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रविवार, 21 नवंबर 2021

घनाक्षरी

घनाक्षरी
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आठ-आठ-आठ-सात, पर यति रखकर, मनहर घनाक्षरी, छंद कवि रचिए।
लघु-गुरु रखकर, चरण के आखिर में, 'सलिल'-प्रवाह-गति, वेग भी परखिए।।
अश्व-पदचाप सम, मेघ-जलधार सम, गति अवरोध न हो, यह भी निरखिए।
करतल ध्वनि कर, प्रमुदित श्रोतागण- 'एक बार और' कहें, सुनिए-हरषिए।।
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घन अक्षरी गाइये, डूबकर सुनाइए, त्रुटि नहीं छिपाइये, सीखिये-सिखाइए।
शिल्प-नियम सीखिए, कथ्य समझ रीझिए, भाव भरे शब्द चुन, लय भी बनाइए।।
बिंब नव सजाइये, प्रतीक भी लगाइये, अलंकार कुछ नये, प्रेम से सजाइए।।
वचन-लिंग, क्रिया रूप, दोष न हों देखकर, आप गुनगुनाइए, वाह-वाह पाइए।।
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फूँकता कवित्त प्राण, डाल मुरदों में जान, दीप बाल अंधकार, ज़िंदगी का हरता।
नर्मदा निनाद सुनो,सच की ही राह चुनो, जीतता सुधीर धर, धीर पीर सहता।।
'सलिल'-प्रवाह पैठ, आगे बढ़ नहीं बैठ, सागर है दूर पूर, दूरी हो निकटता।
आना-जाना खाली हाथ, कौन कभी देता साथ, हो अनाथ भी सनाथ, प्रभु दे निकटता।।
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लक्ष्य जो भी वरना हो, धाम जहाँ चलना हो, काम जो भी करना हो, झटपट करिए।
तोड़ना नियम नहीं, छोड़ना शरम नहीं, मोड़ना धरम नहीं, सच पर चलिए।।
आम आदमी हैं आप, सोच मत चुप रहें, खास बन आगे बढ़, देशभक्त बनिए।।
गलत जो होता दिखे, उसका विरोध करें, 'सलिल' न आँख मूँद, चुपचाप सहिये।।
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न चाहतें, न राहतें, न फैसले, न फासले, दर्द-हर्ष मिल सहें, साथ-साथ हाथ हों।
न मित्रता, न शत्रुता, न वायदे, न कायदे, कर्म-धर्म नित करें, उठे हुए माथ हों।।
न दायरे, न दूरियाँ, रहें न मजबूरियाँ, फूल-शूल, धूप-छाँव, नेह नर्मदा बनें।।
गिर-उठें, बढ़े चलें, काल से विहँस लड़ें, दंभ-द्वेष-छल मिटें, कोशिशें कथा बुनें।।
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संकट में लाज थी, गिरी सिर पे गाज थी, शत्रु-दृष्टि बाज थी, नैया कैसे पार हो?
करनावती महारानी, पूजतीं माता भवानी, शत्रु है बली बहुत, देश की न हार हो।।
राखी हुमायूँ को भेजी, बादशाह ने सहेजी, बहिन की पत राखी, नेह का करार हो।
शत्रु को खदेड़ दिया, बहिना को मान दिया, नेह का जलाया दिया, भेंट स्वीकार हो।।
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महाबली बलि को था, गर्व हुआ संपदा का, तीन लोक में नहीं है, मुझ सा कोई धनी।
मनमानी करूँ भी तो, रोक सकता न कोई, हूँ सुरेश से अधिक, शक्तिवान औ' गुनी।।
महायज्ञ कर दिया, कीर्ति यश बल लिया, हरि को दे तीन पग, धरा मौन था गुनी।
सभी कुछ छिन गया, मुख न मलिन हुआ, हरि की शरण गया, सेवा व्रत ले धुनी।।
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बाधा दनु-गुरु बने, विपद मेघ थे घने, एक नेत्र गँवा भगे, थी व्यथा अनसुनी।
रक्षा सूत्र बाँधे बलि, हरि से अभय मिली, हृदय की कली खिली, पटकथा यूँ बनी।।
विप्र जब द्वार आये, राखी बाँध मान पाये, शुभाशीष बरसाये, फिर न हो ठनाठनी।
कोई किसी से न लड़े, हाथ रहें मिले-जुड़े,साथ-साथ हों खड़े, राखी मने सावनी।।
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सच बात जाने बिना, अफ़वाहे सच मान, धमकी जो दे रहे हैं, नादां राजपूत हैं.
सत्य के न न्याय के वे, साथ खड़े हो रहे हैं, मनमानी चाहते हैं, दहशत-दूत हैं.
जातिवादी सोच हावी, जाने कैसी होगी भावी, राजनीति के खिलौने, दंभी भी अकूत हैं.
संविधान भूल रहे, अपनों को हूल रहे, सत्पथ भूल रहे, शांति रहे लूट हैं.
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हिंदी मैया का जैकारा, गुंजा दें सारे विश्वों, देवों, यक्षों-रक्षों में, वे भी आ हिंदी बोलें.
हिंदी मैया दिव्या भव्या, श्रव्या-नव्या दूजी कोई, भाषा ऐसी ना थी, ना है, ना होगी हिंदी बोलें.
हिंदी मैया गैया रेवा, भू माताएँ पाँचों पूजे, दूरी मेटें आओ भेंटें, एका हो हिंदी बोलें.
हिंदी है छंदों से नाता, हिंदी गीतों की उद्गाता, ऊषा-संध्या चंदा-तारे, सीखें रे हिंदी बोलें.
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मेरा पूरा परिचय, केवल इतना बेटा, हिंदी माता का हूं गाता, हिंदी गीत हमेशा.
चारण हूं अक्षर का, सेवक शब्द-शब्द का, दास विनम्र छंद का, पाली प्रीत हमेशा.
नेह नरमदा नहा, गही कविता की छैया, रस गंगा जल पीता, जीता रीत हमेशा.
भाव प्रतीक बिंब हैं, साथी-सखा अनगिने, पाठक-श्रोता बांधव, पाले नीत हमेशा.
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