मुक्तिका:
संजीव
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सत्य भी कुछ तो रहा उपहास में
दीन शशि से अधिक रवि खग्रास में
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श्लेष को कर शेष जब चलता किया
यमक की थी धमक व्यापी श्वास में
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उपन्यासों में बदल कर लघुकथा
दे रही संत्रास ही परिहास में
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आ गये हैं दिन यहाँ अच्छे 'सलिल'
बरसते अंगार हैं मधुमास में
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मदिर महुआ की कसम खाकर कहो
तृप्ति से ज़्यादा न सुख क्या प्यास में
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