९. छत्तीसगढ़ी काव्य में छंद वैविध्य
-रमेशकुमार सिंह चौहान
संपर्क: मिश्रापारा, नवागढ़, जिला-बेमेतरा ४९१३३७ छत्तीसगढ़, चलभाष: ९९७७०६९५४५, ८८३९०२४८७१।
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श्री प्यारेलाल गुप्त के अनुसार ‘‘छत्तीसगढ़ी भाषा अर्धभागधी की दुहिता एवं अवधी की सहोदरा है ।‘‘१ लगभग एक हजार वर्ष पूर्व छत्तीसगढ़ी साहित्य का सृजन परंपरा का प्रारंभ हो चुका था । अतीत में छत्तीसगढ़ी साहित्य सृजन की रेखायें स्पष्ट नहीं हैं । सृजन होते रहने के बावजूद आंचलिक भाषा को प्रतिष्ठा नहीं मिल सकी तदापि विभिन्न कालों में रचित साहित्य के स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं। छत्तीसगढ़ी साहित्य एक समृद्ध साहित्य है। छत्तीसगढ़ के छंदकार आचार्य जगन्नाथ प्रसाद ‘भानु‘ ने हिंदी को ‘छंद प्रभाकर‘ एवं 'काव्य प्रभाकर' जैसे कालजयी ग्रंथ भेंट किये हैं। यहाँ के साहित्य और लोक साहित्य में छंद का स्वर अंतर्निहित है।
छत्तीसगढ़ी साहित्य में छंद के स्वरूप का अनुशीलन करने के पूर्व यह आवश्यक है कि छंद के मूल उद्गम और उसके विकास पर विचार कर लें। भारतीय साहित्य के किसी भी भाषा के काव्य विधा का अध्ययन किया जाये तो यह अविवादित रूप से कहा जा सकता है वह ‘छंद विधा‘ ही प्राचीन विधा है जो संस्कृत, पाली, अपभ्रंश, खड़ी बोली से होते हुये आज की हिंदी एवं आनुषंगिक बोलियों में क्रमोत्तर विकसित होती रही। हिंदी साहित्य के स्वर्ण युग से कौन परिचित नही है। इस दौर में अधिकाधिक छान्दस काव्य साहित्य का सृजन हुआ। छत्तीसगढ़ के संदर्भ में यह विदित है कि छत्तीसगढ़ी नाचा, रहस, रामलीला, कृष्ण लीला के मंचन में छांदिक रचनाओं की प्रस्तुति का प्रचलन रहा है ।
डॉ. नरेंद्रदेव वर्मा ने ‘छत्तीसगढ़ी भाषा का उद्विकास‘ में छत्तीसगढ़ी साहित्य को गाथा युग (सन् १००० से १५००), भक्ति युग (१५०० से १९००) एवं आधुनिक युग (१९०० से अब तक) में विभाजित किया है । अतीत में छत्तीसगढ़ी साहित्य लिखित से अधिक वाचिक परंपरा से आगे आया। उस जमाने में छापाखाने की कमी इसका वजह हो सकती है। ये कवितायें अपनी गेयता और लयबद्धता के कारण वाचिक रूप से आगे बढ़ती गईं। गाथा काल की ‘अहिमन रानी‘, ‘केवला रानी‘ ‘फुलबासन‘, पण्ड़वानी‘ आदि वाचिक परंपरा की धरोहर के रूप में चिरस्थाई हैं । ये रचनायें अनुशासन के डोर में बंधे छंद के आलोक से प्रदीप्तमान रहीं। भक्ति काल में कबीरदास के शिष्य और उनके समकालीन (संवत १५२०) धनी धर्मदास छत्तीसगढ़ी के आदि कवि हैं, जिनके पदों में छंद विधा का पुट मिलता है:
ये धट भीतर वधिक बसत हे (16 मात्रा) / दिये लोग की ठाठी । (12 मात्रा)
धरमदास विनमय कर जोड़ी (16 मात्रा) / सत गुरु चरनन दासी। (12 मात्रा) (यौगिक जाति, सार छंद -सं.)
आधुनिक काल के प्रारंभिक दशकों में हिंदी भाषा, साहित्य और साहित्य शास्त्र के विकास के लिये अथक प्रयत्न किए गए। इस प्रयत्न में तीन महान विभूतियों आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, पं. कामता प्रसाद गुरू एवं आचार्य जगन्नाथ प्रसाद ‘‘भानु‘‘ का योगदान अविस्मरणीय है। ये तीनों ने क्रमशः भाषा, व्याकरण एवं साहित्य शास्त्र में अद्वितीय योगदान किया। आचार्य जगन्नाथ प्रसाद ‘भानु‘ ने साहित्य शास्त्र में ‘छंद प्रभाकर‘ (१८९४) की रचना की । आचार्य ‘भानु‘ स्वयं छत्तीसगढ़ी साहित्य के आधुनिक काल के प्रथम पंक्ति के कवि हैं। आाचार्य ‘भानु‘ छंद को इस प्रकार परिभाषित करते हैं-
‘‘मत्त बरण गति-यति नियम, अंतहि समताबंद।
जा पद रचना में मिले, ‘भानु‘ भनत स्वइ छंद।।‘‘ २
आधुनिक युग में पं. सुंदरलाल शर्मा, आचार्य ‘भानु‘, शुकलाल पाण्ड़े, कपिलनाथ मिश्र आदि छत्तीसगढ़ी साहित्य के प्रथम सोपान के कवि हैं जिनकी रचनाओं में छंद सहज ही देखने को मिलते हैं। पं. सुंदरलाल शर्मा छत्तीसगढ़ी साहित्य के पुरोधा साहित्यकार हैं। उनकी कृति ‘छत्तीसगढ़ी दान लीला‘ में दोहा, चौपाई, त्रोटक आदि छंदों का साहसिक अनुप्रयोग देखते हुए उन्हें छत्तीसगढ़ी साहित्य का प्रथम सामर्थ्यवान कवि कहा गया। उनकी रचनाओं में कुछ छंद पद दृष्टव्य हैं -
दोहा: जगदिश्वर के पाँव मा, आपन मूड़ नवाय।
सिरी कृष्ण भगवान के, कहिहौं चरित सुनाय।।
चौपाई: काजर आंजे अलगा डारे । मुड़ कोराये पाटी पारे।।
पाँव रचाये बीरा खाये । तरूवा मा टिकली चटकाये।।
बड़का टेड़गा खोपा पारे । गोंदा खोचे गजरा डारे।।
नगदा लाली गांग लगाये । बेनी मा फुँदरी लटकाये।।
खोटल टिकली झाल बिराजै । खिनवा लुरकी कानन राजै।।
तेखर खल्हे झुमका झूलै । देखत उन्खर तो दिल भूलै।।
एक-एक के धरे हाथ हे । गिजगिज-गिजगिज करत जात हे।।
चुटकी-चुटका गोड़ सुहावै । चुटपुट-चुटपुट बाज बजावै ३ - (छत्तीसगढ़ी दान लीला-पं. सुंदरलाल शर्मा)
शुकलाल प्रसाद पाण्ड़े छत्तीसगढ़ी साहित्य के आधुनिक काल के प्रथम पड़ाव के कवि हैं । शुकलालजी ने कई प्रकार छंदों के रंग से अपने साहित्य को रंगा हैं:
चौपाई: बहे लगिस फेर निचट गर्रा। जी होगे दुन्नो के हर्रा।।
येती-ओती खुब झोंका ले। लगिस जहाज निचच्टे हाले।।
जानेन अब ये देथे खपले। बुड़ेन अब सब समुंद म झप ले।।
धुक-धुक धुक-धुक धुक्की धड़के। डेरी भुजा नैन हर फरके।।
दोहा- मुरछा ले झट जाग के, दुन्नो पुरूल पोटार।
कलप-कलप रोये लगिस, साहुन हर बम्हार।।
चौबोला-मोर कन्हैया ! अउ बलदाऊ ! मोर राम लछिमन।
मोर अभागिन के मुँह पोछन ! मोर-परान रतन धन।।
मोर लेवाई आवा बछर! चाट देह ला झारौ।।
उर माम सक कसक ला जी के मैहर अपन निकारौ।।४
कपिलनाथ कश्यप ने छत्तीसगढ़ी साहित्य को समृद्ध करते हुए अपने दो महाकाव्यों में छंद को सम्यक स्थान दिया है। उनके छत्तीसगढ़ी खण्ड़ काव्य ‘हीराकुमार‘ से ‘सरसी छंद‘ का उदाहरण प्रस्तुत है :
कंचनपुर मा तइहा तइहा, रहैं एक धनवान।
जेखर धन-दौलत अतका की, बनै न करत बखान।।४
श्री कश्यपजी रचित ‘समधी के फजीता‘ कविता में ‘सार छंद‘ का अनुपम प्रयोग देखते ही बनता है-
दुहला हा तो दुलही पाइस, बाम्हन पाइस टक्का ।
सबै बराती बरा सोंहारी, समधी धक्कम धक्का ।।
नाऊ बजनियां दोऊ झगरे, नेग चुका दा पक्का ।
पास म एको कौड़ी नई हे, समधी हक्का बक्का ।।
काढ़ मूस के ब्याह करायो, गांठी सुख्खम खुख्खा ।
सादी नई बरबादी भइगे, घर मा फुक्कम फुक्का।।
पूँजी रह तो सबो गंवागे, अब काकर मुँह तक्का।
टुटहा गाड़ा एक बचे हे, ओखरो नइये चक्का।।५
छत्तीसगढ़ी के चर्चित हस्ताक्षर नरसिंहदास ने अपना परिचय ही दोहा छंद में दिया है जिसमें पिंगल शास्त्र का उल्लेख करना उनके छंद के प्रति रुचि को उजागर करता है:
पुत्र पिताम्बर दास के, नरिंसह दास नाम। / जन्म भूमि घिवरा तजे, बसे तुलसी ग्राम ।।
पिंगल शास्त्र न पढ़ेंव कछु, मैं निरक्षर अधाम। / अंध मंदमति मूढ़ है, जानत जानकि राम ।। 6
नरसिंह दास के रचनायें कवित्त (घनाक्षरी), सवैया आदि छंद शिल्प से अलंकृत हैं:
कवित्त: आइगे बरात गाँव तीर भोला बबाजी के,
देखे जाबो चला गिंया, संगी ला जगाव रे।
डारो टोपी धोती पाँव, पैजामा ल कसिगर
गल बंधा अँग-अँग, कुरता लगाव रे।।
हेरा पनही दोड़त बनही कहे नरसिंग दास
एक बार हुँआ करि, सबे कहूँ धाव रे।
पहुँच गये सुक्खा भये देखी भूत-प्रेत
कहे नहीं बाचान दाई ददा प्राण ले भगाव रे।।
सवैया: साँप के कुण्डल कंकण साँप के, साँप जनेउ रहे लपटाई।
साँप के हार हे साँप लपेटे, हे साँप के पाग जटा सिर छाई।।
दास नरसिंह देखो सखि रे, बर बाउर हे बइला चढ़ि आई।
कोउ सखी कहे कइसे हे छी कुछ ढंग खीख हावे छी दाई।।७
छत्तीसगढ़ी साहित्य में आधुनिक काल का द्वितीय सोपान स्वाधीनता आंदोलन एवं आजादी के पश्चात का है। इस युग के हस्ताक्षर नारायणलाल परमार, कुंजबिहारी चौबे, द्वारिकाप्रसाद तिवारी ‘विप्र‘, कोदूराम दलित एवं श्यामलाल चतुर्वेदी हैं। नारायण लाल परमार की रचनाओं में गेय छंद के साथ-साथ मुक्त छंद भी मिलते हैं। श्यामलाल चतुर्वेदी जी के रचना में सार छंद दृष्टव्य है:
रात कहै अब कोन दिनो मा, घपटे हैं अँधियारी।
सूपा सही रितोवय बादर, अलमल एक्केदारी।।
सुरूज दरस कहितिन कोनो, बात कहां अब पाहा।
हाय-हाय के हवा गइस गुंजिस अब ही-ही हाहा।।
कोदूराम ‘दलित‘ ने विभिन्न छंदों के भरपूर प्रयोग अपनी रचनाओं में किए हैं:
दोहा- पाँव जान पनही मिलय, घोड़ा जान असवार।
सजन जान समधी मिलय, करम जान ससुरार।।
कुण्ड़लियां- छत्तीसगढ़ पैदा करय , अड़बड़ चाँउर दार।
हवय लोग मन इहाँ के, सिधवा अउ उदार।।
सिधवा अउ उदार, हवयँ दिन रात कमावयँ।
दे दूसर ला भात , अपन मन बासी खावयँ।।
ठगथयँ बपुरा मन ला , बंचक मन अड़बड़।
पिछड़े हवय अतेक, इही करन छत्तीसगढ़।।
चौपाई- बन्दौं छत्तीसगढ़ शुचिधामा। परम मनोहर सुखद ललामा
जहाँ सिहावादिक गिरिमाला। महानदी जहँ बहति विशाला
मनमोहन वन उपवन अहई। शीतल - मंद पवन तहँ बहई
जहँ तीरथ राजिम अतिपावन। शवरी नारायण मन भावन
अति उर्वरा भूमि जहँ केरी। लौहादिक जहँ खान घनेरी
उपजत फल अरु विविध अनाजू। हरषित लखि अति मनुज समाजू
बन्दौं छत्तीसगढ़ के ग्रामा। दायक अमित शांति दृ विश्रामा
बसत लोग जहँ भोले-भाले। मन के उजले तन के काले
धारण करते एक लँगोटी। जो करीब आधा गज होती
मर मर कर दिन-रात कमाते। द्य पर-हित में सर्वस्व लुटाते ८
लाला जगदलपुरी, केयर भूषण, हरि ठाकुर, लक्ष्मण मस्तुरिया, विमल पाठक, डॉ. विनय पाठक, दानेश्वर शर्मा, मुकुंद कौशल, नरेंद्र वर्मा आदि कवियों ने छत्तीसगढ़ी साहित्य में छंद की छनक गुंजित की है। पं.दानेश्वर शर्मा घनाक्षरी छन्द को ध्वनित करते हुये लिखते हैं:
बइठ बहिनी पारवती काय साग राँधे रहे
हालचाल कइसे हवय परभू ‘पसुपति के ?
बइठत हवँव लछमिन, जिमी कांदा राँधे रहेंव
‘पसुपति‘ धुर्रा छानत होही वो बिरिज के
टोला नहीं कहँ बही, पूछत हवँव आन ल
कहां हवय आजकल साँप् के धरइया ह?
महू तो उही ल कहिथँव, कालीदाह गेय होही
पुक-गेंद खेलत होही नाँग के नथइया ह ।
छत्तीसगढ के सुप्रसिद्ध गायक कवि लक्ष्मण मस्तुरिया के आव्हान के गीतों के अतिरिक्त दोहों की भी कम प्रसिद्धि नही है:
भेड़ चाल भागे नही, मन मा राखे धीर।
काम सधे मनखे बने, मगन रहे गँभीर।।
जोरे ले दुख नइ घटे, छोड़े ले सुख आय।
पेट भरे ओंघावत बइठे, भुखहा दउंडत जाय।।
धन संपत जोरे बहुत, नइ जावे कु साथ।
पुरखा-पीढ़ी खप गए, सब गे खाली हाथ।।
सुख-छइहां बाहर नहीं, अपने भीतर खोज।
सबले आगू मया मिले, रद्दा रेंगव सोझ।।
लक्ष्मण मस्तुरिया द्वारा रचित ‘सोनाखान के आगी‘ आल्हा छंद के धुन में अनुगुंजित है:
धरम धाम भारत भुईंया के, मंझ मे हे छत्तीसगढ़ राज।
जिहां के माटी सोनहा धनहा, लोहा कोइला उगलै खान।।
जोंक नदी इन्द्रावती तक ले, गढ़ छत्तीसगढ़ छाती कस।
उती बर सरगुजा कटाकट, दक्खिन बस्तर बागी कस।।
जिहां भिलाई कोरबा ठाढ़े, पथरा सिरमिट भरे खदान।
तांबा-पीतल टीन कांछ के, इहां माटी म थाथी खान।।९
रामकैलाश तिवारी ‘रक्तसुमन‘ ने छत्तीसगढ़ी में ‘दीब्य-गीता‘ की रचना कर दोहा को ‘दुलड़िया‘ एवं चौपाई को ‘चरलड़िया‘ नाम दिये हैं:
दोहा (दुइलड़िया): गीता जी के ज्ञान पढ़, जउन समझ नहि पाय।
अइसन मनखे असुर जस, अधम बनय बछताय।।
चौपाई (चरलड़िया): जउन पढ़य नहि गीता भाई। मनखे तन सूंरा के नाई।
जे जानय नहि गीता भाई। अधम मनुख के कहां भलाई।१०
छत्तीसगढ़ी साहित्य मेंअपनी समिधा अर्पित करते हुये बुधराम यादव ने छत्तीसगढ़ी में सतसई दोहा संग्रह ‘चकमक चिन्गारी भरे‘ छत्तीसगढ़ साहित्य को भेंट किया है:
तैं लूबे अउ टोरबे, जइसन बोबे बीज ।
अमली आमा नइ फरय, लाख जतन ले सींच।।
नदिया तरिया घाट अउ, गली खोर चौपाल।
साफ-सफाई नित करन, बिन कुछु करे सवाल।।११
छत्तीसगढ़ी साहित्य के काव्य शिल्प में अरूण निगम द्वारा २०१५ में रचित ‘छंद के छ‘ छत्तीसगढ़ी साहित्य में छंद शिल्प को प्रोत्साहित करने में सफल रहा। ‘छंद के छ‘ में प्रत्येक स्वरचित छंद के नीचे उस छंद के छंद विधान को समझाया गया है। मात्रा गिनने की रीति, छंद गठन की रीति को सहज छत्तीसगढ़ी में समझाया गया है। इस पुस्तक में प्रचलित छंद दोहा, सोरठा, रोला, कुण्ड़लियां छप्पय, गीतिका घनाक्षरी आदि के साथ-साथ अप्रचलित छंद शोभान, अमृत ध्वनि, कुकुभ, छन्नपकैया, कहमुकरिया आदि को जनसमान्य के लिये प्रस्तुत किया गया है। आदरणीय कोदूराम ‘दलित‘ ने छत्तीसगढ़ी साहित्य में छंद का बीजारोपण किया जिसे उनके सुपुत्र अरूण निगम की रचनाओं में पल्लवित- पुष्पित किया है।
गंगोदक सवैया:
खेत मा साँस हे खेत मा आँस हे खेत हे तो इहाँ देह मा जान हे ।
देख मोती सहीं दीखथे गहूँ, धान के खेत मा सोन के खान हे ।।
माँग के खेत ला का बनाबे इहाँ खेत ला छोड़ ये मोर ईमान हे ।
कारखाना लगा जा अऊ ठौर मा, मोर ये खेत मा आन हे मान हे ।
जलहरण घनाक्षरी:
रखिया के बरी ला बनाये के बिचार हवे
धनी टोर दूहूँ छानी फरे रखिया के फर
डरिद के दार घलो रतिहा भिंजोय दूहूँ
चरिहा मा डार, जाहूँ तरिया बड़े फजर
दार ला नँगत धोहूँ चिबोर-चिबोर बने
फोकला ला फेक दूहूँ दार दिखही उज्जर
तियारे पहटनीन ला आही पहट काली
सील लोढ़हा मा दार पीस देही वो सुग्घर
कहमुकरिया-
सौतन कस पोटारिस बइहांँ / डौकी लइका कल्लर कइयाँ
चल-चलन मा निच्चट बजारू / क सखि भाटो, ना सखि दारू १२
अरूण निगम सेवा निवृत्ति के पश्चात सोशल मिडिया वाट्सऐप में ‘छन्द के छ‘ नामक समूह बनाकर छंद-ज्ञान बाँट रहे हैं। उनके इस सद्प्रयास की उपज श्रीमती शंकुतला शर्मा, श्री सूर्यकांत गुप्ता, श्री हेमलाल साहू, श्री चोवा राम वर्मा आदि हैं। फेसबुक में ‘छत्तीसगढ़ी साहित्य मंच‘ समूह में छंद की अलख जगाते हुए मैंने छत्तीसगढ़ी कुण्डलिया संग्रह ‘आँखी रहिके अंधरा‘, दोहा संग्रह ‘दोहा के रंग‘ तथा ‘सुरता‘ में दोहा, रोला कुण्ड़लियां, सवैया, आल्हा, गीतिका, हरिगीतिका, त्रिभंगी, घनाक्षरी आदि छत्तीसगढ़ी में लिखे-परिभाषित किए हैं-
दोहा- चार चरण दू डांड के, होथे दोहा छंद ।
तेरा ग्यारा होय यति, रच ले तैं मतिमंद ।।
रोला- आठ चरण पद चार, छंद सुघ्घर रोला के ।
ग्यारा तेरा होय, लगे उल्टा दोहा के ।।
विषम चरण के अंत, गुरू लघु जरूरी होथे ।
गुरू-गुरू के जोड़, अंत सम चरण पिरोथे ।।
आल्हा- दू पद चार चरण मा, रहिथे सुघ्घर आल्हा छंद ।
विषम चरण के सोलह मात्रा, पंद्रह मात्रा बाकी बंद ।।
गीतिका छंद- गीत गुरतुर गा बने तैं, गीतिका के छंद ला ।
ला ल ला ला ला ल ला ला ला ल ला ला ला ल ला ।
मातरा छब्बीस होथे, चार पद सुघ्घर गुथे ।
आठ ठन एखर चरण हे, गीतिका एला कथे ।१३
छत्तीसगढ़ी राजभाषा के प्रांतीय सम्मेलन में श्री चोवाराम वर्मा ‘बादल’ रचित ‘छंद बिरवा‘ में ५० प्रकार के मात्रिक एवं वार्णिक छंदों के विधान एवं उदाहरण तथा मेरे द्वारा रचित ‘छंद चालीसा‘ में ४० छंदों को उसी छंद में उकेरते हुये विधान व उदाहरण दिए गए हैं।
छत्तीसगढ़ी लोकभाषा ददरिया, सुवा, भोजली, भड़ौनी, करमा, पंथी आदि लोकगीतों को पल्लवित करती रही है। इन गीतों का व्यापक प्रभाव छत्तीसगढ़ी साहित्य में है। गेयता को प्रमु ख साधन मानकर छत्तीसगढ़ी लोककाव्य का सृजन हुआ है। छंद- विधान की मात्रिकता, वार्णिकता को महत्व न देकर उनके लय, प्रवाह को आधार मानकर कई कवियों ने अपनी रचनाओं में छंद विधा का प्रयोग किया है। इन रचनाओं में छंद का आभास तो है किन्तु छंद विधान का पूर्ण पालन नहीं है तथापि‘छत्तीसगढ़ी साहित्य छंद विधा से ओत-प्रोत है ।
संदर्भ ग्रंथ: १. ‘प्राचीन छत्तीसगढ़‘ (प्रकाशक रविशंकर विश्वविद्यालय, १९७३), २. छंद प्रभाकर जगन्नाथ प्रसाद ‘भानु‘ ३. जनपदीय भाषा और साहित्य छत्तीसगढ़ी कविता एवं कवि, ४. हीरा कुमार‘-कपिलनाथ कष्यप, ५-६-७. जनपदीय भाषा और साहित्यः छत्तीसगढ़ी कविता एवं कवि, ८. श्री अरूण निगम का ब्लाग ‘सियानी गोठ‘, ९.सेनाखान के आगी-लक्ष्मण मस्तुरिया, १० दीब्य-गीता-रामकैलाष तिवारी ‘रक्तसुमन‘ ११ .‘चकमक चिन्गारी भरे‘ सतसई दोहा संग्रह-बुधराम यादव, १२. छंद के छ-अरूण निगम, १३. ‘सुरता‘ -छत्तीसगढ़ी कविता के कोठी।
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