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शनिवार, 20 जून 2015

muktika: sanjiv

अभिनव प्रयोग 
दोहा मुक्तिका:
संजीव 
*
इस दुनिया का सार है, माटी लकड़ी आग 
चाहे  तू कह ले इसे, खेती बाड़ी साग 
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तन-बरतन कर साफ़- भर, जीवन में अनुराग
मन हरियाने के लिये, सूना झूम सुन फाग 
 *
सदा सुहागिन श्वास हो, गाये आस विहाग 
प्यास-रास सँग-सँग पले, हास न छूटे-जाग 
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ज्यों की त्यों चादर रहे, अपनेपन से ताग  
ढाई आखर के लिये, थोड़ा है हर त्याग 
*
बीन परिश्रम की बजा, रीझे मंज़िल-नाग 
सच की राह न छोड़ना, लगे न कोई दाग 
*
हर अंकुर हो पल्ल्वित, तब ऊँची हो पाग 
कलियाँ मुस्काती रहें, रहे महकता बाग़ 
*
धूप-छाँव जैसे पलें, मन में राग-विराग 
मनुज करे जग को मलिन, स्वच्छ करे नित काग. 
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1 टिप्पणी:

JEEWANTIPS ने कहा…

सुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार..
मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका इंतजार...