कुल पेज दृश्य

शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2012

रचना-प्रति रचना राकेश खंडेलवाल-संजीव 'सलिल'

रचना-प्रति रचना 

राकेश खंडेलवाल-संजीव 'सलिल'
*

पुरबाई के साथ घड़ी भर को बह जाएँ 

उभरा करते भाव अनगिनत मन की अंगनाई में पल पल
कोई बैठे पास चार पल तो थोड़ा सा उसे बताएं

दालानॉ में रखे हुए गमलों में उगे हुए हम पौधे
जिनकी चाहत एक घड़ी तो अपनी धरती से जुड़ पायें
होठों को जो सौंप दिए हैं शब्द अजनबी आज समय ने
उनको बिसरा कर बचपन की बोली में कुछ तो गा पायें

लेकिन ओढ़े हुए आवरण की मोटी परतों के पीछे
एक बार फिर रह जाती है घुट कर मन की अभिलाषाएं

अटके हुए खजूरों पर हम चाहें देखें परछाई को
जो की अभी तक पदचिह्नों से बिना स्वार्थ के जुडी हुई है
पीठ फेर कर देख लिया था किन्तु रहे असफल हम भूलें
घुटनों की परिणतियाँ निश्चित सदा उदर पर मुडी हुई हैं

यद्यपि अनदेखा करते हैं अपने बिम्ब नित्य दर्पण में
फिर भी चाहत पुरबाई के साथ घड़ी भर को बह जाएँ

फागुन की पूनम कार्तिक की मावस करती है सम्मोहित
एक ज्वार उठता है दूजे पल सहसा ही सो जाता है
लगता तो है कुछ चाहत है मन की व्याकुलता के अन्दर
लेकिन चेतन उसको कोई नाम नहीं देने पाटा है

पट्टी बांधे हुए आँख पर एक वृत्त की परिधि डगर कर
सोचा करते शायद इक दिन हम अपना इच्छित पा जाएँ
*

आदरणीय राकेश जी!

आपकी रचना का वाचन कर कलम से उतरे भाव आपको सादर समर्पित.


उभरा करते भाव अनगिनत 

उभरा करते भाव अनगिनत, कवि की कविताई में पल-पल.

कोई आ सुध-बुध बिसराये, कोई आकर हमें जगाये...

*
कमल-कुसुम हम दिग-दिगंत में सुरभि लुटाकर व्याप सके हैं.

हो राकेश-दीप्ति नभ मंडल को पल भर में नाप सके हैं.

धरे धरा पर पग, हाथों में उठा सौर मंडल हम सकते-

बाधाओं को सिगड़ी में भर,सुलगा, निज कर ताप सके हैं.

अचल विजय के वाहक अपने सपने जब नीलाम हुए तो

कोई न पाया श्रम-सीकर की बोली बोले, गले लगाये...     

*
अर्पण और समर्पण के पल, पूँजी बनकर संबल देते.

श्री प्रकाश पाथेय साथ ले, श्वास-आस को परिमल देते.

जड़ न जमाले जड़ चिंतन, इसलिए चाह परिवर्तन की कर-

शब्द-शब्द विप्लव-विद्रोहों को कविता रचकर स्वर देते.

सर्जन और विसर्जन की लय-ताल कलम से जब उतरी तब    

अलंकार, रस, छंद त्रिवेणी, नेह नर्मदा पुलक नहाये...
*
उगे पूर्व से पर पश्चिम की नकल कर रहे हैं अनजाने.

सायों के बढ़ने से कद को आँक रहे हैं कम पैमाने.

नहीं मिटाई पर पहले से ज्यादा लम्बी रेखा खींची-

प्रलोभनों ने मुँह की खाई,जब आये लालच दिखलाने.

कंकर-में शंकर के दर्शन तभी हुए जब गरल पी लिया-

तजकर राजमार्ग पगडंडी पर मीरा बन कदम बढ़ाये...  

*****
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in

कोई टिप्पणी नहीं: