मुक्तिका
*
ऋतुएँ रहीं सपना जगा।
मनु दे रहा खुद को दगा।।
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अपना नहीं अपना रहा।
किसका हुआ सपना सगा।।
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रखना नहीं सिर के तले
तकिया कभी पगले तगा।।
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कहना नहीं रहना सदा
मन प्रेम में नित ही पगा।।
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जिससे न हो कुछ वासता
अपना हमें वह ही लगा।।
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संजीव
२७-११-२०१८
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
शुक्रवार, 27 नवंबर 2020
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आचार्य संजीव वर्मा सलिल
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