दोहा सलिला
निवेदन
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दोहा इंगित में कहे, सरल बना; सच क्लिष्ट।
मति अनुरूप समझ सकें, पाठक सुमिरें इष्ट।।
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भाव-अर्थ त्यों शब्द में, ज्यों बारिश-जलबिंदु।
नहीं पुरातन; सनातन, गगन चंद्रिका इंदु।।
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संकेतों को ग्रहणकर, चिंतन-मनन न भूल।
टहनी पर दोनों मिलें, फूल चुने या शूल।।
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जब भी निकले बात तो, जाती है वह दूर।
समझदार सुन-समझता, सुने न जो मद-चूर।।
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अपनी-अपनी समझ है, अपना-अपना बोध।
मन न व्यर्थ प्रतिरोध कर, तू क्यों बने अबोध।।
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मिले प्रेरणा तो ग्रहण, कर छाया रह मौन।
पुष्पाए मन-वाटिका, कब-क्यों जाने कौन?
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सुमन सु-मन की लता पर, खिलते बाँट सुगंध।
अमरनाथ-सिर शशि सदृश,
चढ़ते तज भव-बंध।।
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श्यामल पर गोरी रिझे, गोरी चाहें श्याम।
धार पुनीता जमुन की, साक्षी स्नेह अनाम।।
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रे मन! उनको नमन कर, जो कहते आचार्य।
उनके मन में बसा है, सकल सृष्टि-प्राचार्य।।
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जिया प्रजा में ही सदा, किंग-क्वीन सच मान।
भक्त बिना कब हो सका, परमब्रम्ह भगवान।।
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करता है राजेंद्र कब, आगे बढ़ श्रमदान।
वादे को जुमला बता, बने नरेंद्र महान।।
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15.5.2018
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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मंगलवार, 15 मई 2018
दोहा सलिला
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