मुक्तिका:
संजीव
*
गले अजनबी से मिलकर यूँ लगा कि कोई अपना है
अपने मिले मगर अपनापन गुमा कि जैसे सपना है
संजीव
*
गले अजनबी से मिलकर यूँ लगा कि कोई अपना है
अपने मिले मगर अपनापन गुमा कि जैसे सपना है
गीत ग़ज़ल कविता छंदों को लिखना है पर बिन सीखे
कौन बताये नयी कलम को सृजन-कर्म भी तपना है
कौन बताये नयी कलम को सृजन-कर्म भी तपना है
प्रभु तुमसे क्या छिपा? भक्त-मन मीरा-राधा को ताके
नाम तुम्हारा जुबां ले रही, किन्तु न जाना जपना है
नाम तुम्हारा जुबां ले रही, किन्तु न जाना जपना है
समरसता को छोड़ चले हम, निजता के मैदानों में
सत-शिव-सुंदर से क्या मतलब वह लिख दो जो छपना है
सत-शिव-सुंदर से क्या मतलब वह लिख दो जो छपना है
जब तक कुर्सी मिले न तब तक जनमत लगता सच्चा है
कुर्सी जो पाता है उसका 'सलिल' बदलता नपना है
कुर्सी जो पाता है उसका 'सलिल' बदलता नपना है
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