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रविवार, 1 जुलाई 2018

समीक्षा: काल है संक्रांति का -राजेंद्र वर्मा

समीक्षा
यह ‘काल है संक्रांति का’
- राजेंद्र वर्मा
[कृति  विवरण- काल है संक्रांति का (नवगीत-संग्रह); नवगीतकार- आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द, बहुरंगी, जैकेट सहित, संस्करण- प्रथम, पृष्ठ संख्या- १२८, मूल्य- पुस्तकालय संस्करण: तीन सौ रुपये। प्रकाशक- समन्वय प्रकाशन, अभियान, २०४ विजय अपार्टमेन्ट, सुभद्रा वार्ड, नेपियर टाउन, जबलपुर- ४८२००१, नवगीतकार संपर्क: विशव वाणी हिंदी संस्थान ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, चलभाष: ७९९९५५९६१८ / ९४२५१८३२४४, ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com]

                      गद्य-पद्य की विभिन्न विधाओं में निरंतर सृजनरत और हिंदी भाषा के व्याकरण तथा पिंगल के अधिकारी विद्वान आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ने खड़ी हिंदी के समांतर बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, अवधी, छत्तीसगढ़ी, मालवी, निमाड़ी, राजस्थानी, हरियाणवी, सिरायकी तथा अंग्रेजी में भी लेखन किया है। अपनी बुआश्री महीयसी महादेवी जी तथा माताजी कवयित्री शांति देवी को साहित्य व भाषा-प्रेम की प्रेरणा माननेवाले ‘सलिल’ जी आभासी दुनिया में भी वे अपनी सतत और गंभीर उपस्थिति से हिंदी के साहित्यिक पाठकों को लाभान्वित करते रहे हैं। गीत, नवगीत, ग़ज़ल और कविता के लेखन में छंद की प्रासंगिकता और उसके व्याकरण पर भी उन्होंने अपेक्षित प्रकाश डाला है। रस-छंद- अलंकारों पर उनका विशद ज्ञान लेखों के माध्यम से हिंदी संसार को लाभान्वित करता रहा है। वस्तु की दृष्टि से शायद ही कोई ऐसा विषय हो जो उनकी लेखनी से अछूता रहा हो- भले ही वह गीत हो, कविता हो अथवा लेख! नवीन विषयों पर पकड़ के साथ-साथ उनकी रचनाओं में विशद जीवनानुभव बोलता-बतियाता है और पाठकों-श्रोताओं में संजीवनी भरता है।

                             ‘काल है संक्रांति का’ संजीव जी का नवीनतम गीत-संग्रह है जिसमें ६५ गीत-नवगीत हैं। जनवरी २०१४  से मार्च २०१६ के मध्य रचे गये ये गीत शिल्प और विषय, दोनों में बेजोड़ हैं। संग्रह में लोकगीत, सोहर, हरगीतिका, आल्हा, दोहा, दोहा-सोरठा मिश्रित, सार आदि नए-पुराने छंदों में सुगठित ये गीति-रचनाएँ कलात्मक अभिव्यक्ति में सामयिक विसंगतियों और विद्रूपताओं की ख़बर लेते हुए आम आदमी की पीड़ा और उसके संघर्ष-संकल्प को जगर-मगर करती चलती हैं। नवगीत की शक्ति को पहचानकर शिल्प और वास्तु में अधिकाधिक सामंजस्य बिठाकर यथार्थवादी भूमि पर रचनाकार ने आस-पास घटित हो रहे अघट को कभी सपाट, तो कभी प्रतीकों और मिथकों के माध्यम से उद्घाटित किया है। विसंगतियों के विश्लेषण और वर्णित समस्या का समाधान प्रस्तुत करते अधिकांश गीत टटकी भाव-भंगिमा दर्शाते हैं। बिम्ब-प्रतीक, भाषा और टेक्नीक के स्तरों पर नवता का संचार करते हैं। इनमें ऐंद्रिक भाव भी हैं, पर रचनाकार तटस्थ भाव से चराचर जगत को सत्यम्-शिवम्- सुन्दरम् के वैचारिक पुष्पों से सजाता है।

                             शीर्षक गीत, ‘काल है संक्रांति का’ में मानवीय मूल्यों और प्राची के परिवेश से च्युत हो रहे समाज को सही दिशा देने के उद्देश्य से नवगीतकार, सूरज के माध्यम से उद्बोधन देता है। यह सूरज आसमान में निकलने वाला सूरज ही नहीं, वह शिक्षा, साहित्य, विज्ञान आदि क्षेत्रों के पुरोधा भी हो सकते हैं जिन पर दिग्दर्शन का उत्तरदायित्व है—
                          काल है संक्रांति का / तुम मत थको सूरज!
                          दक्षिणायन की हवाएँ / कँपाती हैं हाड़
                          जड़ गँवा, जड़ युवा पीढ़ी / काटती है झाड़
                          प्रथा की चूनर न भाती / फेंकती है फाड़
                          स्वभाषा को भूल, इंग्लिश / से लड़ाती लाड़
                          टाल दो दिग्भ्रांति को / तुम मत रुको सूरज!
                             .......
               प्राच्य पर पाश्चात्य का / अब चढ़ गया है रंग
               कौन, किसको सम्हाले / पी रखी मद की भंग
               शराफत को शरारत / नित कर रही है तंग
               मनुज-करनी देखकर है / ख़ुद नियति भी दंग
               तिमिर को लड़, जीतना / तुम मत चुको सूरज! (पृ.१६)

                            एक अन्य गीत, ‘संक्रांति काल है’ में रचनाकार व्यंग्य को हथियार बनाता है। सत्ता व्यवस्था में बैठे लोगों से अब किसी भले काम की आशा ही नहीं रही, अतः गीतकार वक्रोक्ति का सहारा लेता है-
               प्रतिनिधि होकर जन से दूर / आँखे रहते भी हो सूर
               संसद हो चौपालों पर / राजनीति तज दे तंदूर
               अब भ्रान्ति टाल दो / जगो, उठो!
अथवा,
               सूरज को ढाँके बादल / सीमा पर सैनिक घायल
               नाग-साँप फिर साथ हुए / गुँजा रहे बंसी-मादल
               झट छिपा माल दो / जगो, उठो!

                             गीतकार सत्ताधीशों की ही खबर नहीं लेता, वह हममें-आपमें बैठे चिन्तक-सर्जक पर भी व्यंग्य करता है; क्योंकि आज सत्ता और सर्जना में दुरभिसंधि की उपस्थिति किसी से छिपी नहीं हैं--
               नवता भरकर गीतों में / जन-आक्रोश पलीतों में
               हाथ सेंक ले कवि, तू भी / जी ले आज अतीतों में
               मत खींच खाल दो / जगो, उठो! (पृ.२०)

                             शिक्षा जीवन की रीढ़ है। इसके बिना आदमी पंगु है, दुर्बल है और आसानी से ठगा जाता है। गीतकार ने सूरज (जो प्रकाश देने का कार्य करता है) को पढने का आह्वान किया है, क्योंकि जब तक ज्ञान का प्रकाश नहीं फैलता है, तब तक किसी भी प्रकार के विकास या उन्नयन की बात निरर्थक है। सन्देश रचने और अभिव्यक्त करने में रचनाकार का प्रयोग अद्भुत है—
            सूरज बबुआ! / चल स्कूल।
            धरती माँ की मीठी लोरी / सुनकर मस्ती ख़ूब करी।
            बहिन उषा को गिरा दिया / तो पिता गगन से डाँट पड़ी।
             धूप बुआ ने लपचुपाया / पछुआ लायी बस्ता-फूल।
                             ......
   चिड़िया साथ फुदकती जाती / कोयल से शिशु गीत सुनो।
   ‘इकनी एक’ सिखाता तोता / ’अ’ अनार का याद रखो।
   संध्या पतंग उड़ा, तिल-लडुआ / खा, पर सबक़ न भूल। (पृ.३५)

                             परिवर्तन प्रकृति का नियम है। नव वर्ष का आगमन हर्षोल्लास लाता है और मानव को मानवता के पक्ष में कुछ संकल्प लेने का अवसर भी, पर हममें से अधिकांश की अन्यमनस्कता इस अवसर का लाभ नहीं उठा पाती। ‘सलिल’ जी दार्शनिक भाव से रचना प्रस्तुत करते हैं जो पाठक पर अन्दर-ही- अन्दर आंदोलित करती चलती है—
                             नये साल को/आना है तो आएगा ही।
                             करो नमस्ते या मुँह फेरो।
                             सुख में भूलो, दुख में टेरो।
                             अपने सुर में गायेगा ही/नये साल...।
                             एक-दूसरे को ही मारो।
                             या फिर, गले लगा मुस्काओ।
                             दर्पण छवि दिखलायेगा ही/नये साल...।
                             चाह, न मिटना, तो ख़ुद सुधरो।
                             या कोसो जिस-तिस को ससुरो!
                            अपना राग सुनायेगा ही/नये साल...। (पृ.४७)

                             विषयवस्तु में विविधता और उसकी प्रस्तुति में नवीनता तो है ही, उनके शिल्प में, विशेषतः छंदों को लेकर रचनाकार ने अनेक अभिनव प्रयोग किये हैं, जो रेखांकित किये जाने योग्य हैं। कुछ उद्धरण देखिए—
                             सुन्दरिये मुन्दरिये, होय!
                             सब मिल कविता करिये होय!
                             कौन किसी का प्यारा होय!
                             स्वार्थ सभी का न्यारा होय!
                             जनता का रखवाला होय!
                             नेता तभी दुलारा होय!
                             झूठी लड़ै लड़ाई होय!
                             भीतर करें मिताई होय!
                             .....
                             हिंदी मैया निरभै होय!
                             भारत माता की जै होय! (पृ.४९)

                             उपर्युक्त रचना पंजाब में लोहड़ी पर्व पर राय अब्दुल्ला खान भट्टी उर्फ़ दुल्ला भट्टी को याद कर गाये जानेवाले लोकगीत की तर्ज़ पर है। इसी प्रकार निम्नलिखित रचना बुन्देली लोककवि ईसुरी की चौकड़िया फागों (पद भार१६/१२) पर आधारित है। दोनों ही गीतों की वस्तु में युगबोध उमगता हुआ दिखता है—
            मिलती काय नें ऊँचीवारी / कुर्सी हमको गुइयाँ!
            हमखों बिसरत नहीं बिसारे / अपनी मन्नत प्यारी
            जुलुस, विसाल भीर जयकारा / सुविधा संसद न्यारी
             मिल जाती, मन की कै लेते / रिश्वत ले-दे भइया!
                             ......
              कौनउ सगो हमारो नैयाँ / का काऊ से काने?
               पने दस पीढ़ी खें लाने / हमें जोड़ रख जानें।
               बना लई सोने की लंका / ठेंगे पे राम-रमैया! (पृ.५१)

                             इसी छंद में एक गीत है, ‘जब लौं आग’, जिसमें कवि ने लोक की भाषा में सुन्दर उद्बोधन दिया है। कुछ पंक्तियाँ देखें—
              जब लौं आग न बरिहै, तब लौं / ना मिटिहै अन्धेरा!
              सबऊ करो कोसिस मिर-जुर खें / बन सूरज पगफेरा।
                             ......
               गोड़-तोड़ हम फ़सल उगा रए / लूट रए व्यापारी।
               जन के धन से तनखा पा खें / रौंद रए अधिकारी।
               जागो, बनो मसाल / नई तो / घेरे तुमै / अँधेरा! (पृ.६४)

                             गीत ‘सच की अरथी’ (पृ.55) दोहा छंद में है, तो अगले गीत, ‘दर्पण का दिल’ का मुखड़ा दोहे छंद में है और उसके अंतरे सोरठे में हैं, तथापि गीत के ठाठ में कोई कमी नहीं आयी है। कुछ अंश देखिए—
                        दर्पण का दिल देखता, कहिए, जब में कौन?
                        आप न कहता हाल, भले रहे दिल सिसकता।
                         करता नहीं ख़याल, नयन कौन-सा फड़कता!
                         सबकी नज़र उतारता, लेकर राई-नौन! (पृ.५७)

                       छंद-प्रयोग की दृष्टि से पृष्ठ ५९, ६१ और ६२ पर छोटे-छोटे अंतरों के गीत ‘हरगीतिका’ में होने के कारण पाठक का ध्यान खींचते हैं। एक रचनांश का आनंद लीजिए—
                             करना सदा, वह जो सही।
                             ........
                             हर शूल ले, हँस फूल दे
                             यदि भूल हो, मत तूल दे
                             नद-कूल को पग-धूल दे
                             कस चूल दे, मत मूल दे
                             रहना सदा, वह जो सही। (पृ.६२)

                             सत्ता में बैठे छद्म समाजवादी और घोटालेबाजों की कमी नहीं है। गीतकार ने ऐसे लोगों पर प्रहार करने में कसर नहीं छोड़ी है—
                          बग्घी बैठा / बन सामंती समाजवादी।
                          हिन्दू-मुस्लिम की लड़वाये
                          अस्मत की धज्जियाँ उड़ाये
                          आँसू, सिसकी, चीखें, नारे
                          आश्वासन कथरी लाशों पर
                          सत्ता पाकर / उढ़ा रहा है समाजवादी! (पृ.७६)

                             देश में तमाम तरक्क़ी के बावजूद दिहाड़ी मज़दूरों की हालत ज्यों-की- त्यों है। यह ऐसा क्षेत्र है जिसके संगठितहोने की चर्चा भी नहीं होती, परिणाम यह कि मजदूर को जब शाम को दिहाड़ी मिलती है, वह खाने-पीने के सामान और जीवन के राग को संभालने-सहेजने के उपक्रमों को को जुटाने बाज़ार दौड़ता है। ‘सलिल’ जी ने इस क्षण को बखूबी पकड़ा है और उसे नवगीत में सफलतापूर्वक ढाल दिया है—
                     मिली दिहाड़ी / चल बाज़ार।
                     चावल-दाल किलो-भर ले ले / दस रुपये की भाजी
                     घासलेट का तेल लिटर-भर / धनिया- मिर्चा ताज़ी
                      तेल पाव-भर फल्ली का / सिन्दूर एक पुड़िया दे-
                      दे अमरूद पाँच का / बेटी की न सहूँ नाराजी
  ख़ाली ज़ेब, पसीना चूता / अब मत रुक रे! / मन बेज़ार! (पृ.८१)

                             आर्थिक विकास, सामाजिक विसंगतियों का जन्मदाता है। समस्या यह भी है कि हमारे अपनों ने अपने चरित्र में भी संकीर्णता भर ली है। ऐसे हम चाहते भी कुछ नहीं कर पाते और उच्छवास ले-ले रह जाते हैं। ऐसी ही व्यथा का चित्रांकन एक गीत, ‘राम बचाये’ में द्रष्टव्य है। इसके दो बंद देखें—
      अपनी-अपनी मर्यादा कर तार-तार / होते प्रसन्न हम,
       राम बचाये!
       वृद्धाश्रम-बालाश्रम और अनाथालय / कुछ तो कहते हैं!
       महिलाश्रम की सुनो सिसकियाँ / आँसू क्यों बहते रहते हैं?
       राम-रहीम बीनते कूड़ा / रजिया-रधिया झाडू थामे
       सड़क किनारे, बैठे लोटे बतलाते / कितने विपन्न हम,
       राम बचाये!
       अमराई पर चौपालों ने / फेंका क्यों तेज़ाब, पूछिए!
        पनघट ने खलिहानों को क्यों / नाहक़ भेजा जेल बूझिए।
        सास-बहू, भौजाई-ननदी / क्यों माँ-बेटी सखी न होती?
        बेटी-बेटे में अंतर कर / मन से रहते सदा खिन्न हम,
        राम बचाये! (पृ.९४)

                             इसी क्रम में एक गीत, ख़ुशियों की मछली’ उल्लेखनीय है जिसमें समाज और सत्ता का गँठजोड़ आम आदमी को जीने नहीं दे रहा है। गीत की बुनावट में युगीन यथार्थ के साथ दार्शनिकता का पुट भी है—
           ख़ुशियों की मछली को / चिंता का बगुला/खा जाता है।
           श्वासों की नदिया में / आसों की लहरें
            कूद रही हिरनी-सी / पल भर ना ठहरें
             आँख मूँद मगन / उपवासी साधक / ठग जाता है।
                             ....
              श्वेत वसन नेता है / लेकिन मन काला
               अंधे न्यायालय ने / सच झुठला डाला
     निरपराध फँस जाता / अपराधी शातिर बच जाता है।। (पृ.९८)

                             गीत, ‘लोकतंत्र’ का पंछी’ में भी आम आदमी की व्यथा का यथार्थ चित्रांकन है। सत्ता-व्यवस्था के दो प्रमुख अंग- विधायिका और न्यायपालिका अपने उत्तरदायित्व से विमुख होते जा रहे हैं और जनमत की भूमिका भी संदिग्ध होती जा रही है। लोकतांत्रिक व्यवस्था ही ध्वस्त होती जा रही है—
                             लोकतंत्र का पंछी बेबस!
                नेता पहले डालें दाना / फिर लेते पर नोच
                अफ़सर रिश्वत-गोली मारें / करें न किंचित सोच
                             व्यापारी दे नाश रहा डँस!
                             .......
                 राजनीति नफ़रत की मारी / लिए नींव में पोच
                 जनमत बहरा-गूंगा खो दी / निज निर्णय की लोच
                 एकलव्य का कहीं न वारिस! (पृ.१००)

                             प्रकृति के उपादानों को लेकर मानवीय कार्य-व्यापार की रचना विश्वव्यापक होती है, विशेषतः जब उसमें चित्रण-भर न हो, बल्कि उसमें मार्मिकता, और संवेदनापूरित जीवन्तता हो। ‘खों-खों करते’ ऐसा ही गीत है जिसमें शीत ऋतु में एक परिवार की दिनचर्या का जीवन्त चित्र है—
     खों-खों करते बादल बब्बा / तापें सूरज सिगड़ी।
     आसमान का आँगन चौड़ा / चंदा नापे दौड़ा-दौड़ा
     ऊधम करते नटखट तारे / बदरी दादी, ‘रुको’ पुकारे
     पछुआ अम्मा बड़-बड़ करती / डाँट लगाती तगड़ी!
     धरती बहिना राह हेरती / दिशा सहेली चाह घेरती
     ऊषा-संध्या बहुएँ गुमसुम / रात और दिन बेटे अनुपम
     पाला-शीत / न आये घर में / खोल न खिड़की अगड़ी!
     सूर बनाता सबको कोहरा / ओस बढ़ाती संकट दोहरा
     कोस न मौसम को नाहक़ ही / फ़सल लायगी राहत को ही
     हँसकर खेलें / चुन्ना-मुन्ना / मिल चीटी-ढप- लँगड़ी! (पृ.१०३)

                             इन विषमताओं और विसंगतियों के बाबजूद गीतकार अपना कवि-धर्म नहीं भूलता। नकारात्मकता को विस्मृत कर वह आशा की फ़सल बोने और नये इतिहास लिखने का पक्षधर है—
                             आज नया इतिहास लिखें हम।
                             अब तक जो बीता, सो बीता
                             अब न आस-घट होगा रीता
                             अब न साध्य हो स्वार्थ सुभीता,
                             अब न कभी लांछित हो सीता
                             भोग-विलास न लक्ष्य रहे अब
                             हया, लाज, परिहास लिखें हम।
                             आज नया इतिहास लिखें हम।।
                             रहें न हमको कलश साध्य अब
                             कर न सकेगी नियति बाध्य अब
                             स्नेह-स्वेद- श्रम हों अराध्य अब
                             कोशिश होगी महज माध्य अब
                             श्रम-पूँजी का भक्ष्य न हो अब
                             शोषक हित खग्रास लिखें हम।। (पृ.१२२)

                             रचनाकार को अपने लक्ष्य में अपेक्षित सफलता मिली है, पर उसने शिल्प में थोड़ी छूट ली है, यथा तुकांत के मामले में, अकारांत शब्दों का तुक इकारांत या उकारांत शब्दों से (उलट स्थिति भी)। इसी प्रकार, उसने अनुस्वार वाले शब्दों को भी तुक के रूप में प्रयुक्त कर लिया है, जैसे- गुइयाँ / भइया (पृ.५१), प्रसन्न / खिन्न (पृ.९४) सिगड़ी / तगड़ी / लंगड़ी (पृ.१०३)। एकाध स्थलों पर भाषा की त्रुटि भी दिखायी पड़ी है, जैसे- पृष्ठ १२७ पर एक गीत में‘दम’ शब्द को स्त्रीलिंग मानकर ‘अपनी’ विशेषण प्रयुक्त हुआ है। तथापि, इन छोटी-मोटी बातों से संग्रह का मूल्य कम नहीं हो जाता।

                             गीतकार ने गीतों की भाषा में अपेक्षित लय सुनिश्चित करने के लिए हिंदी-उर्दू के बोलचाल शब्दों को प्राथमिकता दी है; कहीं-कहीं भावानुसार तत्सम शब्दावली का चयन किया है। अधिकांश गीतों में लोक का पुट दिखलायी देता है जिससे पाठक को अपनापन महसूस होता है। आज हम गद्य की औपचारिक शब्दावली से गीतों की सर्जना करने में अधिक लगे हैं, जिसका परिणाम यह हो रहा है कि उनमें मार्मिकता और अपेक्षित संवेदना का स्तर नहीं आ पाता है। भोथरी संवेदनावाली कविता से हमें रोमावलि नहीं हो सकती, जबकि आज उसकी आवश्यकता है। ‘सलिल’ जी ने इसकी भरपाई की पुरज़ोर कोशिश की है जिसका हिंदी नवगीत संसार द्वारा स्वागत किया जाना चाहिए।

                             वर्तमान संग्रह निःसंदेह नवगीत के प्रसार में अपनी सशक्त भूमिका निभा रहा है और आने वाले समय में उसका स्थान इतिहास में अवश्य लिया जाएगा, यह मेरा विश्वास है।... लोक की शक्ति को सोद्देश्य नवगीतों में ढालने हेतु ‘सलिल’ जी साधुवाद के पात्र है।
- 3/29, विकास नगर, लखनऊ-226 022 (मो.80096 60096)
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