कुल पेज दृश्य

बुधवार, 10 नवंबर 2021

रामरती कौशल

लेख
बाल सत्याग्रही रामरती कौशल
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*

            बहुत पुरानी बात है। रावण द्वारा सीताहरण के पश्चात् श्री राम सीता मुक्ति हेतु लंका पर चढ़ाई कर रहे थे। मार्ग में बाधक बने समुद्र पर सेतु निर्माण के लिए वानर सेना नल-नील के मार्गदर्शन में प्राण-प्रण से लगी हुई थी। तभी हनुमान जी की दृष्टि एक गिलहरी पर पड़ी जो बार-बार समुद्र में नहाती, किनारे आकर रेत पर लोटती और सेतु निर्माण में जुटे वानर दल के समीप पूँछ झटकारती। उन्हें गिलहरी के इस कृत्य का औचित्य समझ में नहीं आया, साथ ही चिंता भी हुई कि वह किसी वानर के पैरों तले दब न जाए। उन्होंने मना किया पर गिलहरी ने उनकी बात न मानी। तब वे उसे उठाकर श्री राम के निकट ले आए। श्री राम ने गिलहरी को हथेली में उठाकर उससे पूछ कि वह क्या और क्यों कर रही है? क्या उसे अपने प्राण जाने का भय नहीं है। गिलहरी ने हाथ (आगे वाले दोनों पैर) जोड़कर प्रभु को प्रणाम करते हुए कहा 'प्रभु! सीता मैया का हरण कर रावण उन्हें गगन पथ से ले गया। मैं उड़ नहीं सकती, इसलिए जमीन से देखती और रावण को कोसती रह गयी, कुछ न कर सकी। अब सीता मैया के उद्धार के लिए सेतु बनाया जा रहा है। मैं चाह कर भी विशाल शिलायें उठाकर नहीं ले जा सकती। अपनी सामर्थ्य के अनुसार सहयोग देने के लिए सागर के पानी में गीली होकर समुद्र की रेत अपने बदन पर लपेटकर, पत्थरों के साथ झाड़ देती हूँ। प्रभु मेरी इससे अधिक सामर्थ्य नहीं है। इस पुण्य कार्य में प्राण चले भी जाएँ तो जन्म सार्थक हो जाएगा।' 

            श्री राम ने गिलहरी की पीठ पर स्नेह पूर्वक हाथ फेरते हुए गिलहरी से कहा कि उसका योगदान नगण्य नहीं, बहुत महत्वपूर्ण है। उसकी पीठ पर त्रिलोक की प्रतीक तीन रेखाएँ होंगी और उसे सीता मैया और राम जी दोनों की कृपा प्राप्त होगी। कहते हैं पहले गिलहरी की पीठ पर रेखाएँ नहीं होती थीं किन्तु श्री राम के आशीर्वाद से इस घटना के बाद से गिलहरी की पीठ पर तीन रेखाएँ होती हैं।   

            इससे स्पष्ट है कि किसी देश का इतिहास केवल बड़े ही नहीं बनाते, निर्बल और बच्चे भी यथासमय यथाशक्ति योगदान कर देश के इतिहास को नया मोड़ दे सकते हैं अथवा किसी महायज्ञ में अपनी समिधा समर्पित कर उसे सफल बनाने में सहायक हो सकते हैं। कहावत है 'बूँद बूँद से घट भरे'।  

            विडंबना है कि इतिहास लिखते समय केवल बड़ों के योगदान का ही उल्लेख किया जाता है और बच्चों का अवदान बहुधा अनदेखा-अनलिखा रह जाता है। जॉन ऑफ़ आर्क (१४१२-३० मई १४३१) का नाम पूरी दुनिया में विख्यात है कि उसने मात्र १२ वर्ष की आयु से फ़्रांस से अंग्रेजों को खदेड़ने का सपना देखा और युद्ध हारती हुई सेना की बागडोर सम्हाल कर उसे विजय की राह पर ले गई। भारतीय स्वातंत्र्य समर में नाना साहेब की किशोरी बेटी मैना देवी के बलिदान की अमर गाथा भुलाई नहीं जा सकती। 

            महात्मा गाँधी जी के नेतृत्व में स्वतंत्रता सत्याग्रह के दौर में केवल बड़ों ने नहीं अपितु तरुणों, किशोरों और बच्चों ने भी महती भूमिका का निर्वहन किया था। वयस्क क्रांतिकारियों और सत्याग्रहियों के संघर्ष और बलिदान को याद करते समय  तरुणों और किशोरों के योगदान की चर्चा बहुत कम ही सही पर हो जाती है किन्तु गृहणियों और बच्चों के अवदान का कोई उल्लेख नहीं नहीं मिलता। स्वतंत्रता सत्याग्रह के इतिहास से जुडी एक बाल स्वंत्रता सत्याग्रही रामरती कौशल के अवदान को उद्घाटित करते हुए, कृतज्ञ देश की ओर से प्रनामांजलि अर्पित है।

            सनातन सलिला नर्मदा तट पर बसी संस्कारधानी जबलपुर को तब यह विशेषण मिलना तो दूर, जब स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए अहर्निश किये जा रहे उसके प्रयासों को भी यथोचित पहचाना नहीं गया था, उस समय का है यह प्रसंग। १८५७ के स्वातंत्र्य समर के दौरान अंग्रेजों ने नागपुर के भौंसलों के अधीन कार्यरत सागर के राजा के अंत पश्चात् परिवार की विधवाओं को जबलपुर स्थानांतरित कर शहर कोतवाली के पास  बसाया।  इससे एक तीर से दो निशाने साढ़े गए कि सागर में उनके साथ क्रन्तिकारी संपर्क न कर सकें और उन पर निगाह रखी जा सके।  

            राजा सागर के बाड़े के सामने ही था (अब भी भग्न रूप में है) सुन्दरलाल तहसीलदार का बाड़ा।  सुन्दरलाल जी पन्ना के राजा के विश्वस्त अधिकारी थे। पन्ना नरेश क्रांतिकारियों से गुप्त रूप से सहानुभूति रखते हुए भी प्रगट रूप से अंग्रेजों के साथ थे ताकि उनके राज्य की जनता सुरक्षित रहे। अंग्रेजों ने राजा सागर के परिवार की विधवाओं और बच्चों को अपनी कैद में लिया तो सभी रजवाड़ों को उनकी सुरक्षा की चिंता हुई। पन्ना नरेश ने अंग्रेजों की कुदृष्टि से राजा सागर परिवार को बचने के उद्देश्य से अपने विश्वस्त अधिकारी सुंदरलाल तहसीलदार को विशेष सहायक के रूप में जबलपुर भेजा कि वे राजा सागर परिवार पर निगाह रखेंगे जबकि उन्हें गुप्त रूप से राजा सागर परिवार की सुरक्षा और सहायता करनी थी। उन्हें भोंसला राजाओं की टकसाल (जहाँ सिक्के ढलते थे) के स्थान पर रहने के लिए जमीन दी गई। वे ज़ाहिर तौर पर अंग्रेजों के लिए काम करते और खुफिया तौर पर क्रांतिकारियों और राजा सागर परिवार के सहायक होते। इस भूमि पर सुंदरलाल जी के मकान के आसपास व्यक्तिगत विश्वसनीय सेवकों लुहार, बढ़ई, नाई, माली  आदि के लिए भी कमरे बनाये गए। बाड़े के मुख्य द्वार पर सुंदरलाल जी की बग्घी, घोड़े आदि का स्थान था। किले के द्वारों की तरह एक बड़ा लौह द्वार था। 
 
            कालांतर में १९३० के आसपास इस बाड़े के एक मकान में किरायेदार के रूप में रहने आए नन्हें भैया सोनी। वे सोने-चाँदी के जेवर बनानेवाले कारीगर थे, निकट ही सराफा बाजार (अब भी है) में व्यापारियों की दुकानों से काम मिलता और उनका परिवार पलता। नन्हें भैया के चार बच्चे हुए पहली दो पुत्रियाँ कृष्णा और रामरती तथा बाद में दो पुत्र मणिशंकर और गौरी शंकर।

            रामरती (१५.९.१९३५-२३.५.२००२) केवल सात वर्ष की थी, जब १९४२ का स्वतंत्रता सत्याग्रह आरंभ हुआ। माता-पिता की लाड़ली छोटी बिटिया रामरती दूसरी कक्षा की छात्रा थी। रामरती बाड़े के मैदान और दो शिवमंदिरों के समीप अन्य बच्चों के साथ चिड़ियों की तरह फुदकती-खेलती। बच्चे ऊँच-नीच का भेद नहीं जानते। मकान मालिक धर्मनारायण वर्मा वकील की बड़ी लड़की ऊषा, लड़का बीरु, और अन्य किरायेदारों के बच्चे टीपरेस, कन्ना गोटी, खर्रा, खोखो खेलते। उन्हें सबसे अधिक ख़राब लगते थे ज्वाला चच्चा (ज्वाला प्रसाद वर्मा, स्वतंत्रता सत्याग्रही जिन्हें १९३० में जबलपुर से गिरफ्तार कर दमोह जेल में कैद किया गया था) जो अपने कुछ साथियों के साथ आते। सबके सिरों पर सफ़ेद टोपी और सफेद ही कपड़े होते। वे आपस में अजीब अजीब बातें करते। आस-पास खेलते-खेलते रामरती को अंग्रेज, आजादी, सत्याग्रह, अत्याचार, तिरंगा आदि शब्द सुनाई दे जाते तो उसके मन में उत्सुकता जागती कि वे लोग किनके बारे में बातें करते हैं? ज्वाला चच्चा थैलों में बहुत से पर्चे और छोटी-छोटी किताबें लाते, अपने साथियों में में बाँट देते और सब साथी झटपट ऊपरैनगंज, सिमरियावाली रानी की कोठी, मौलाना की कुलिया  और अन्य गलियों में चले जाते। जब-तब पुलिस के सिपाही भी बाड़े में आते, बड़ों को डाँटते, छोटों को भगा देते। ज्वाला चच्चा की मित्र मंडली एक-दो सत्यों को बाड़े में घुसने के रास्तों पर निगरानी के लिए खड़ा रखते जो पुलिस की आहत पाते ही संकेत करता और पुलिस के आने के पहले ही वे सब दबे पाँव गलियों में गुम हो जाते, पुलिसवाले अपना सा मुँह लेकर खाली हाथों लौट जाते।

            एक दिन खेलते-खेलते बाड़े में बने पुराने कुएँ के निकट जा पहुँची रामरती। उसने देखा कुएँ की जगत पर एक नाम खुदा है, उसने पढ़ा 'ना न क चं द'। कौन था यह नानक चंद? घर आकर अपनी माँ से पूछा तो डाँट पड़ी कि फालतू बातों से दूर रहो। एक दिन वह पड़ोस के बच्चों के बाड़े के साथ बाड़े के बड़े दरवाजे के पास साथ सड़क पर खेल रही थी क्योंकि ज्वाला चच्चा अपने मित्रों के साथ शिव मंदिर के पीछे बातचीत कर रहे थे। आज साथी कम थे, निगरानी के लिए कोई न था। एकाएक रामरती की नजर सड़क की तरफ पड़ी तो उसे कुछ सिपाही आते दिखे, बाकी बच्चे तो खेल में मग्न थे पर रामरती को न जाने क्या सूझा, ज्वाला चच्चा से डाँट पड़ने का भय भूलकर वह मंदिर की ओर दौड़ पड़ी चिल्लाते हुए 'पुलिस पुलिस'। रोज डाँटकर भागने वाले ज्वाला चच्चा ने इशारे से पूछा कहाँ? रामरती ने मुख्या द्वार की और इशारा करते हुए बताया वहाँ। ज्वाला चच्चा ने एक भी पल गँवाए  बिना सत्याग्रहियों को संकेत किया और पलक झपकते वे सब वे बाड़े के पिछवाड़े से मुसलमानों की गली में कूद कर नौ दो ग्यारह हो गए। पुलिस के जवान जब तक बाड़े के अंदर घुसे, चिड़िया उड़ चुकी थी, उनके हाथ कुछ न लगा। आसपास के लोगों को धमकाते-गालियाँ बकते पूछताछ करते रहे पर किसी ने कुछ न बताया। खिसियानी बिल्ली खंबा नोचे, आखिरकार वापिस लौट गए पर जाते-जाते कह गए खबर तो पक्की मिली है कि वे लोग यहीं बैठक करते हैं। आज नहीं तो कल पकड़े जाएँगे। 

            उस दिन के बाद ज्वाला चच्चा और उनके साथी बच्चों को डाँटते नहीं थे। बच्चे खेलते रहते, वे लोग अपना काम करते रहते, कभी-कभी बच्चों के हाथ पर अधेला रख देते कि सेव-जलेबी खा लेना। रामरती उनके स्नेह की विशेष पात्र थी। एक दिन ज्वाला चच्चा पर्चों का थैला लिए आए लेकिन उनके कुछ साथ नहीं आए। वे परेशान थे कि उनके पर्चे कैसे सब साथियों तक पहुँचाए जाएँ? रामरती देखती थी ज्वाला चच्चा के साथ रहनेवाले कंछेदी चच्चा, जमुना कक्का, कल्लू कक्का (कल्लूलाल सोनी, १९३० तथा १९३२ में कारावास), कन्हैया दादा (कन्हैया लाल पंडा, १९४२ में कारावास)  नहीं थे। जमुना कक्का उसके पिता के भी मित्र थे, कई बार दोनों साथ-साथ काम करते थे। रामरती पिता के साथ जमुना कक्का के घर भी हो आई थी। उसने ज्वाला चच्चा से पूछ लिया 'जमुना कक्का नई आए?' चच्चा ने घूर कर देखा तो वह डर गई पर हिम्मत कर फिर कहा 'हमें उनको घर मालून आय, परचा पौंचा दें?' अब चच्चा ने उस की तरफ ध्यान दिया और पूछा 'डर ना लगहै?, कैसे जइहो? पुलिस बारे टाक में आँय।'

            'चच्चा तनकऊ फिकिर नें करो हम बस्ता में किताबों के बीच परचा छिपा लैहें और गौरी भैया कौन कैंया में लै लै, दे आहें। हमने बाबू (पिता) के संगै उनको घर देखो है।' चच्चा हिचकते रहे पर और कोई चारा न देख रामरती के बस्ते में पर्चे रख दिए। रामरती ने छोटे भाई गौरी को गोद में उठाया और नन्हे-नन्हें पग रखती, इधर-उधर देखती हुए सामने मुसलमानों के बाड़े में घुस गई। पीठ पर टंगे बस्ते में किताबों के बीच रखे पर्चे पहुँचाकर जब तक वह लौट न आई, तब तक ज्वाला चच्चा को चैन न था। चच्चा के साथी 'एक चवन्नी चाँदी की, जय बोलो महात्मा गाँधी की' बोलकर घर-घर से चवन्नी माँगते, झंडा ऊँचा रहे हमारा, चलो दिल्ली, जय हिन्द जैसे नारे लगाते। सुन-सुन कर यह नारा बच्चों को भी नारे याद हो गए। वे र बड़ों की नकल कर एक के पीछे एक चलकर जुलुस निकलते और नारे लगाते। पुलिस के सिपाही खिसियाकर पकड़ने दौड़ते तो बच्चे झट से घरों में जा छिपते। सत्याग्रहियों और बच्चों में यह तालमेल चलता रहा, पुलिस के सिपाही खिसियाते रहे। एक दिन एक सिपाही ने रामरती की पीठ पर धौल जमा दी, वह औंधे मुँह गिरी तो घुटना और माथा चोटिल हो गया। माँ ने पूछा तो उसने कहा कि एक सांड दौड़ा आ रहा था, उससे बचने के लिए दौड़ी तो गिर पड़ी। रामरती इस घटना के बाद भी पर्चे पहुँचाने, चंदा इकठ्ठा करने, पुलिस के सिपाहियों से  से सत्याग्रहियों को खबरदार करने जैसे काम करती रही।

            रामरती सातवीं कक्षा में थी जब सुना कि देश आज़ाद हो गया। खूब रौनक रही। रामरती 'पुअर बॉयस फंड' से वजीफा पाकर सेंट नॉर्बट स्कूल में पढ़ रही थी। उसके भाई मणि को उनके निस्संतान रेलवेकर्मी मामा नारायणदास अवध ने गोद ले लिया था। आठवीं कक्षा पासकर रामरती अपनी ननहाल राहतगढ़ (सागर) चली गई। मैट्रिक पास कर, ट्रेनिंग कर शिक्षिका हो गई और प्राइवेट पढ़ती भी रही। कांग्रेस सेवादल के कैंप में उसकी मुलाकात एक अन्य कार्यकर्ता श्यामलाल कौशल से हुई जो बेगमगंज का निवासी था। वह भोपाल रियासत के कोंग्रेसी नेता शंकर दयाल शर्मा (कालांतर में भोपाल के मुख्यमंत्री, राज्यपाल, उपराष्ट्रपति और राष्ट्रपति) का स्नेहपात्र था। वह प्राइवेट बस में कंडक्टरी और पढ़ाई साथ-साथ करता, शंकरदयाल जी के छोटे-मोठे काम और प्रचार आदि करता। कांग्रेस की गतिविधियों और बस से स्कूल जाते-आते समय उनकी मुलाकातें पहले आकर्षण और फिर प्रेम में बदल गई। दोनों ने विवाह करना चाहा तो दोनों के घरवालों ने जातिभेद के कारण विरोध किया। शंकरलाल की मेहनत और ईमानदारी के कारण वह शर्मा जी के घर के सदस्य की तरह हो गया था। शर्मा जी के आशीर्वाद से दोनों ने शादी कर ली। दोनों का जीवट और संघर्ष लाया। शंकर लाल डिप्लोमा पास कर बी. एच. ई. एल. भोपाल में सुपरवाइज़र हो गया। रामरती शासकीय शिक्षिका हो गई। दोनों के तीन बच्चे हुए। रामरती की कलात्मक अभिरुचि ने उसे सहकर्मी शिक्षिकाओं से अलग कुछ करने के लिए प्रेरित किया। वह बच्चों के पाठ्य क्रम पढ़ाने के अतिरिक्त स्वतंत्रता आंदोलन के बारे में बताती।  गणतंत्र दिवस व स्वाधीनता दिवस पर संस्कृति कार्यक्रम करवाती। उसके निर्देशन में बच्चे पुरस्कृत होते। उसे विद्यालय की और से राष्ट्रीय पर्वों पर झाँकियाँ बनाए का दायित्व मिला। पहले जिला स्तर, फिर राज्य स्तर पर पुरस्कृत होने के बाद उसके मार्गदर्शन में दिल्ली गणतंत्र दिवस परेड में भी उसने झाँकी में भाग लिया। रामरती पदोन्नत होकर प्राचार्य हो गई किन्तु उसने बच्चों को पढ़ाना, सांस्कृतिक गतिविधियों में भाग लेना बंद नहीं किया। वह विद्यालय परिसर में बच्चों से पौधे लगवाती। अन्य सरकारी विद्यालयों की तरह उसके विद्यालय में भी संस्धानों और धन का अभाव होता पर वह अपने वेतन का एक अंश देकर कभी किसी बच्चे को किताबें देती, कभी किसी अन्य को पोशाक। 

            रामरती जब भी अवसर मिलता जबलपुर आती और सुंदरलाल तहसीलदार के बाड़े में रुकती। परिवार का साथ तो विवाह के समय ही छूट गया था। पिता फिर माँ चल बसी थीं, भाईयों के विवाह हो चुके थे। उनसे स्नेह न मिलता तो वह दुखी होती पर बचपन की यादों को समेटते हुए, मन ही मन खुश भी होती। दम्मू चच्चा (धर्मनारायण वर्मा वकील, ज्वाला प्रसाद जी के अग्रज) का घर उसका ठिकाना होता। समय बदलता गया, उसकी सहेलियों दम्मू चच्चा की बेटियों के विवाह हो गए, बहुओं को ऐसे मुँहबोले रिश्तों को निभाने में रूचि न थी। कहते हैं कि ईश्वर एक रास्ता बंद करता है तो दूसरा खोल देता है। रज्जू चच्चा (ज्वालाप्रसाद जी के छोटे भाई राजबहादुर वर्मा, जेल अधीक्षक) का परिवार बच्चों को पढ़ाने के लिए अपने  बाड़े में अपने मकान में आ बसा। रामरती को रज्जू चच्चा, चाची से अगाध स्नेह-प्रेम मिला। रामरती (रत्ती जिज्जी) से राखी बँधवाने का सौभाग्य मुझे कई वर्षों मिला। वह जीवन के अंतिम वर्षों तक भी अपने बचपन की यादों को सहेजने-दुलराने जबलपुर आती, बाड़े में शिव मंदिर के आसपास उनकी अनेक यादें बसीं थीं। सुधियों की सौगात उन्हें जबलपुर में ही मिलती।    

            श्यामलाल शंकरलाल, शर्मा जी के साथ स्वतंत्रता आंदोलन में कारावास भी जा चुका था। स्वतंत्रता सत्याग्रहियों को सम्मान और लाभ मिलने के अनेक अवसर आए पर दोनों ने इंकार कर दिया कि उन्होंने जो भी किया, देश के लिए किया, यह उनका कर्तव्य था और उन्हें इसके बदले कोई सम्मान या लाभ स्वीकार नहीं है। एक ओर सुविधाओं की लालच में लोग स्वतंत्रता सत्याग्रही होने के झूठे दावे कर रहे थे, दूसरी यह सच्चा सत्याग्रही दंपत्ति किसी लाभ को लेने से इंकार कर जीवन में संघर्ष कर रहा था। इस कारण दोनों का सम्मान बढ़ा। शंकर दयाल शर्मा जी का राजनैतिक कद बढ़ता गया, श्यामलाल और रामरती उनके पारिवारिक सदस्यों की तरह थे किन्तु कभी किसी तरह का लाभ नहीं चाहा। 

            दोनों के बच्चों के विवाह में शर्मा जी उपराष्ट्रपति और राष्ट्रपति होते हुए भी बच्चों को आशीर्वाद देने आए। रामरती ने अपने बच्चों के अंतर्जातीय विवाह बिना किसी लेन-देन के किए। रामरती का बड़ा लड़का विजय वायुसेना में ग्रुपकैप्टन पद से सेवानिवृत्त होकर अहमदाबाद में है। छोटा लड़का विनय दिल्ली में उद्योगपति है और लड़की वंदना अपनी ससुराल में कोलकाता है। बच्चों ने अपने माता-पिता से मिली विरासत के अनुसार खुद को अपने पैरों पर खड़ा किया और परिश्रम तथा ईमानदारी के साथ अपना जीवन यापन किया। श्यामलाल के निधनोपरांत रामरती ने उनकी स्मृति में एक शिव मंदिर का निर्माण भोपाल में कराया। रामरती निस्वार्थ, समर्पित, कर्मठ और देश प्रेम से लबरेज बच्चों ने देश की स्वतंत्रता प्राप्ति में और स्वतंत्र होने पर देश के नव निर्माण में खुद को खपा दिया पर बदले में कुछ न चाहा। 

            शहीद अशफ़ाक़ुल्ला खां ने लिखा था - 
                                          शहीदों की मजारों पर भरेंगे हर बरस मेले। 
                                           वतन पर मरनेवालों का यही बाकी निशां होगा।।
            विधि की विडंबना कि आज हालत सर्वथा विपरीत है। 
                                            एक वो भी थे जो मुल्क पर कुर्बान हो गए। 
                                            एक हम भी हैं कि उनका नाम तक नहीं लेते।।  

***
संपर्क - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर, ४८२००१ 
ईमेल salil.sanjiv@gmail.com, चलभाष ९४२५१८३२४४  

कोई टिप्पणी नहीं: