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बुधवार, 1 फ़रवरी 2012

कुछ दोहे श्रृंगार के ---संजीव 'सलिल'

कुछ दोहे श्रृंगार के
संजीव 'सलिल'
*
गाल गुलाबी हो गये, नयन शराबी लाल.
उर-धड़कन जतला रही, स्वामिन हुई निहाल..

पुलक कपोलों पर लिखे, प्रणय-कथाएँ कौन?
मति रति-उन्मुख कर रहा, रति-पति रहकर मौन..

बौरा बौरा फिर रहे, गौरा लें आनंद.
लुका-छिपी का खेल भी, बना मिलन का छंद..

मिलन-विरह की भेंट है, आज वाह कल आह.
माँग रहे वर प्रिय-प्रिया, दैव न देना डाह..

नपने बौने हो गये, नाप न पाये चाह.
नहीं सके विस्तार लख, ऊँचाई या थाह..
आधार चाहते भाल पर, रखें निशानी एक.
तम-मन सिहरे पुलककर, सिर काँधे पर टेक..

कंधे से कंधे मिलें, नयन-हृदय मिल साथ.
दूरी सही न जा सके, मिले अधर-पग-हाथ..

करतल पर मेंहदी रची, चेहरा हुआ गुलाल.
याद किया प्रिय को हुई, मदिर नशीली चाल..


माटी से माटी मिले, जीवन पाये अर्थ.
माटी माटी में मिले, जग-जीवन हो व्यर्थ..
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7 टिप्‍पणियां:

shar_j_n@yahoo.com ने कहा…

मुक्तक:
संजीव 'सलिल'
*
कभी न समय एक सा रहता, प्रकृति-चक्र इतना सच कहता.
हार न बाधाओं के आगे, 'सलिल' हमेशा बहता रहता..
अतुल न दुःख, यदि धैर्य अतुल हो, जय पाती मानव की कोशिश-
पग-पग बढ़ता जो वह इन्सां, अपनी मंजिल निश्चय गहता.. ---- सुन्दर बंद !
*
सिर्फ प्रेम में मत डूबा रह, पहले कर पुरुषार्थ.
बन किशोर से युवा जीत जग जैसे जीता पार्थ..
कदम-कदम बढ़, हर सीढ़ी चढ़, मंजिल चूमे पैर-
कर संदीपित सारे जग को, प्रेम बने परमार्थ.. --- अति सुन्दर!
*
सुनो सुजाता कौन सुखाता नाहक अपनी देह.
भरो कटोरा खीर खिलाओ, हो ना जाए विदेह..
पीपल तले बैठ करता है सकल सृष्टि की चिंता. ------ ये कितना कितना सुन्दर क्या कहूँ ! आप सच में आचार्य हैं! नमन! गौतम बुद्ध की याद आ गई!
आया-छाया है बसंत ले खुशियाँ निस्संदेह..
*
भावनाओं का उठा है ज्वार अब
एक हो गयी है जीत-हार अब
मिट गया है द्वेष ईर्ष्या जलन
शेष है अशेष सिर्फ प्यार अब ----- ये अद्भुत!!
*
नीरव हो न निकुंज चलो अब गायें हम
समस्याएँ हैं अनगिन कुछ सुलझायें हम.
बोधिसत्व आशा का दामन क्यों छोड़ें?
दीप बनें जल किंचित तिमिर मिटायें हम.. --- बहुत सुन्दर!
*
पूनम का मादक हो बसंत
राणा का हो बलिदानी सा.
खुशियों का ना हो कभी अंत
उत्साह अमित अरमानी सा.
हो गीत ग़ज़ल कुंडलियोंमय
मनहर बसंत लासानी सा.
भारत माता की लाज रखे
बनकर बसंत कुर्बानी सा. --- वाह!
**********
दोहा मुक्तिका ...

आस प्रिया है श्वास की, जीवन है मधु मास.
त्रास-हास सम भाव से, सहिये बनिए ख़ास..---सुन्दर!

रास न थामें और की, और न थामे रास.
करें नियंत्रण स्वयं पर, तभी रचाएं रास.. ----- सुन्दर!

shar_j_n@yahoo.com ने कहा…

कुछ दोहे श्रृंगार के
संजीव 'सलिल'
*
नपने बौने हो गये, नाप न पाये चाह.
नहीं सके विस्तार लख, ऊँचाई या थाह..------ वाह!

अधर चाहते भाल पर, रखें निशानी एक.
तम-मन सिहरे पुलककर, सिर काँधे पर टेक..----- :)

Kiran Sinha ✆ ks196343@yahoo.com ने कहा…

- ks196343@yahoo.com

Adarniye Sanjiv ji,
Aapke sundar dohe ne man moh liya. Badhai ho.

Sadar
Kiran

dks poet ✆ ekavita ने कहा…

dks poet ✆ ekavita

आदरणीय सलिल जी,
आपने बिहारी के दोहों की याद दिला दी
सादर

धर्मेन्द्र कुमार सिंह ‘सज्जन’

kusumsinha2000@yahoo.com ने कहा…

kusum sinha ✆ ekavita

priy salil ji
hamesha ki tarah bahut sundar dohe maa saraswati ne dono hatho se vardan diya hai aapko
kusum

sn Sharma ✆ ahutee@gmail.com ने कहा…

sn Sharma ✆ ahutee@gmail.com द्वारा yahoogroups.com ekavita

आ० आचार्य जी,
अति सुन्दर, विशेष-


मिलन-विरह की भेंट है, आज वाह कल आह.
माँग रहे वर प्रिय-प्रिया, दैव न देना डाह..

कमल

ksantosh_45@yahoo.co.in ने कहा…

santosh kumar ✆ द्वारा yahoogroups.com ekavita


आ० सलिल जी
सुन्दर, मनभावन और सार्थक दोहों के लिए आपको बधाई।
सन्तोष कुमार सिंह