मुक्तक:
संजीव
*
रौशनी कब चराग करते हैं?
वो न सीने में आग धरते हैं.
तेल-बाती सदा जला करती-
पूजकर पैर 'सलिल' तरते हैं.
*
मिले वरदान चाह की हमने
दान वर का नहीं किया तुमने
दान बिन मान कहाँ मिल सकता
उँगलियों पर लिया नचा हमने
*
माँग थी माँग आज भर देना
दान कन्या का झुका सर लेना
ले लिया कर में कर न छूटेगा
ज़िंदगी भर न चुके, कर देना
*
संजीव
*
रौशनी कब चराग करते हैं?
वो न सीने में आग धरते हैं.
तेल-बाती सदा जला करती-
पूजकर पैर 'सलिल' तरते हैं.
*
मिले वरदान चाह की हमने
दान वर का नहीं किया तुमने
दान बिन मान कहाँ मिल सकता
उँगलियों पर लिया नचा हमने
*
माँग थी माँग आज भर देना
दान कन्या का झुका सर लेना
ले लिया कर में कर न छूटेगा
ज़िंदगी भर न चुके, कर देना
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