नवगीत:
संजीव
*
फरफराता उड़ा आँचल
जी गया जी, बजी पायल
खनक कंकण कह गया कुछ
छलकती नयनों की छागल
देह में
रह कर विदेहित
मूर्तिमन्त हुआ मिथक है
*
बजाता है समय मादल
नाचता मन मोर पागल
दामिनी से गले मिलकर
बरस पड़ता रीत बादल
भीगकर
जल बिन्दुओं पर
रीझता भीगा पथिक है
*
इंद्र-धनु सी भौंह बाँकी
नयन सज्जित सजन झाँकी
प्रणय माथे पर यकायक
मिलन बिंदी विहँस टाँकी
काम-शर
के निशाने पर
ह्रदय, प्रेयसि ही वधिक है
*
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