कुल पेज दृश्य

शुक्रवार, 19 नवंबर 2021

नवगीत,

नवगीत:
ओ मेरी तुम!
*
ओ मेरी तुम!
बीतते ही नहीं हैं
ये प्रतीक्षा के पल
हरसिँगारी छवि तुम्हारी
प्रात किरणों ने सँवारी
भुवन भास्कर का दरस कर
उषा पर छाई खुमारी
मुँडेरे से झाँकते, छवि आँकते
ओ मेरी तुम!
रीतते ही नहीं है
ये प्रतीक्षा के पल
*
अमलतासी मुस्कराहट
प्रभाती सी चहचहाहट
बजे कुण्डी घटियों सी
करे पछुआ सनसनाहट
नत नयन कुछ माँगते, अनुरागते
ओ मेरी तुम!
जीतते ही नहीं हैं
ये प्रतीक्षा के पल
*
शंखध्वनिमय प्रार्थनाएँ
शुभ मनाती वन्दनाएँ
ऋचा सी मनुहार गुंजित
सफल होती साधनाएँ
पलाशों से दहकते, चुप-चहकते
ओ मेरी तुम!
सीतते ही नहीं हैं
ये प्रतीक्षा के पल
***

नवगीत:
जितने चढ़े
उतरते उतने
कौन बताये
कब, क्यों कितने?
ये समीप वे बहुत दूर से
कुछ हैं गम, कुछ लगे नूर से
चुप आँसू, मुस्कान निहारो
कुछ दूरी से, कुछ शऊर से
नज़र एकटक
पाये न टिकने
सारी दुनिया सिर्फ मुसाफिर
किसको कहिये यहाँ महाज़िर
छीन-झपट, कुछ उठा-पटक है
कुछ आते-जाते हैं फिर-फिर
हैं खुरदुरे हाथ
कुछ चिकने
चिंता-चर्चा-देश-धरम की
सोच न किंचित आप-करम की
दिशा दिखाते सब दुनिया को
बर्थ तभी जब जेब गरम की
लो खरीद सब
आया बिकने
***

कोई टिप्पणी नहीं: