दोहा मुक्तिका:
संजीव
*
उगते सूरज की करे, जगत वंदना जाग
जाग न सकता जो रहा, उसका सोया भाग
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दिन कर दिनकर ने कहा, वरो कर्म-अनुराग
संध्या हो निर्लिप्त सच, बोला: 'माया त्याग'
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तपे दुपहरी में सतत, नित्य उगलता आग
कहे: 'न श्रम से भागकर, बाँधो सर पर पाग
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उषा दुपहरी साँझ के, संग खेलता फाग
दामन पर लेकिन लगा, कभी न किंचित दाग
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निशा-गोद में सर छिपा, करता अचल सुहाग
चंद्र-चंद्रिका को मिला, हँसे- पूर्ण शुभ याग
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भू भगिनी को भेंट दे, मार तिमिर का नाग
बैठ मुँड़ेरे भोर में, बोले आकर काग
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'सलिल'-धार में नहाये, बहा थकन की झाग
जग-बगिया महका रहा, जैसे माली बाग़
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