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शुक्रवार, 26 जून 2015

muktika: sanjiv

मुक्तिका:
संजीव
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गये जब से दिल्ली भटकने लगे हैं.
मिलीं कुर्सियाँ तो बहकने लगे हैं

कहाँ क्या लिखेंगे न ये राम जाने
न पूछो पढ़ा क्या बिचकने लगे हैं

रियायत का खाना खिला-खा रहे हैं
न मँहगाई जानें मटकने लगे हैं

बने शेर घर में पिटे हर कहीं वे
कभी जीत जाएँ तरसने लगे हैं

भगोड़ों के साथी न छोड़ेंगे सत्ता
न चूकेंगे मौका महकने लगे हैं

न भूली है जनता इमरजेंसी को
जो पूछा तो गुपचुप सटकने लगे हैं

किये पाप कितने कहाँ और किसने
किसे याद? सोचें चहकने लगे हैं

चुनावी है यारी हसीं खूब मंज़र
कि काँटे भी पल्लू झटकने लगे हैं

न संध्या न वंदन न पूजा न अर्चन
'सलिल' सूट पहने सरसने लगे हैं.

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