ठीक हे आकलन किया है कि इन गीतों में व्यक्तिगत रोमांस और सामाजिक सरोकारों तथा चिंताओं से समान जुड़ाव उपस्थित हैं।
रामशंकर जी कल और आज को एक साथ लेकर अपनी बात कहते हैं-
तरु कदम्ब थे जहाँ / उगे हैं कंकरीट के जंगल
रॉकबैंड की धुन पर / गाते भक्त आरती मंगल
जींस-टॉप ने/ चटक घाघरा चोली / कर दी पैदल
दूध-दही को छोड़ गूजरी / बेचे कोला मिनरल
शाश्वत प्रेम पड़ा बंदीगृह / नए उच्छृंख्रल
सामयिक विसंगतियाँ उन्हें प्रेरित करती हैं-
दड़बे में क्यों गुमसुम बैठे / बाहर आओ
बाहर पुरवाई का लहरा / जिया जुड़ाओ
ठेस लगी तो माफ़ कीजिए / रंग महल को दड़बा कहना
यदि तौहीनी / इसके ढाँचे बुनियादों में
दफन आपके स्वर्णिम सपने / इस पर भी यह तुर्रा देखो
मैं अदना सा / करूँ शान में नुक्ताचीनी
रामशंकर जी का वैशिष्ट्य दृश्यों को तीक्ष्ण भंगिमा सहित शब्दित कर सकना है -
रेनकोटों / छतरियों बरसतियों की
देह में निकले हैं पंख / पार्कों चिड़ियाघरों से
हाईवे तक / बज उठे / रोमांस के शत शंख
आधुनिकाएँ व्यस्त / प्रेमालाप में
इसी शहरी बरसात का एक अन्य चित्रण देखें-
खिड़कियों से फ़्लैट की / दिखते बलाहक
हों कि जैसे सुरमई रुमाल
उड़ रहा उस पर / धवल जोड़ा बलॉक
यथा रवि वर्मा / उकेरें छवि कमाल
चंद बूँदें / अफसरों के दस्तखत सी
और इतने में खड़ंजे / झुग्गियाँ जाती हैं दूब
अभिनव बिंब, मौलिक प्रतीक और अनूठी कहन की त्रिवेणी बहाते रामशंकर आधुनिक हिंदी तथा देशज हिंदी में उर्दू-अंग्रेजी शब्दों की छौंक-बघार लगाकर पाठक को आनंदित कर देते हैं। अनुप्राणित, मूर्तिमंत, वसुमति, तृषावंत, विपणकशाला, दुर्दंश, केलि, कुसुमाकर, मन्वन्तर, स्पंदन, संसृति, मृदभांड, अहर्निश जैसे संस्कृतनिष्ठ शब्द, सगरी, महुअन, रुत, पछुआ, निगोड़ी, गैल, नदिया, मिरदंग, दादुर, घुघुरी देशज-ग्राम्य शब्द, रिश्ते, काश, खुशबू, रफ़्तार, आमद, कसीदे, बेख़ौफ़, बेफ़िक्र, मासूम, सरीखा, नूर, मंज़िल, हुक्म, मशकें आदि उर्दू शब्द तथा फ्रॉक, पिरामिड, सेक्शन, ड्यूटी, फ़ाइल, नोटिंग, फ़्लैट, ट्रेन, रेनी डे, डायरी, ट्यूशन, पिकनिक, एक्सरे, जींस-टॉप आदि अंग्रेजी शब्दों का बेहिचक प्रयोग करते हैं वर्मा जी।
इस संकलन में शब्द युग्मों क पर्याप्त प्रयोग हुआ है। जैसे- तीर-कमान, क्षत-विक्षत, लस्त-पस्त, राहु-केतु, धीर-वीर, सुख-दुःख, खुसुर-फुसुर, घाघरा-चोली, भूल-चूक, लेनी-देनी, रस-रंग, फाग-राग, टोंका-टाकी, यत्र-तत्र-सर्वत्र आदि। कुछ मुद्रण त्रुटियाँ समय का नदिया, हंसी-ठिठोली, आंच नहीं मद्विम हो, निर्वान है हिंदी, दसानन, निसाचर, अमाँ-निशा आदि खटकती हैं। फूटते लड्डू, मिट्टी के माधो, बैठा मार कुल्हाड़ी पैरों, अब पछताये क्या होता है? आदि के प्रयोग से सरसता में वृद्धि हुई है। रात खिले जब रजनीगंधा, खुशबू में चाँदनी नहाई, सदा अनंदु रहैं यहै ट्वाला, कुसमय के शिला प्रहार, तन्वंगी दूर्वा, संदली साँसों, काल मदारी मरकत नर्तन जैसी अभिव्यक्तियाँ रामशंकर जी की भाषिक सामर्थ्य और संवेदनशील अभिव्यक्ति क्षमता की परिचायक हैं। इस प्रथम कृति में ही कृतिकार परिपक्व रचना सामर्थ्य प्रस्तुत कर सका है कृतियों उत्सुकता जगाता है।
३१.१.२०१६
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छंद सलिला:
शशिवदना छंद
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यह दस मात्रिक छंद है.
उदाहरण:
१. शशिवदना चपला
कमलाक्षी अचला
मृगनयनी मुखरा
मीनाक्षी मृदुला
२. कर्मदा वर्मदा धर्मदा नर्मदा
शर्मदा मर्मदा हर्म्यदा नर्मदा
शक्तिदा भक्तिदा मुक्तिदा नर्मदा
गीतदा प्रीतदा मीतदा नर्मदा
३. गुनगुनाना सदा
मुस्कुराना सदा
झिलमिलाना सदा
खिलखिलाना सदा
गीत गाना सदा
प्रीत पाना सदा
मुश्किलों को 'सलिल'
जीत जाना सदा
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एकावली छंद
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दस मात्रिक एकावली छंद के हर चरण में ५-५ मात्राओं पर यति होती है.
उदाहरण :
१. नहीं सर झुकाना, नहीं पथ भुलाना
गिरे को उठाना, गले से लगाना
न तन को सजाना, न मन को भुलाना
न खुद को लुभाना, न धन ही जुटाना
२. हरि भजन कीजिए, नित नमन कीजिए
निज वतन पूजिए, फ़र्ज़ मत भूलिए
मरुथली भूमियों को, चमन कीजिए
भाव से भीगिए, भक्ति पर रीझिए
३. कर प्रीत, गढ़ रीत / लें जीत मन मीत
नव गीत नव नीत, मन हार मन जीत
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३१.१.२०१४
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गीत  
जनगण के मन में
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जनगण के मन में जल पाया,
नहीं आस का दीपक। 
कैसे हम स्वाधीन देश जब
लगता हमको क्षेपक?

हम में से
हर एक मानता
निज हित सबसे पहले.
नहीं देश-हित कभी साधता
कोई कुछ भी कह ले। 

कुछ घंटों 'मेरे देश की धरती'
फिर हो 'छैंया-छैंया'
वन काटे, पर्वत खोदे,
भारत माँ घायल भैया। 

किसको चिंता? यहाँ देश की?
सबको है निज हित की। 
सत्ता पा- निज मूर्ति लगाकर,
भारत की दुर्गति की। 

श्रद्धा, आस्था, निष्ठा बेचो
स्वार्थ साध लो अपना। 
जाये भाड़ में किसको चिंता
नेताजी का सपना। 

कौन हुआ आजाद?
भगत है कौन देश का बोलो?
झंडा फहराने के पहले
निज मन जरा टटोलो। 

तंत्र न जन का
तो कैसा जनतंत्र तनिक समझाओ?
प्रजा उपेक्षित प्रजातंत्र में
क्यों कारण बतलाओ?

लोक तंत्र में लोक मौन क्यों?
नेता क्यों वाचाल?
गण की चिंता तंत्र न करता
जनमत है लाचार। 

गए विदेशी, आये स्वदेशी,
शासक मद में चूर। 
सिर्फ मुनाफाखोरी करता
व्यापारी भरपूर। 

न्याय बेचते जज-वकील मिल
शोषित- अब भी शोषित
दुर्योधनी प्रशासन में हो
सत्य किस तरह पोषित?

आज विचारें
कैसे देश हमारा साध्य बनेगा?
स्वार्थ नहीं सर्वार्थ
हमें हरदम आराध्य रहेगा.
२४ जनवरी २०११
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