लघुकथा
नैवेद्य
*
- प्रभु! मैं तुम सबका सेवक हूँ। तुम सब मेरे आराध्य हो। मुझे आलीशान महल दो। ऊँचा वेतन, निशुल्क भोजन, भत्ते, गाड़ी, मुफ्त इलाज का व्यवस्था कर दो ताकि तुम्हारी सेवा-पूजा कर सकूँ। बच्चे ने प्रार्थना की।
= प्रभु की पूजा तो उनको सुमिरन से होती है। इन सुविधाओं की क्या जरूरत है?
- जरूरत है, प्रभु त्रिलोक के स्वामी हैं। उन्हें छप्पन भोग अर्पण तभी कर सकूँगा जब यह सब होगा।
= प्रभु भोग नहीं भाव के भूखे होते हैं।
- फिर भाव अर्पित करनेवालों को अभाव में क्यों रखते हैं?
= वह तो उनकी करनी का फल है।
- इसीलिये तो, प्रभु से माँगना गलत कैसे हो सकता है? फिर जो माँगा उन्हीं के लिए
= लेकिन यह गलत है। ऐसा कोई नहीं करता ।
- क्यों नहीं करता? किसान का कर्जा उतारने के लिए एक दल से दूसरे दल में जाकर सरकार बनाने की जनसेवा हो सकती है तो प्रभु से माँगकर प्रभु की जन सेवा क्यों नहीं हो सकती?
मंदिर में दो बच्चों की वार्ता सुनकर स्तब्ध थे प्रभु लेकिन पुजारी प्रभु को दिखाकर ग्रहण कर रहा था नैवेद्य।
***
संजीव
७९९९५५९६१८
२६-११-२०१९
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें