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बुधवार, 4 अक्तूबर 2017

muktak

मुक्तक एक-रचनाकार दो 
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बुझी आग से बुझे शहर की, हों जो राख़ पुती सी रातें 
दूर बहुत वो भोर नहीं अब, जो लाये उजली सौगातें - आभा खरे, लखनऊ 
सभी परिंदों सावधान हो, बाज लगाए बैठे घातें 
रोक सकें सरकारों की अब, कहाँ रहीं ऐसी औकातें? - संजीव, जबलपुर

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