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सोमवार, 22 नवंबर 2021

केनोपनिषद यथावत काव्यानुवाद-टीका

ॐ     
केनोपनिषद यथावत काव्यानुवाद-टीका
*
केनोपनिषद तलवगार ब्राह्मण के अंतर्गत उपनिषद है। इसमें 'केन' (किसके द्वारा) का विवेचन होने से इसे 'केनोपनिषद' कहा गया है। इसके चार खण्ड हैं। प्रथम और द्वितीय खण्ड में गुरु-शिष्य की संवाद- परंपरा द्वारा उस (केन) प्रेरक सत्ता की विशेषताओं, उसकी गूढ़ अनुभूतियों आदि पर प्रकाश डाला गया है। तीसरे और चौथे खण्ड में देवताओं में अभिमान तथा उसके मान-मर्दन के लिए 'यज्ञ-रूप' में ब्राह्मी-चेतना के प्रकट होने का उपाख्यान है। अन्त में उमा देवी द्वारा प्रकट होकर देवों के लिए 'ब्रह्मतत्व' का उल्लेख किया गया है तथा ब्रह्म की उपासना का ढंग समझाया गया है। गुरु-शिष्य परंपरान्तर्गत प्रश्नोत्तर शैली में रचित यह उपनिषद गहन परमतत्व (परब्रह्म) का ज्ञान सहजता से कराता है। इसका वैशिष्ट्य तत्व विवेचन की सहज-सरल बोधगम्य शैली है। मनुष्य को 'श्रेय' मार्ग की ओर प्रेरित करना, इस उपनिषद का लक्ष्य हैं।
खंड १
शांतिपाठ
ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि वाक् प्राणश्चक्षुः श्रोत्रमथो बलमिन्द्रियाणी च सर्वाणि।
सर्वं ब्रह्मौपनिषदं माहं ब्रह्म निराकुर्यां मा मा ब्रह्म निराकरोदनिराकरणमस्तव निराकरणं मेsस्तु।
तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्ते मयि संतु, ते मयि संतु। ॐ शांति: शांति: शांति:।।
दोहा
ॐ पुष्ट मम अंग हों सभी। वाक् प्राण दृग कर्णेन्द्रिय भी।।
सर्व ब्रह्म उपनिषद बताते, मैं न नकारूँ; ईश न त्यागे।।

हो संबंध अटूट हमेशा। मेरा उसका कभी न टूटे।।
उपनिषदों में कहे धर्म सब। जिनमें वह; वे सब मुझे हों।।

ॐ शांति हो, शांति हो, शांति हो।। 

ॐ केनेषितं पतति प्रेषितं मन: केन प्राण: प्रथम: प्रैति युक्त:।।
केनेषितां वाचमिमां वदन्ति चक्षुः श्रोत्रं क उ देवो युनक्ति।।१।।

ॐ किसके चाहे पतित मन। किसके कहे प्राण करता कुछ।।
किसके चाहे वाक् कहे कुछ। दृग-श्रुति देख-सुने, वह को है।।१।।

ॐ किसकी इच्छा से मन विषयों में लीन होकर; पतित होता है? किसके द्वारा नियुक्त किए जाने पर प्राण अपना कार्य करता है? किसकी इच्छा होने पर वाक्शक्ति कुछ बोलती है? वह कौन हैः जिसके कहने पर आँख कुछ देखती है या कान कुछ सुनते हैं?।।१।।
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श्रोत्रस्य श्रोत्रं मनसो मनो यद्वाचो ह वाचं स उ प्राणस्य प्राण:।
चक्षुषश्चक्षुरतिम्युच्य धीरा: प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवंति।।२।।

जो कानों का कान है वही। मन का मन; वाणी की वाणी।
प्राण प्राण का; आँख आँख की। धीर तजें निज बुद्धि; हों अमर।।२।।

जो कानों का भी कान है और जो मन का भी मन है, और जो वाणी की वाणी भी है। वही प्राण का प्राण और आँखों की ऑंखें है। (उसी की शक्ति और प्रेरणा से सब इन्द्रियाँ कार्य करती हैं।) इसलिए धैर्यवान स्वबुद्धि का त्याग कर इस लोक से जाकर अमर हो जाते हैं।।२।।
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न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग्गच्छति नो मनो नो विद्यो न विजानीमो
यथैतदनुशिष्यादन्यदेव तद्विदितादथो अविदितादधि।
इति शुश्रुम पूर्वेषां ये नस्तद्वयाचचक्षिरे।।३।।

नहीं ब्रह्म तक नेत्र वाक् मन जाते; हम न जानते उसको।।
कैसे कहें शिष्य से उसको, भिन्न ज्ञात-अज्ञात सभी से।।
ऐसा सुना पूर्व पुरुषों से, जिनने हमें ब्रह्म बतलाया।।३।।

उस ब्रह्म तक आँखें, बोली या मन नहीं पहुँच पाते (ये इन्द्रियाँ ब्रह्म को जानने के लिए उपयुक्त नहीं हैं)। इसलिए हम उसे नहीं जान पाते। हम नहीं जानते कि ब्रह्म के विषय में शिष्यों को किस तरह बताया जाए? जो कुछ हम जानते हैं या जो कुछ हम नहीं जानते हैं, ब्रह्म उस सबसे भिन्न है। ऐसा हमने उन पूर्वपुरुषों (गुरुओं) से सुना है जिन्होंने हमें ब्रह्म के विषय में समझाया।।३।।
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यद्वाचानभ्युदितं येन वागभ्युद्यते।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते।।४।।

वह न वाक् से कहा जा सके, वाक् हुई अभिव्यक्त उसी से।
उसी ब्रह्म को तुम समझो अब, हुआ उपासित जो न ब्रह्म है।।४।।

वाणी उस ब्रह्म को अभिव्यक्त नहीं कर सकती, उसकी सामर्थ्य से वाणी स्वयं अभियक्त होती है। तुम उसी ब्रह्म को समझो। जो उपासित होता है (जिसकी उपासना की जाती है) वह ब्रह्म नहीं है।।४।।
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यन्मनसा न मनुते येनाss हुर्मनो मतम्।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते।।५।।

जिसका मन से ज्ञान न होता, जिससे मन जाना; कहते हैं।
उसी ब्रह्म को तुम समझो अब, हुआ उपासित जो न ब्रह्म है।।५।।

मन के द्वारा जिसे नहीं जाना जा सकता, जिससे मन का ज्ञान होता है; तुम उस ब्रह्म को समझो। जो उपासित होता है (जिसकी उपासना की जाती है) वह ब्रह्म नहीं है।।५।।
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यच्चक्षुषा न पश्यति येन चक्षूंषि पश्यति।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते।।६।।

देख न पातीं आँखें जिसको, जो आँखों को देखा करता।
उसी ब्रह्म को तुम समझो अब, हुआ उपासित जो न ब्रह्म है।।६।।

चर्म चक्षुओं से जिसे देखा नहीं जा सकता, जो चक्षुओं की वृत्तियों को देखता है, तुम उसे ही ब्रह्म समझो। जो उपासित होता है (जिसकी उपासना की जाती है) वह ब्रह्म नहीं है।।६।।
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यच्छ्रोत्रेण न श्रृणोति येन श्रोतमिदं श्रुतम्।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते।।७।।

कान न जिसको सुन सकते हैं, जिससे कान सुने जाते हैं।
उसी ब्रह्म को तुम समझो अब, हुआ उपासित जो न ब्रह्म है।।७।।

जिसे कानों के द्वारा कभी नहीं सुना जा सकता, जो स्वयं कानों को सुनाता है, तुम उसे ही ब्रह्म समझो। जो उपासित होता है (जिसकी उपासना की जाती है) वह ब्रह्म नहीं है।।७।।
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यत्प्राणेन न प्राणिति येन प्राण: प्रणीयते।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते।।८।।

जो न वायु से जीवन पाता, जिससे वायु प्रवृत्त होती है।
उसी ब्रह्म को तुम समझो अब, हुआ उपासित जो न ब्रह्म है।।८।।

जो प्राणवायु के द्वारा जीवन नहीं पाता, जिसके द्वारा प्राणवायु प्रवृत्त होती है, तुम उसे ही ब्रह्म समझो। जो उपासित होता है (जिसकी उपासना की जाती है) वह ब्रह्म नहीं है।।८।।
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खंड २  
यदि मन्यसे सुवेदेति दहरमेवापि नूनं त्वं वेत्थ ब्रह्मणो रूपम्।
यदस्य त्वं यदस्य देवेष्वथ नु मीमांस्यमेव ते मन्ये विदितम्।।१।।

समझ रहे तुम जान गए हो, ब्रह्म रूप; थोड़ा; न ब्रह्म है।
ब्रह्मरूपवत देव जानते, अल्प; विचारो; ज्ञात हो गया।।१।।

यदि (तुम) समझते हो कि मैं (ब्रह्म को) अच्छे से जानता हूँ तो निश्चय ही तुम जो जानते ही वह बहुत थोड़ा होगा, निश्चय ही ब्रह्म नहीं होगा। इस ब्रह्म के जिस रूप को तुम देवताओं में देखते हो वह भी थोड़ा ही है। इसलिए तुम ब्रह्म का विचार करो। तब शिष्य ने कहा मैं समझता हूँ कि मुझे ज्ञात हो गया।।१।।
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नाहं मन्ये सुवेदेति नो न वेदेति वेद च।
यो नस्तद्वेद तद्वेद नो न वेदेति वेद च।।२।।

जान गया; मैं नहीं मानता, नहीं जानता; सही नहीं है।
जो न जानता; जान रहा यह, वही ब्रह्म को जान रहा है।।२।।

शिष्य बोला- मैं ब्रह्म को भली-भाँति जानता हूँ; ऐसा नहीं है और ब्रह्म को बिलकुल भी नहीं जानता हूँ;ऐसा भी नहीं है। जो कि ब्रह्म को न तो जानता है; न नहीं जानता है; वही ब्रह्म को जानता है।।२।।
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यस्यामतं तस्य मतं यस्य न वेद स:।
अविज्ञातं विजानतां विज्ञातमविजानताम्।।३।।

जिसे ज्ञात; वह नहीं जानता, जो न जानता जान रहा है।
है अज्ञात; समझता है जो, नहीं ज्ञान का विषय; जानता।।३।।

जो ब्रह्मवेत्ता ब्रह्म को ज्ञान का विषय नहीं मानता; उसने ब्रह्म को जान लिया है। जिसके अनुसार वह ब्रह्म को जानता है वास्तव में वही ब्रह्म को नहीं जानता है। जो ब्रह्म को को किसी के ज्ञान का विषय नहीं समझता; वही ब्रह्म को जानता है।।३।।
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प्रतिबोधविदितं मतममृतत्वं हि विंदते।
आत्मना विन्दते वीर्यं विद्यया विन्दतेsमृतम्।।४।।

ज्ञान वही हो सुबोध जिसका, जिससे ज्ञानामृत मिल जाए।
आत्मज्ञान हो जाए जिससे, अमिय रूप निज प्राप्त कर सके।।४।।

वस्तुत:, वही ज्ञान ज्ञान है जिसका बोध हो गया हो। उसी से साधक अपने अमृत स्वरूप को पा सकता है। उस ज्ञान को पाने की सामर्थ्य ही निज रूप का ज्ञान कराता है जिससे साधक अपने अमृतमय रूप को जान लेता है।।४।।
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इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति न चेदिहावेदीन्महती विनष्टि:।
भूतेषु भूतेषु विचित्य धीरा: प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवंति।।५।।

जानें खुद को तो न नाश हो, जान न पाएँ तो विनाश हो।
सबमें ब्रह्म धीरजन देखें, लौट लोक से अमर हो सकें।।५।।

मनुष्य इसी जन्म में अपने अमृत स्वरूप को जान ले तो नाश नहीं होता; यदि न जान पाए तो विनाश हो जाता है। धैर्यवान (बुद्धिमान) सब पदार्थों में उसी ब्रह्म का साक्षात्कार कर; संसार (भव सागर) से जाने पर अमर हो जाते हैं।।५।।
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खंड ३   उपनिषद वार्ता ४, केनोपनिषद  

ब्रह्म ह देवेभ्यो विजिग्ये तस्य ह ब्रह्मणो विजये देवा अमहीयन्त।
त ऐक्षंतास्माकमेवायं विजयोsस्माकमेवायं महिमेत।।१।।

ब्रह्मा ने असुरों को जीता, गए सारे देवता पूजे।
सोचें देव- जयी हम ही हैं, महिमा है अपनी ही सारी।।१।।

ब्रह्म ने (देवासुर संग्राम में, सृष्टि की रक्षा के लिए) असुरों को जीत लिया। (ब्रह्म अदृष्ट होने के कारण) देवता ने संसार में पूजे गए। देवताओं ने विचार कि यह विजय और महिमा हमारी ही है।।१।।
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तद्धेषां विजज्ञौ तेभ्यो ह प्रादुर्बभूव तन्न व्यजानत किमिदं यक्षमिति।।२।।

कहा गया तब ब्रह्मा ने था, जान लिया घमंड देवों का।
गर्व-हरण हित सम्मुख प्रगटा, देव न जान सके थे उसको।।२।।

कहा जाता है कि देवताओं के मिथ्या अहंकार को जान लेने पर उसे दूर करने के लिए ब्रह्म देवताओं के सम्मुख प्रगट हुए किन्तु देवता नहीं जान सके कि कौन प्रगट हुआ हैं?।।२।।
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तेsग्निमब्रुवंजातवेद एतद्विजानीहि किमेतद्यक्षमिति तथेति।।३।।

उन देवों ने कहा अग्नि से, हे अग्ने! यह यक्ष कौन है?
पता लगाओ सत्य बात का, कहा अग्नि ने 'हो ऐसा ही'।।३।।

उन देवताओं ने अग्नि से कहा'हे अग्नि! यह यक्ष कौन है? इसका पता लगाओ, तब अग्नि ने कहा ऐसा ही होगा।।३।।
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तदभ्यद्रवत् तदभ्यवदत् कोsसीत्यग्निर्वा अहस्मीत्यब्रवीज्जातवेदा वा अहस्मीति।।४।।

दौड़ यक्ष तक गया अग्नि तब, कौन? अग्नि से उसने पूछा।
कहा अग्नि ने - नाम अग्नि है, ख्यात जातवेदा हूँ मैं ही।।४।।

अग्नि शीघ्रता से उस यक्ष के समीप गया तो यक्ष ने अग्नि से पूछा - तुम कौन हो? अग्नि ने कहा - मैं अग्नि हूँ, मैं जातवेदा नाम से भी प्रसिद्ध हूँ।।५।।
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तस्मिंस्त्वयि किं वीरमित्यपीदंसर्वं दहेयं यदिदं पृथिव्यामिति।।५।।

कहा यक्ष ने - है प्रसिद्ध क्यों, अग्नि जातवेदा? क्या तुममें?
कहा अग्नि ने - पृथ्वी पर है, जो कुछ उसे जला मैं सकता।।५।।

यक्ष ने अग्नि से पूछा अग्नि और जातवेदा नाम से प्रसिद्ध तुम्हारे अंदर क्या सामर्थ्य है? अग्नि ने उत्तर दिया - पृथ्वी पर जी कुछ भी दिखाई देता है, मैं उसे जला सकता हूँ।।५।।
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तस्मै तृणं निदधावेतद्दहेति तदुपप्रेयाय सर्वजवेन तन्न शशाक दग्धुं स तत एव निववृते नैतदशकं विज्ञातुं यदेतद्यक्ष मिति।।६।।

तृण रख बोला यक्ष - जलाओ, अग्नि वेग से जला न पाया।
लौट देवताओं से बोला, जान यक्ष को नहीं सका मैं।।६।।

तब उस दिव्य यक्ष ने अग्नि के समक्ष एक तिनके को रखकर कहा - इसे जलाओ। अग्नि उस तिनके के पास पूरे वेग से गया पर उसे जलाने में समर्थ न हो सका। उसने लौटकर देवताओं से कहा जो यह यक्ष है; इसे जान नहीं सका।।६।।
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अथ वायुमब्रुवन्वायवे तद्विजानीहि किमेतद्यक्षमिति तथेति।।७।।

तब देवों ने कहा वायु से, वायुदेव! यह पता लगाओ।
कौन यक्ष यह? कहा वायु ने, जाता हूँ मैं, ऐसा ही हो।।७।।

तब देवताओं ने वायुदेव से कहा - हे वायु! यह यक्ष जो दिख रहा है, कौन है? पता लगाओ। तब वायु ने कहा - ऐसा ही होगा।।७।।
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तदभ्यद्रवत्तमभ्यवदत्कोsसीति। वायुर्वा अहमस्मीत्यब्रवीन्मातरिश्वा वा अहमस्मीति।।८।।

गया यक्ष के निकट शीघ्र जब, वायु; यक्ष ने पूछा कौन?
कहा वायु ने - वायु नाम है, हूँ मैं प्रसिद्ध मातरिश्वा भी।।८।।

जब वायु द्रुत गति से उस यक्ष के समीप पहुँचा तो यक्ष ने पूछा - तुम कौन हो? तब वायु ने कहा - मैं वायु हूँ, मैं मातरिश्वा नाम से भी प्रसिद्ध हूँ ।।८।।
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तस्मिंस्त्वयि किं वीर्यमित्यपीदंसर्वमाददीय यदिदं पृथिव्यामिति।।९।।

कहा यक्ष ने - हो प्रसिद्ध तुम, वायु मातरिश्वा क्या शक्ति?
कहा वायु ने - उड़ा सकूँ मैं, जो कुछ भी इस पृथ्वी पर है।।९।।

यक्ष ने वायु से पूछा - हे प्रसिद्ध वायु और मातरिश्वा! तुम्हरे अंदर क्या शक्ति है? वायु बोला - मैं पृथ्वी पर जो कुछ भी है, उस सब को उड़ा सकता हूँ।।९।।
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तस्मै तृणं निदधावेतदादत्स्वेति तदुपप्रेयाय सर्वजवेन तन्न शशाकाssदातुं स तत एव निववृते, नैतदशकं विज्ञातुं यतेतद्यक्षमिति।।१०।।

तृण रख बोला यक्ष - उड़ाओ, वायु निकट जा उड़ा न पाया।
लौट कहा देवों से उसने, नहीं यक्ष को जान सका मैं।।१०।।

उस यक्ष ने वायु के सामने एक तिनका रखकर कहा कि इसे उड़ाकर दिखाओ। वायु अपने पूरे वेग से भी उसे उड़ा नहीं सका। हारकर देवताओं के पास जाकर वह बोले मैं इस यक्ष (की सामर्थ्य) को नहीं जान सका।।१०।।
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अथेन्द्रमब्रुवन्मघवन्नेतद्विजानीहि किमेतद्यक्षमिति तथेति तदभ्य द्रवत्तस्मात्तिरोदधे।।११।।

तब देवों ने कहा इंद्र से, कौन यक्ष यह पता लगाओ।
कहा इंद्र ने ऐसा ही हो, शीघ्र गया; वह हुआ लापता।।११।।

इसके बाद देवताओं ने इंद्र से कहा कि यह यक्ष कौन है, पता लगाओ। इंद्र ने कहा ऐसा ही हो और वह शीघ्रता से यक्ष तक गया किन्तु यक्ष अदृश्य हो गया।।११।।
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स तस्मिन्नेवाssकाशे स्त्रियमाजगाम बहुशोभमानामुमांहैमवतीं तांहोवाच किमेतद्यक्षमिति।।१२।।

उसी गगन में दिखी इंद्र को, रूपवती स्त्री; झट धाया।
उमा हिमालयतनया थी वह, कौन यक्ष यह उनसे पूछा।।१२।।

जहाँ वह यक्ष अदृश्य हुआ था वहीं गगन में इंद्र ने एक सुंदर स्त्री को देखा। वह हिमालय की कन्या उमा थी। इंद्र ने उमा से पूछा यह यक्ष कौन है।।१२।।
***
खंड ४
सा ब्रह्मोति होवाच ब्रह्मणो वा एतद्विजये महीयध्वमिति ततो हैव विदांचकार ब्रह्मेति।।१।।

कहा उमा ने- निश्चय ही है, ब्रह्म देवगण! इसकी जय में।
पूजित होते तुम सब सुरगण, जान सका तब इंद्र ब्रह्म को ।।१।।


उस (उमा) ने कहा- यह निश्चय ही ब्रह्म ही है। ब्रह्म की ही विजय में तुम देवगण पूजा प्राप्त कर रहे हो। उमा द्वारा इस प्रकार बताने पर ही इंद्र ने यह ब्रह्म है ऐसा जाना।
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तस्माद्वा एते देवा अतितरामिवान्यांदे वान्यदग्निर्वायुरिन्द्रस्ते ह्येनन्नेदिष्ठं पशपृशुस्ते ह्येनत्प्रथमो विदांचकार ब्रह्मेति।।२।।

इस कारण दीगर देवों से, श्रेष्ठ अग्नि वायु वा इंद्र हैं।
उनने इसको जाना पहले, ब्रह्म ब्रह्म है इस प्रकार से।।२।।

अग्नि वायु व इंद्र अन्य देवताओं से अधिक श्रेष्ठ इसलिए मान्य हैं चूँकि ब्रह्म ही ब्रह्म है; यह सबसे पहले उन्हीं ने जाना था।
*
तस्माद्वा इंद्रोsतितरामिवान्यान् देवान् स ह्येनन्नेदिष्ठं पस्पर्श स ह्येनत्प्रथमो विदांचकार ब्रह्मेति।।३।।

मान्य श्रेष्ठ हैं इंद्र अन्य से, वह ही अधिक निकट जा पाया।
सबसे पहले उसने जाना, ब्रह्म ब्रह्म हैं इस प्रकार से।।३।।

इंद्र शेष सभी देवताओं से अधिक श्रेष्ठ इसलिए हुआ कि उसने ही अन्यों से अधिक निकट जाकर सबसे पहले ब्रह्म को स्पर्श किया (जाना)।।३।।
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तस्यैष आदेशो यतेतद् विद्युतो व्युदयुतदाsइतीन्नमीमिषदाsइत्यधिदैवतं।।४।।

उसका वर्णन विद्युत् चमके, पलकें झपका करतीं जैसे।
अनुपमेय है ब्रह्म वस्तुत:, उपमानों से गया बताया।।४।।

वह ब्रह्म बिजली के चमकने या पलकों के झपकने की तरह प्रगट और लुप्त हो जाता है। इस उपमानों द्वारा उस ब्रह्म का वर्णन किया गया है।।४।।
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अथाध्यात्मं यदेतद्गच्छतीव च मनोsनेन चैतदुपस्मरत्यभीक्षणंसंकल्प:।।५।।

यह मन; जाता हुआ ब्रह्म की ओर; लग रहा है; इस मन से।
बार-बार जो सुमिरन करता, कर संकल्प ब्रह्म को पाता।।५।।

यह मन ब्रह्म की ओर जाता हुआ प्रतीत होता है। जो इस मन से बार-बार ब्रह्म का स्मरण करता है और जो संकल्प पूर्वक ब्रह्म का चिंतन करता है, उसे ब्रह्म की प्रतीति होती है।।५।।
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तद्ध तदवन्न नाम तद्वन मित्युपासितव्यं स य एतदेवं वेदाभि हैनं सर्वाणि भूतानि संवांछन्ति।।६।।

निश्चय तद्वन नाम ब्रह्म का, इसी नाम से उसे उपासें।
वह जो भी इस तरह जानता, उसकी सब जग करे प्रार्थना।।६।।

निश्चय ही उस ब्रह्म का नाम तद्वन है। उसकी उपासना इसी नाम से करनी चाहिए। जो ब्रह्म को इस प्रकार जानकर उसकी उपासना करता है, उस उपासक की सब जग प्रार्थना करता है।।६।।
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उपनिषदं भो ब्रूहीत्युक्ता त उपनिषद् ब्राह्मीं वाव त उपनिषदं ब्रूमेति।।७।।

चिंतनीय जो गुरु वह कहिए, कहा शिष्य ने तब गुरु बोले।
ब्राह्म उपनिषद तुम्हें बताया, अब ब्राह्मी उपनिषद कहेंगे।।७।।

हे गुरु! उपनिषद कहिए। तब गुरु बोले - तुम्हारे लिए चिन्तनीय ब्राह्म उपनिषद बताया; अब ब्राह्मी (ब्रह्म को जाननेवालों अर्थात ब्राह्मणों से संबंधित) उपनिषद कहेंगे।।७।।
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तस्यै तपो दम: कर्मेति प्रतिष्ठा वेदा: सर्वांगानि सत्यमायतनम्।।८।।

उसका तप दम कर्म प्रतिष्ठा, वेदों सह वेदांगों में भी।
और सत्य में सदा वास है, यहीं उसे पाया जा सकता।।८।।


उस ब्रह्म का तप (शारीरिक, वाचिक और मानसिक ), दम (निवृत्ति), कर्म (कायिक, वाचिक, मानसिक, सात्विक, राजस, तामसिक, संचित, प्रारब्ध), प्रतिष्ठा (कुल, कर्म), वेद (ऋग्, साम, यजुर्, अथर्व), वेदांग (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, ज्योतिष, छन्द और निरूक्त) और सत्य (वैचारिक, व्यावहारिक, सर्वकालिक, तात्कालिक, सर्वहितकारी, स्वहितकारी) में निवास है।।८।।
*
यो वा एतामेवं वेदापहत्य पाप्मानमनन्ते स्वर्गे लोके ज्येये प्रतितिष्ठति प्रतितिष्ठति।।९।।

जो जानता ब्रह्मविद्या को, वैसे ही जैसी वह सच में।
सकल अविद्या का विनाश कर, वह अनंत स्वर्ग में रहता।।९।।

जो भी इस ब्रह्मविद्या को यथावत जानता है, वह अविद्या को नष्टकर अविनाशी स्वर्गलोक में रहता है, रहता है (लौटकर वापिस नहीं आता) ।।९।।
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सत्यकाम: स्वयंसिद्ध: सर्वेशो य: स्वशक्तित:।
स एवांत:प्रविष्टोsहमुपास्य: सर्वदेहिनाम्।।

सत्यकाम हो; स्वयंसिद्ध हो, सब प्रभु उसमें; आत्मशक्ति से। 
वह प्रविष्ट होता है ऐसे, हर उपास्य में देहधारियों।। 
शांतिपाठ 
ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि वाक् प्राणचक्षु: श्रोतमथो बलमिन्द्रियाणि च सर्वाणि। सर्वं ब्रह्मौपनिषदं माहं ब्रह्म निराकुर्यां मा मा ब्रह्म निराकरोदनिराकरणमस्त्वनिराकरणं मेsस्तु। तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्ते मयि संतु, ते मयि संतु।। ॐ शांति: शांति:शांति:

ॐ पुष्ट हों अंग मेरे वाक् प्राण दृग श्रोत इन्द्रियाँ।
सर्व ब्रह्म है, मैं उससे या वह ही मुझसे विमुख न होए।।
रहें परस्पर हम अभिन्न ही, कभी तनिक अलगाव न होए।
उपनिषदों में कहा धर्म जो वह मुझमें हो, वह मुझमें हो।।
त्रिविध ताप की सदा शान्ति हो।
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