विधा: दोहा
मुहावरा: मन चाही कबहूँ नहीं
*
कर नाटक पछता रहे, पद के दावेदार.
करनाटक में कट गई, नाक हुए चित यार.
जनादेश मतभेद दें, भुला मिलाएँ हाथ.
कमल-कोंग्रेसी करें, जनसेवा मिल साथ.
जनादेश समझें नहीं, बढ़ा रखी तकरार.
झट कुमारस्वामी बढ़ा, बना सके सरकार.
एक-एक ग्यारह हुए, एक अकेला ढेर.
अमित-लोभ की खुल गई, पोल नहीं अंधेर.
मन चाही कबहूँ नहीं, प्रभु चाही तत्काल.
चौबे छब्बे बन चले, डूब दुबे फिलहाल.
*
२०.८.२०१८, ७९९९५५९६१८
salil.sanjiv@gmail.com
मुहावरा: मन चाही कबहूँ नहीं
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कर नाटक पछता रहे, पद के दावेदार.
करनाटक में कट गई, नाक हुए चित यार.
जनादेश मतभेद दें, भुला मिलाएँ हाथ.
कमल-कोंग्रेसी करें, जनसेवा मिल साथ.
जनादेश समझें नहीं, बढ़ा रखी तकरार.
झट कुमारस्वामी बढ़ा, बना सके सरकार.
एक-एक ग्यारह हुए, एक अकेला ढेर.
अमित-लोभ की खुल गई, पोल नहीं अंधेर.
मन चाही कबहूँ नहीं, प्रभु चाही तत्काल.
चौबे छब्बे बन चले, डूब दुबे फिलहाल.
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२०.८.२०१८, ७९९९५५९६१८
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