कुल पेज दृश्य

गुरुवार, 4 जून 2015

muktak: sanjiv

मुक्तक:
संजीव
*
इंसानी फितरत समान है, रहो देश या बसों विदेश 
ऐसी कोई  जगह नहीं है जहाँ मलिनता मिले न लेश 
जैसा देश वेश हो वैसा पुरखे सच ही कहते थे-
स्वीकारें सच किन्तु क्षुब्ध हो नोचें कभी न अपने केश
*

कोई टिप्पणी नहीं: