अभिनव प्रयोग
दोहा मुक्तिका:
संजीव
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इस दुनिया का सार है, माटी लकड़ी आग
चाहे तू कह ले इसे, खेती बाड़ी साग
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तन-बरतन कर साफ़- भर, जीवन में अनुराग
मन हरियाने के लिये, सूना झूम सुन फाग
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सदा सुहागिन श्वास हो, गाये आस विहाग
प्यास-रास सँग-सँग पले, हास न छूटे-जाग
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ज्यों की त्यों चादर रहे, अपनेपन से ताग
ढाई आखर के लिये, थोड़ा है हर त्याग
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बीन परिश्रम की बजा, रीझे मंज़िल-नाग
सच की राह न छोड़ना, लगे न कोई दाग
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हर अंकुर हो पल्ल्वित, तब ऊँची हो पाग
कलियाँ मुस्काती रहें, रहे महकता बाग़
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धूप-छाँव जैसे पलें, मन में राग-विराग
मनुज करे जग को मलिन, स्वच्छ करे नित काग.
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1 टिप्पणी:
सुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार..
मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका इंतजार...
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