वेद व्यथित हैं, मानव की माटी इतराती है
देव क्षुधित हैं, भोग न देकर खुद खा जाती है
जीव नहीं संजीव न अर्पण तर्पण से नाता-
होता जब निर्जीव तभी उसको मति आती है
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अन्न कूट कर अन्नकूट का, बना रहे हैं भोग
अन्न पूर्ण खुद अन्नपूर्णा खा ले, तो हो सोग
सरकारें भू धूप हवा पानी का करतीं धंधा-
लगा मुनाफाखोरी का नाहक असाध्य यह रोग
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लोक तंत्र को लोभ तंत्र ने पल पल लूटा है
तंत्र लोक पर हावी, खाज कोढ़ में फूटा है
जन प्रतिनिधि ही जन गण की आस्थाएँ लूट रहे-
माली ने ही रौंदा पौधा पत्ता बूटा है
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५-११-२०२१
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