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सोमवार, 2 नवंबर 2020

ब्रजभाषा

 ब्रजभाषा : एक परिचय 
ब्रजभाषा एक धार्मिक भाषा है, जो पश्चिमी उत्तर प्रदेश एवं उत्तराखंड में बोली जाती है। इसके अलावा यह भाषा हरियाणा, राजस्थान और मध्यप्रदेश के कुछ जनपदों में भी बोली जाती है। अन्य भारतीय भाषाओं की तरह ये भी संस्कृत से जन्मी है। इस भाषा में प्रचुर मात्रा में साहित्य उपलब्ध है। भारतीय भक्ति काल में यह भाषा प्रमुख रही। ब्रजभाषा में ही प्रारम्भ में काव्य की रचना हुई। सभी भक्त कवियों ने अपनी रचनाएं इसी भाषा में लिखी हैं जिनमें प्रमुख हैं सूरदास, रहीम, रसखान, केशव, घनानंद, बिहारी, इत्यादि। अपने विशुद्ध रूप में ब्रजभाषा आज भी भरतपुर, आगरा, धौलपुर, हिण्डौन सिटी, मथुरा, अलीगढ़, हाथरस, मैनपुरी, एटा, और मुरैना जिलों में बोली जाती है। इसे हम "केंद्रीय ब्रजभाषा" के नाम से भी पुकार सकते हैं। केंद्रीय ब्रजभाषा क्षेत्र के उत्तर पश्चिम की ओर बुलंदशहर जिले की उत्तरी पट्टी से इसमें खड़ी बोली की लटक आने लगती है। उत्तरी-पूर्वी जिलों अर्थात् बदायूँ और एटा जिलों में इसपर कन्नौजी का प्रभाव प्रारंभ हो जाता है। डॉ॰ धीरेंद्र वर्मा, "कन्नौजी" को ब्रजभाषा का ही एक रूप मानते हैं। दक्षिण की ओर ग्वालियर में पहुँचकर इसमें बुंदेली की झलक आने लगती है। पश्चिम की ओर गुड़गाँव तथा भरतपुर का क्षेत्र राजस्थानी से प्रभावित है।

ब्रज भाषा आज के समय में प्राथमिक तौर पर एक ग्रामीण भाषा है, जो कि मथुरा-भरतपुर केन्द्रित ब्रज क्षेत्र में बोली जाती है। यह मध्य दोआब के इन जिलों की प्रधान भाषा है: भरतपुर, मथुरा, आगरा, फ़िरोज़ाबाद, मैनपुरी, एटा, हाथरस, बुलंदशहर, गौतम बुद्ध नगर, अलीगढ़, पलवल, कासगंज। गंगा के पार इसका प्रचार बदायूँ, बरेली होते हुए नैनीताल की तराई, उत्तराखंड के ऊधम सिंह नगर जिले तक चला गया है। उत्तर प्रदेश के अलावा इस भाषा का प्रचार राजस्थान के भरतपुर, धौलपु,र हिण्डौन सिटी जिलों में भी है जिसके पश्चिम से यह राजस्थानी की उप-भाषाओं में जाकर मिल जाती है। हरियाणा में दिल्ली के दक्षिणी इलाकों फ़रीदाबाद जिला और गुड़गाँव और मेवात जिलों के पूर्वी भाग में भी बृज बोली जाती है 

अपने विशुद्ध रूप में ब्रजभाषा आज भी भरतपुर, आगरा, धौलपुर, हिण्डौन सिटी, मथुरा, अलीगढ़, हाथरस, मैनपुरी, एटा, और मुरैना जिलों में बोली जाती है। इसे हम "केंद्रीय ब्रजभाषा" के नाम से भी पुकार सकते हैं। केंद्रीय ब्रजभाषा क्षेत्र के उत्तर पश्चिम की ओर बुलंदशहर जिले की उत्तरी पट्टी से इसमें खड़ी बोली की लटक आने लगती है। उत्तरी-पूर्वी जिलों अर्थात् बदायूँ और एटा जिलों में इसपर कन्नौजी का प्रभाव प्रारंभ हो जाता है। डॉ॰ धीरेंद्र वर्मा, "कन्नौजी" को ब्रजभाषा का ही एक रूप मानते हैं। दक्षिण की ओर ग्वालियर में पहुँचकर इसमें बुंदेली की झलक आने लगती है। पश्चिम की ओर गुड़गाँव तथा भरतपुर का क्षेत्र राजस्थानी से प्रभावित है।






संजीव 'सलिल'




*

आँख में सपने सुनहरे झूलते हैं.

रूप लख भँवरे स्वयं को भूलते हैं.




झूमती लट नर्तकी सी डोलती है.

फिजा में रस फागुनी चुप घोलती है.




कपोलों की लालिमा प्राची हुई है.

कुन्तलों की कालिमा नागिन मुई है.




अधर शतदल पाँखुरी से रसभरे हैं.

नासिका अभिसारिका पर नग जड़े हैं.




नील आँचल पर टके तारे चमकते.

शांत सागर मध्य दो वर्तुल उमगते.




खनकते कंगन हुलसते गीत गाते.

राधिका है साधिका जग को बताते.




कटि लचकती साँवरे का डोलता मन.

तोड़कर चुप्पी बजी पाजेब बैरन.




सिर्फ तू ही तो नहीं मैं भी यहाँ हूँ.

खनखना कह बज उठी कनकाभ करधन.




चपल दामिनी सी भुजाएँ लपलपातीं.

करतलों पर लाल मेंहदी मुस्कुराती.




अँगुलियों पर मुन्दरियाँ नग जड़ी सोहें.

कज्जली किनार सज्जित नयन मोहें.




भौंह बाँकी, मदिर झाँकी नटखटी है.

मोरपंखी छवि सुहानी अटपटी है.




कौन किससे अधिक, किससे कौन कम है.

कौन कब दुर्गम-सुगम है?, कब अगम है?




पग युगल द्वय कब धरा पर?, कब अधर में?

कौन बूझे?, कौन-कब?, किसकी नजर में?




कौन डूबा?, डुबाता कब-कौन?, किसको?

कौन भूला?, भुलाता कब-कौन?, किसको?




क्या-कहाँ घटता?, अघट कब-क्या-कहाँ है?

क्या-कहाँ मिटता?, अमिट कुछ-क्या यहाँ है?




कब नहीं था?, अब नहीं जो देख पाये.

सब यहीं था, सब नहीं थे लेख पाये.




जब यहाँ होकर नहीं था जग यहाँ पर.

कब कहाँ सोता-न-जगता जग कहाँ पर?




ताल में बेताल का कब विलय होता?

नाद में निनाद मिल कब मलय होता?




थाप में आलाप कब देता सुनायी?

हर किसी में आप वह देता दिखायी?




अजर-अक्षर-अमर कब नश्वर हुआ है?

कब अनश्वर वेणु गुंजित स्वर हुआ है?




कब भँवर में लहर?, लहरों में भँवर कब?

कब अलक में पलक?, पलकों में अलक कब?




कब करों संग कर, पगों संग पग थिरकते?

कब नयन में बस नयन नयना निरखते?




कौन विधि-हरि-हर? न कोई पूछता कब?

नट बना नटवर, नटी संग झूमता जब.




भिन्न कब खो भिन्नता? हो लीन सब में.

कब विभिन्न अभिन्न हो? हो लीन रब में?




द्वैत कब अद्वैत वर फिर विलग जाता?

कब निगुण हो सगुण आता-दूर जाता?




कब बुलाता?, कब भुलाता?, कब झुलाता?

कब खिझाता?, कब रिझाता?, कब सुहाता?




अदिख दिखता, अचल चलता, अनम नमता.

अडिग डिगता, अमिट मिटता, अटल टलता.




नियति है स्तब्ध, प्रकृति पुलकती है.

गगन को मुँह चिढ़ा, वसुधा किलकती है.




आदि में अनादि बिम्बित हुआ कण में.

साsदि में फिर सांsत चुम्बित हुआ क्षण में.




अंत में अनंत कैसे आ समाया?

दिक् में दिगंत जैसे था समाया.




कंकरों में शंकरों का वास देखा.

और रज में आज बृज ने हास देखा.




मरुस्थल में महकता मधुमास देखा.

नटी नट में, नट नटी में रास देखा.




रास जिसमें श्वास भी था, हास भी था.

रास जिसमें आस, त्रास-हुलास भी था.




रास जिसमें आम भी था, खास भी था.

रास जिसमें लीन खासमखास भी था.




रास जिसमें सम्मिलित खग्रास भी था.

रास जिसमें रुदन-मुख पर हास भी था.




रास जिसको रचाता था आत्म पुलकित.

रास जिसको रचाता परमात्म मुकुलित.




रास जिसको रचाता था कोटि जन गण.

रास जिसको रचाता था सृष्टि-कण-कण.




रास जिसको रचाता था समय क्षण-क्षण.

रास जिसको रचाता था धूलि तृण-तृण..




रासलीला विहारी खुद नाचते थे.

रासलीला सहचरी को बाँचते थे.




राधिका सुधि-बुधि बिसारे नाचतीं थीं.

साधिका सब को नचातीं जाँचती थीं. 




'सलिल' ने निज बिंदु में वह छवि निहारी.

जग जिसे कहता है श्रीबांकेबिहारी.




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