ग़ज़ल:
डॉ. महेश चन्द्र गुप्ता 'खलिश'
*
एक दिन चोला मेरा यूँ ही धरा रह जाएगा
नाम मेरा वक्त के सैलाब में बह जाएगा
और पत्थर मार लो दो चार मेरे दोस्तो
साँस बाकी है अभी कुछ दर्द दिल सह जाएगा
इस तरह देखो न रस्ते में पड़ी इस लाश को
ये महल जो है तुम्हारा एक दिन ढह जाएगा
न मेरा न ही तुम्हारा बच रहेगा कुछ वज़ूद
एक पत्थर का निशाँ सब दास्ताँ कह जाएगा
खून से सींचा ख़लिश, ये आँसुओं में है बुझा
आह का है तीर, काफ़ी दूर तक यह जाएगा.
*
मुक्तिका:
संजीव 'सलिल'
*
कहाँ से लाया था क्या?, क्या साथ तू गह जाएगा??
मिला जो भी है यहाँ, सब यहाँ ही रह जाएगा..
कहा अपना तुझे जिसने, जिसे तू अपना कहे.
मोह-माया का महल सच मान ले ढह जाएगा..
उजाले में दिखे दुनिया, अँधेरे में कुछ नहीं.
तिमिर में संग-साथ साया भी नहीं रह जाएगा..
फ़िक्र-चिंता छोड़ सारी, फकत इतना देख ले-
ढाई आखर की चदरिया, 'ठीक से तह जाएगा..
कोई धोता पैर, कोई चढ़ाता है ईश पर.
'सलिल' कब ठिठका कहीं?, सब तज तुरत बह जाएगा..
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