मुक्तक:
संजीव 'सलिल'
*
कभी न समय एक सा रहता, प्रकृति-चक्र इतना सच कहता.
हार न बाधाओं के आगे, 'सलिल' हमेशा बहता रहता..
अतुल न दुःख, यदि धैर्य अतुल हो, जय पाती मानव की कोशिश-
पग-पग बढ़ता जो वह इन्सां, अपनी मंजिल निश्चय गहता..
*
आया तो है बसंत, जाने मत दीजिये.
साफ़ पर्यावरण हो, ऐसा कुछ कीजिये..
पर्वत, वन, सलिल-धार सुन्दरता हो अपार-
उमाकांत के दर्शन जी भर फिर कीजिये..
*
सिर्फ प्रेम में मत डूबा रह, पहले कर पुरुषार्थ.
बन किशोर से युवा जीत जग जैसे जीता पार्थ..
कदम-कदम बढ़, हर सीढ़ी चढ़, मंजिल चूमे पैर-
कर संदीपित सारे जग को, प्रेम बने परमार्थ..
*
आया बसंत झूम कर सुरेश गा रहे.
हैं आम खास, नए-नए बौर छा रहे.
धरती का रूप देखिये दुल्हन सजी हुई-
नभ का संदेशा लिए पवन देव आ रहे..
*
नीरज के नाम नीरजा ने भेजी पाती.
लहरें संदेशा ले आई हैं मदमाती.
छवि निरखे गोरी दर्पण में अपनी ही-
जैसे पढ़ती हो लिखकर अपनी पाती..
*
दिल बाग़-बाग़ हो गया है, महमहाइये.
भँवरों ने साज छेड़ दिए गीत गाइए.
ऋतुराज के स्वागत का समय आ गया 'सलिल'-
शेष धर न लीजिये, खुशियाँ लुटाइए..
*
सुनो सुजाता कौन सुखाता नाहक अपनी देह.
भरो कटोरा खीर खिलाओ, हो ना जाए विदेह..
पीपल तले बैठ करता है सकल सृष्टि की चिंता.
आया-छाया है बसंत ले खुशियाँ निस्संदेह..
*
त्रिपाठ मोह स्नेह प्रेम के रटे
इस तरह कदम बढ़े नहीं हटे
पेश की रत्नेश ने सुसंपदा-
बाँट-बाँट कर थका नहीं घटे
भावनाओं का उठा है ज्वार अब
एक हो गयी है जीत-हार अब
मिट गया है द्वेष ईर्ष्या जलन
शेष है अशेष सिर्फ प्यार अब
एक हो गए हैं कामिनी औ' कंत
भूल गए साधना सुसाधु-संत
शब्द के गले कलम लिपट गयी
गीत प्रीत के रचे 'सलिल' अनंत
*
खिल-खिल उठे अरविन्द शत निहारिये.
दूरियों को दिल से अब बिसारिये.
श्री माल कंठ-कंठ में सजाइये
मिल बसन्ती गीत मीत गाइए.
*
नीरव हो न निकुंज चलो अब गायें हम
समस्याएँ हैं अनगिन कुछ सुलझायें हम.
बोधिसत्व आशा का दामन क्यों छोड़ें?
दीप बनें जल किंचित तिमिर मिटायें हम..
*
पूनम का मादक हो बसंत
राणा का हो बलिदानी सा.
खुशियों का ना हो कभी अंत
उत्साह अमित अरमानी सा.
हो गीत ग़ज़ल कुंडलियोंमय
मनहर बसंत लासानी सा.
भारत माता की लाज रखे
बनकर बसंत कुर्बानी सा.
*
हार न बाधाओं के आगे, 'सलिल' हमेशा बहता रहता..
अतुल न दुःख, यदि धैर्य अतुल हो, जय पाती मानव की कोशिश-
पग-पग बढ़ता जो वह इन्सां, अपनी मंजिल निश्चय गहता..
*
आया तो है बसंत, जाने मत दीजिये.
साफ़ पर्यावरण हो, ऐसा कुछ कीजिये..
पर्वत, वन, सलिल-धार सुन्दरता हो अपार-
उमाकांत के दर्शन जी भर फिर कीजिये..
*
सिर्फ प्रेम में मत डूबा रह, पहले कर पुरुषार्थ.
बन किशोर से युवा जीत जग जैसे जीता पार्थ..
कदम-कदम बढ़, हर सीढ़ी चढ़, मंजिल चूमे पैर-
कर संदीपित सारे जग को, प्रेम बने परमार्थ..
*
आया बसंत झूम कर सुरेश गा रहे.
हैं आम खास, नए-नए बौर छा रहे.
धरती का रूप देखिये दुल्हन सजी हुई-
नभ का संदेशा लिए पवन देव आ रहे..
*
नीरज के नाम नीरजा ने भेजी पाती.
लहरें संदेशा ले आई हैं मदमाती.
छवि निरखे गोरी दर्पण में अपनी ही-
जैसे पढ़ती हो लिखकर अपनी पाती..
*
दिल बाग़-बाग़ हो गया है, महमहाइये.
भँवरों ने साज छेड़ दिए गीत गाइए.
ऋतुराज के स्वागत का समय आ गया 'सलिल'-
शेष धर न लीजिये, खुशियाँ लुटाइए..
*
सुनो सुजाता कौन सुखाता नाहक अपनी देह.
भरो कटोरा खीर खिलाओ, हो ना जाए विदेह..
पीपल तले बैठ करता है सकल सृष्टि की चिंता.
आया-छाया है बसंत ले खुशियाँ निस्संदेह..
*
त्रिपाठ मोह स्नेह प्रेम के रटे
इस तरह कदम बढ़े नहीं हटे
पेश की रत्नेश ने सुसंपदा-
बाँट-बाँट कर थका नहीं घटे
भावनाओं का उठा है ज्वार अब
एक हो गयी है जीत-हार अब
मिट गया है द्वेष ईर्ष्या जलन
शेष है अशेष सिर्फ प्यार अब
एक हो गए हैं कामिनी औ' कंत
भूल गए साधना सुसाधु-संत
शब्द के गले कलम लिपट गयी
गीत प्रीत के रचे 'सलिल' अनंत
*
खिल-खिल उठे अरविन्द शत निहारिये.
दूरियों को दिल से अब बिसारिये.
श्री माल कंठ-कंठ में सजाइये
मिल बसन्ती गीत मीत गाइए.
*
नीरव हो न निकुंज चलो अब गायें हम
समस्याएँ हैं अनगिन कुछ सुलझायें हम.
बोधिसत्व आशा का दामन क्यों छोड़ें?
दीप बनें जल किंचित तिमिर मिटायें हम..
*
पूनम का मादक हो बसंत
राणा का हो बलिदानी सा.
खुशियों का ना हो कभी अंत
उत्साह अमित अरमानी सा.
हो गीत ग़ज़ल कुंडलियोंमय
मनहर बसंत लासानी सा.
भारत माता की लाज रखे
बनकर बसंत कुर्बानी सा.
*
6 टिप्पणियां:
Shesh Dhar Tiwari
क्या बात है आचार्य जी.
anshu tripathi
निशब्द कर दिया आपने गुरूजी!
SURESH KUMAR CHOUDHARY
salil ji ,
sheshdharji aapko acharyji yun hi nhi kahate,
aap har vidha me paarangat hain, badhai
poonam rana
वाह ! अति उत्तम ...
बहुत सुंदर रचना ...
शब्द-शब्द जैसे मोती ये मोती का हार
आपकी कविता मेरे लिए जैसे कोई उपहार
गजब !!!!!
आचार्य जी ,
आदि से अंत तक बिना रुके यदि एक स्वांस में ही
कोई पढ़ने को मजबूर कर दे और सब आसानी से
समझ भी आ जाय तो केवल यही शब्द मन में
आते हैं |
आपका अतिशय धन्यबाद भी , साधुवाद भी और बधाईयाँ भी
सब एक साथ ||
Your's ,
Achal Verma
मुक्तक:
संजीव 'सलिल'
*
कभी न समय एक सा रहता, प्रकृति-चक्र इतना सच कहता.
हार न बाधाओं के आगे, 'सलिल' हमेशा बहता रहता..
अतुल न दुःख, यदि धैर्य अतुल हो, जय पाती मानव की कोशिश-
पग-पग बढ़ता जो वह इन्सां, अपनी मंजिल निश्चय गहता.. ---- सुन्दर बंद !
*
सिर्फ प्रेम में मत डूबा रह, पहले कर पुरुषार्थ.
बन किशोर से युवा जीत जग जैसे जीता पार्थ..
कदम-कदम बढ़, हर सीढ़ी चढ़, मंजिल चूमे पैर-
कर संदीपित सारे जग को, प्रेम बने परमार्थ.. --- अति सुन्दर!
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सुनो सुजाता कौन सुखाता नाहक अपनी देह.
भरो कटोरा खीर खिलाओ, हो ना जाए विदेह..
पीपल तले बैठ करता है सकल सृष्टि की चिंता. ------ ये कितना कितना सुन्दर क्या कहूँ ! आप सच में आचार्य हैं! नमन! गौतम बुद्ध की याद आ गई!
आया-छाया है बसंत ले खुशियाँ निस्संदेह..
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भावनाओं का उठा है ज्वार अब
एक हो गयी है जीत-हार अब
मिट गया है द्वेष ईर्ष्या जलन
शेष है अशेष सिर्फ प्यार अब ----- ये अद्भुत!!
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नीरव हो न निकुंज चलो अब गायें हम
समस्याएँ हैं अनगिन कुछ सुलझायें हम.
बोधिसत्व आशा का दामन क्यों छोड़ें?
दीप बनें जल किंचित तिमिर मिटायें हम.. --- बहुत सुन्दर!
*
पूनम का मादक हो बसंत
राणा का हो बलिदानी सा.
खुशियों का ना हो कभी अंत
उत्साह अमित अरमानी सा.
हो गीत ग़ज़ल कुंडलियोंमय
मनहर बसंत लासानी सा.
भारत माता की लाज रखे
बनकर बसंत कुर्बानी सा. --- वाह!
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