
गोपी गीत दोहानुवाद
संजीव 'सलिल'
*
श्रीमदभागवत दशम स्कंध के
इक्तीसवें अध्याय में वर्णित पावन
गोपी गीत का भावानुवाद प्रस्तुत
है.
धन्य-धन्य है बृज धरा, हुए अवतरित श्याम.
बसीं इंदिरा, खोजते नयन, बसो अभिराम..
जय प्रियतम घनश्याम की, काटें कटें न रात.
खोज-खोज हारे तुम्हें, कहाँ खो गये तात??
हम भक्तन तुम बिन नहीं, रातें सकें गुजार.
खोज रहीं सर्वत्र हम, दर्शन दो बलिहार..
कमल सरोवर पराजित, मनहर चितवन देख.
शरद लहर शतदलमयी, लज्जित आभा लेख..
बिना मोल तुम पर नयन, न्यौछावर हैं तात.
घायल कर क्यों वध करें?, वरदाता अवदात..
मय अघ तृण विष सूत जल, असुरों से हर बार.
साधिकार रक्षा करी, बहु-प्रकार करतार!.
जो हो जसुदा-पुत्र तो, करो सहज व्यवहार.
बसे विदेही देह में, जग के तारणहार..
विधि ने वंदनकर किया, आमंत्रित जग-नूर.
हुए बचाने अवतरित, रहो न हमसे दूर..
कमल-करों से थामते, कमला-कर रस-खान.
वृष्णिधुर्य! दो अभय रख, सिर पर कर गुणवान..
बृजपुरियों के कष्ट हर, कर दो भव से पार.
हे माधव! हे मुरारी!, मुरलीधर सरकार..
तव कोमल मुस्कान ले, हर मिथ्या अभिमान.
मुख-दर्शन को तरसतीं, हम भक्तन भगवान..
गौ-संवर्धन हित उठे, रमा-धाम-पग नाथ.
पाप-मुक्त देहज सभी, हों पग पर रख माथ..
सर्प कालिया का दमन, किया शीश-धर पैर.
हरें वासना काम की, उर पग धर, हो खैर..
कमलनयन! मृदु वाक् से, करते तुम आकृष्ट.
अधर अमृत-वाणी पिला, दें जीवन उत्कृष्ट..
जग-लीला जो आपकी, कहिये समझे कौन?
कष्ट नष्ट कर मूल से, जीवन देते मौन..
सचमुच वही महान जो, करते तव गुणगान.
जय करते जीवन-समर, पाते-देते ज्ञान..
गूढ़ वचन, चितवन मधुर, हर पल आती याद.
विरह वियोगी, क्षुब्ध उर, सुन छलिया! फ़रियाद..
गाय चराने प्रभु! गये, सोच भरे मम नैन.
कोमल पग
तृण-चोटसे, आहत- मिली न चैन..
धूल धूसरित केश-मुख, दिवस ढले नीलाभ.
दर्शन की मन-कामना, जगा रहे अमिताभ..
ब्रम्हापूजित पगकमल, भूषण भू के भव्य.
असंतोष-आसक्ति हर, मनचाहा दें दिव्य..
मृदु-पग रखिए वक्ष पर, मिटे शोक-संताप.
अधर माधुरी हर्ष-रस, हमें पिलायें आप..
क्या हम हीन सुवेणु से?, हम पर दिया न ध्यान.
बिन अघाए धर अधर पर, उसे सुनाते गान..
वन जाते प्रियतम! लगे, हर पल कल्प समान.
कुंतल शोभित श्याम मुख, सुंदरता की खान..
सृष्टा ने क्यों सृष्टि में, रची मूर्ति मति-मंद.
देखें आनंदकंद को, कैसे नैना बंद..
अर्ध रात्रि दीदार को, आयी तज घर-द्वार.
'मन अर्पण कर' टेरता, वेणु गीत छलकार..
स्निग्ध दृष्टि, स्नेहिल हँसी, प्रेमिल चितवन शांत.
करूँ वरण की कामना, हर पल लक्ष्मीकांत..
रमानिवासित वक्ष तव, सुंदर और विशाल.
आये न क्यों?, कब आओगे??, ओ जसुदा के लाल!.
गहन लालसा मिलन की, प्रगटो हर लो कष्ट.
विरह रोग, सँग औषधी, पीड़ा कर दो नष्ट..
हम विरहिन चिंतित बहुत, कंकड़ चुभें न पाँव.
पग कोमल रख वक्ष पर, दूँ आँचल की छाँव..
विवेचन
गो इन्द्रिय, पी पान कर, गोपी इन्द्रियजीत.
कृष्ण परम आनंद हैं, जगसृष्टा सुपुनीत..
इन्द्रिय निग्रह प्रभु मिलन, पथ है गोपी गीत.
मोह-वासना त्यागकर, प्रभु पाओ मनमीत..
तजकर माया-मोह के, सब नश्वर सम्बन्ध.
मन कर लो एकाग्र हो, वंशी से अनुबंध..
प्रभु से चिर अनुराग बिन, व्यर्थ जन्म यह मान.
मनमोहन को मन बसा, हैं अमोल यह जान..
अमल भक्ति से मिट सकें, मन के सभी विकार.
विषधर कल्मष नष्ट कर, प्रभु करते उपकार..
लोभ मोह मद दूर कर, तज दें माया-द्वेष.
हरि पग-रज पाकर तरो, तारें हरि देवेश..
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Acharya Sanjiv verma 'Salil'
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1 टिप्पणी:
santosh kumar ✆ ekavita
आ० सलिल जी
अति सुन्दर भावार्थ लिखा है। जितनी तारीफ की जाए, कम है।
मैं आपके लेखन को शत-शत नमन करता हूँ।
सन्तोष कुमार सिंह
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