Sunday, January 25, 2009
दोहा गाथा सनातन-पाठ ४- शब्द ब्रह्म उच्चार
पाठ ३ से आगे.....
अजर अमर अक्षर अजित, निराकार साकार
अगम अनाहद नाद है, शब्द ब्रह्म उच्चार
सकल सुरासुर सामिनी, सुणि माता सरसत्ति
विनय करीन इ वीनवुँ, मुझ तउ अविरल मत्ति
संवत् १६७७ में रचित ढोला मारू दा दूहा से उद्धृत माँ सरस्वती की वंदना के उक्त दोहे से इस पाठ का श्रीगणेश करते हुए विसर्ग का उच्चारण करने संबंधी नियमों की चर्चा करने के पूर्व यह जान लें कि विसर्ग स्वतंत्र व्यंजन नहीं है, वह स्वराश्रित है। विसर्ग का उच्चार विशिष्ट होने के कारण वह पूर्णतः शुद्ध नहीं लिखा जा सकता। विसर्ग उच्चार संबंधी नियम निम्नानुसार हैं-
१. विसर्ग के पहले का स्वर व्यंजन ह्रस्व हो तो उच्चार त्वरित "ह" जैसा तथा दीर्घ हो तो त्वरित "हा" जैसा करें।
२. विसर्ग के पूर्व "अ", "आ", "इ", "उ", "ए" "ऐ", या "ओ" हो तो उच्चार क्रमशः "ह", "हा", "हि", "हु", "हि", "हि" या "हो" करें।
यथा केशवः =केशवह, बालाः = बालाह, मतिः = मतिहि, चक्षुः = चक्षुहु, भूमेः = भूमेहि, देवैः = देवैहि, भोः = भोहो आदि।
३. पंक्ति के मध्य में विसर्ग हो तो उच्चार आघात देकर "ह" जैसा करें।
यथा- गुरुर्ब्रम्हा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः.
४. विसर्ग के बाद कठोर या अघोष व्यंजन हो तो उच्चार आघात देकर "ह" जैसा करें।
यथा- प्रणतः क्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नमः.
५. विसर्ग पश्चात् श, ष, स हो तो विसर्ग का उच्चार क्रमशः श्, ष्, स् करें।
यथा- श्वेतः शंखः = श्वेतश्शंखः, गंधर्वाःषट् = गंधर्वाष्षट् तथा
यज्ञशिष्टाशिनः संतो = यज्ञशिष्टाशिनस्संतो आदि।
६. "सः" के बाद "अ" आने पर दोनों मिलकर "सोऽ" हो जाते हैं।
यथा- सः अस्ति = सोऽस्ति, सः अवदत् = सोऽवदत्.
७. "सः" के बाद "अ" के अलावा अन्य वर्ण हो तो "सः" का विसर्ग लुप्त हो जाता है।
८. विसर्ग के पूर्व अकार तथा बाद में स्वर या मृदु व्यंजन हो तो अकार व विसर्ग मिलकर "ओ" बनता है।
यथा- पुत्रः गतः = पुत्रोगतः.
९. विसर्ग के पूर्व आकार तथा बाद में स्वर या मृदु व्यंजन हो तो विसर्ग लुप्त हो जाता है।
यथा- असुराःनष्टा = असुरानष्टा .
१०. विसर्ग के पूर्व "अ" या "आ" के अलावा अन्य स्वर तथा ुसके बाद स्वर या मृदु व्यंजन हो तो विसर्ग के स्थान पर "र" होगा।
यथा- भानुःउदेति = भानुरुदेति, दैवैःदत्तम् = दैवैर्दतम्.
११. विसर्ग के पूर्व "अ" या "आ" को छोड़कर अन्य स्वर और उसके बाद "र" हो तो विसर्ग के पूर्व आनेवाला स्वर दीर्घ हो जाता है।
यथा- ॠषिभिःरचितम् = ॠषिभी रचितम्, भानुःराधते = भानूराधते, शस्त्रैःरक्षितम् = शस्त्रै रक्षितम्।
उच्चार चर्चा को यहाँ विराम देते हुए यह संकेत करना उचित होगा कि उच्चार नियमों के आधार पर ही स्वर, व्यंजन, अक्षर व शब्द का मेल या संधि होकर नये शब्द बनते हैं। दोहाकार को उच्चार नियमों की जितनी जानकारी होगी वह उतनी निपुणता से निर्धारित पदभार में शब्दों का प्रयोग कर अभिनव अर्थ की प्रतीति करा सकेगा। उच्चार की आधारशिला पर हम दोहा का भवन खड़ा करेंगे।
दोहा का आधार है, ध्वनियों का उच्चार
बढ़ा शब्द भंडार दे, भाषा शिल्प सँवार
शब्दाक्षर के मेल से, प्रगटें अभिनव अर्थ
जिन्हें न ज्ञात रहस्य यह, वे कर रहे अनर्थ
गद्य, पद्य, पिंगल, व्याकरण और छंद
गद्य पद्य अभिव्यक्ति की, दो शैलियाँ सुरम्य
बिंब भाव रस नर्मदा, सलिला सलिल अदम्य
जो कवि पिंगल व्याकरण, पढ़े समझ हो दक्ष
बिरले ही कवि पा सकें, यश उसके समकक्ष
कविता रच रसखान सी, दे सबको आनंद
रसनिधि बन रसलीन कर, हुलस सरस गा छंद
भाषा द्वारा भावों और विचारों की अभिव्यक्ति की दो शैलियाँ गद्य तथा पद्य हैं। गद्य में वाक्यों का प्रयोग किया जाता है जिन पर नियंत्रण व्याकरण करता है। पद्य में पद या छंद का प्रयोग किया जाता है जिस पर नियंत्रण पिंगल करता है।
कविता या पद्य को गद्य से अलग तथा व्यवस्थित करने के लिये कुछ नियम बनाये गये हैं जिनका समुच्चय "पिंगल" कहलाता है। गद्य पर व्याकरण का नियंत्रण होता है किंतु पद्य पर व्याकरण के साथ पिंगल का भी नियंत्रण होता है।
छंद वह सांचा है जिसके अनुसार कविता ढलती है। छंद वह पैमाना है जिस पर कविता नापी जाती है। छंद वह कसौटी है जिस पर कसकर कविता को खरा या खोटा कहा जाता है। पिंगल द्वारा तय किये गये नियमों के अनुसार लिखी गयी कविता "छंद" कहलाती है। वर्णों की संख्या एवं क्रम, मात्रा, गति, यति आदि के आधार पर की गयी रचना को छंद कहते हैं। छंद के तीन प्रकार मात्रिक, वर्णिक तथा मुक्त हैं। मात्रिक व वर्णिक छंदों के उपविभाग सममात्रिक, अर्ध सममात्रिक तथा विषम मात्रिक हैं।
दोहा अर्ध सम मात्रिक छंद है। मुक्त छंद में रची गयी कविता भी छंदमुक्त या छंदहीन नहीं होती।
छंद के अंग
छंद की रचना में वर्ण, मात्रा, पाद, चरण, गति, यति, तुक तथा गण का विशेष योगदान होता है।
वर्ण- किसी मूलध्वनि को व्यक्त करने हेतु प्रयुक्त चिन्हों को वर्ण या अक्षर कहते हैं, इन्हें और विभाजित नहीं किया जा सकता।
मात्रा- वर्ण के उच्चारण में लगे कम या अधिक समय के आधार पर उन्हें ह्रस्व, लघु या छोटा तथा दीर्घ या बड़ा ऽ कहा जाता है।
इनकी मात्राएँ क्रमशः एक व दो गिनी जाती हैं।
उदाहरण- गगन = ।+। +। = ३, भाषा = ऽ + ऽ = ४.
पाद- पद, पाद तथा चरण इन शब्दों का प्रयोग कभी समान तथा कभी असमान अर्थ में होता है। दोहा के संदर्भ में पद का अर्थ पंक्ति से है। दो पंक्तियों के कारण दोहा को दो पदी, द्विपदी, दोहयं, दोहड़ा, दूहड़ा, दोग्धक आदि कहा गया। दोहा के हर पद में दो, इस तरह कुल चार चरण होते हैं। प्रथम व तृतीय चरण विषम तथा द्वितीय व चतुर्थ चरण सम कहलाते हैं।
गति- छंद पठन के समय शब्द ध्वनियों के आरोह व अवरोह से उत्पन्न लय या प्रवाह को गति कहते हैं। गति का अर्थ काव्य के प्रवाह से है। जल तरंगों के उठाव-गिराव की तरह शब्द की संरचना तथा भाव के अनुरूप ध्वनि के उतार चढ़ाव को गति या लय कहते हैं। हर छंद की लय अलग अलग होती है। एक छंद की लय से अन्य छंद का पाठ नहीं किया जा सकता।
यति- छंद पाठ के समय पूर्व निर्धारित नियमित स्थलों पर ठहरने या रुकने के स्थान को यति कहा जाता है। दोहा के दोनों चरणों में १३ व ११ मात्राओं पर अनिवार्यतः यति होती है। नियमित यति के अलावा भाव या शब्दों की आवश्यकता अनुसार चजण के बीच में भी यति हो सकती है। अल्प या अर्ध विराम यति की सूचना देते है।
तुक- दो या अनेक चरणों की समानता को तुक कहा जाता है। तुक से काव्य सौंदर्य व मधुरता में वृद्धि होती है। दोहा में सम चरण अर्थात् दूसरा व चौथा चरण सम तुकांती होते हैं।
गण- तीन वर्णों के समूह को गण कहते हैं। गण आठ प्रकार के हैं। गणों की मात्रा गणना के लिये निम्न सूत्र में से गण के पहले अक्षर तथा उसके आगे के दो अक्षरों की मात्राएँ गिनी जाती हैं। गणसूत्र- यमाताराजभानसलगा।
क्रम गण का नाम अक्षर मात्राएँ
१. यगण यमाता ऽऽ = ५
२. मगण मातारा ऽऽऽ = ६
३. तगण ताराज ऽऽ = ५
४. रगण राजभा ऽ ऽ = ५
५. जगण जभान ऽ = ४
६. भगण भानस ऽ = ४
७. नगण नसल = ३
८. सगण सलगा ऽ = ४
उदित उदय गिरि मंच पर, रघुवर बाल पतंग प्रथम पद
प्रथम विषम चरण यति द्वितीय सम चरण यति
विकसे संत सरोज सब, हरषे लोचन भ्रंग द्वितीय पद
आप बहुत अच्छी और आवश्यक जानकारी दे रहे हैं। आभार।
आचार्य और नियंत्रक से विनती..
चूँकि पाठ लम्बा होता है तो ये मुमकिन है कि लोग नहीं पढ़ पाते हों.. पढ़ लेते हों तो भी समझना मुश्किल हो जाता है... कम से कम मेरे लिये तो ये बात लागू होती है...क्योंकि मैं हिन्दी का कुछ भी नहीं जानता हूँ और मेरे लिये थोड़ा कठिन हो जाता है..
यदि हो सके तो सप्ताह में एक ही बार पाठ दिया करें.. ताकि समझने का कुछ समय तो मिले..
ऑफिस में ५ दिन काम करते हुए इस तरफ ध्यान लगाना थोड़ा कठिन है... आशा है आप मेरी बात का आशय समझ गये होंगे...
आप बीच बीच में कमेंट में दोहे लिख देते हैं.. उनसे बहुत कुछ सीखने को मिलता है.. जारी रखें...
धन्यवाद सहित...
क्रम गण का नाम अक्षर मात्राएँ
१. यगण यमाता ऽऽ = ५
२. मगण मातारा ऽऽऽ = ६
३. तगण ताराज ऽऽ = ५
४. रगण राजभा ऽ ऽ = ५
५. जगण जभान ऽ = ४
६. भगण भानस ऽ = ४
७. नगण नसल = ३
८. सगण सलगा ऽ = ४
क्रम गण का नाम अक्षर मात्राएँ
१. यगण यमाता 1 ऽऽ = ५
२. मगण मातारा ऽऽऽ = ६
३. तगण ताराज ऽऽ1 = ५
४. रगण राजभा ऽ 1 ऽ = ५
५. जगण जभान 1ऽ 1 = ४
६. भगण भानस ऽ 11 = ४
७. नगण नसल 111 = ३
८. सगण सलगा 11 ऽ = ४
पाठ छोटा रहे तो अच्छा होगा अंतर्जाल पर फुर्सत कम ही होती है
उदाहरण भी संस्कृत की बजाय हिन्दी के देंगे तो ग्राह्य होंगे
श्याम सखा `श्याम '
शब्द साधना से नहीं, श्रेष्ट साधना अन्य.
रमा रहा जो रमा में, उससे रुष्ट रमेश.
भक्ति-शक्ति से दूर वह, कैसे लखे दिनेश.
स्वागत में ऋतुराज के, दोहा कहिये मीत.
निज मन में उल्लास भर, नित्य लुटाएं प्रीत.
पाठ ४ के प्रकाशन के समय शहर से बाहर भ्रमण पर होने का कारण उसे पढ़कर तुंरत संशोधन नहीं करा सका.
गण संबंधी चर्चा में मात्राये गलत छप गयी हैं. डॉ. श्याम सखा 'श्याम' ने सही इंगित किया है. उन्हें बहुत-बहुत धन्यवाद.
गण का सूत्र 'यमाताराजभानसलगा' है.
हर अक्षर से एक गण बनता है, जो बाद के दो अक्षरों के साथ जुड़कर अपनी मात्राएँ बताता है.
य = यगण = यमाता = लघु+गुरु+गुरु = १+२+२ = ५
म = मगण = मातारा = गुरु+गुरु+गुरु = २+२+२ = ६
त = तगण = ताराज = गुरु+गुरु+लघु = २+२+१ = ५
र = रगण = राजभा = गुरु+लघु+गुरु = २+१+२ = ५
ज = जगण = जभान = लघु+गुरु+लघु = १+२+१ = ४
भ = भगण = भानस = गुरु+लघु+लघु = २+१+१ = ४
न = नगण = नसल = लघु+लघु+लघु = १+१+१ = ३
स = सगण = सलगा = लघु+लघु+गुरु = १+१+२ = ४
पाठ में टंकन की त्रुटि होने के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ. मैं अच्छा टंकक नहीं हूँ युग्म के लिए पहली बार यूंनिकोड में प्रयास किया है.अस्तु...
हिन्दी को पिंगल तथा व्याकरण संस्कृत से ही मिला है. इसलिए प्रारम्भ में उदाहरण संस्कृत से लिए हैं. पाठों की पुनरावृत्ति करते समय हिन्दी के उदाहरण लिए जाएँगे.
पाठ छोटे रखने का प्रयास किया जा रहा है.
आप एक गुणवान व्यक्तित्व जान पड़ते हैं |
अपने ज्ञान बाँटते रहिये ऐसा निवेदन है |
अवनीश
Thursday, January 08, 2009
दोहा गोष्ठी : ४ आया दोहा याद
दोहा सुहृदों का स्वजन, अक्षर अनहद नाद.
बिछुडे अपनों की तरह फ़िर-फ़िर आता याद.
बिसर गया था आ रहा, फ़िर से दोहा याद.
छोटे होगे पाठ यदि, होगा द्रुत संवाद.
अब से हर शनिवार को, पाठ रखेंगे मीत.
गप-गोष्ठी बुधवार को, नयी बनायें नित.
पाठ समझ करिए सबक, चार दिनों में आप.
यदि न रूचि तो बता दें, करुँ न व्यर्थ प्रलाप.
मात्र गणना का नहीं, किया किसी ने पाठ.
हलाकान गुरु हो रहा, शिष्य कर रहे ठाठ.
दोहा दिल का आइना:
दोहा दिल का आइना, कहता केवल सत्य.
सुख-दुःख चुप रह झेलता, कहता नहीं असत्य.
दोहा सत्य से आँख मिलाने का साहस रखता है. वह जीवन का सत्य पूरी निर्लिप्तता से कहता है-
पुत्ते जाएँ कवन गुणु, अवगुणु कवणु मुएण
जा बप्पी की भूः णई, चंपी ज्जइ अवरेण.
अर्थात्
अवगुण कोई न चाहता, गुण की सबको चाह.
चम्पकवर्णी कुंवारी, कन्या देती दाह.
प्रियतम की बेव फाई पर प्रेमिका और दूती का मार्मिक संवाद दोहा ही कह सकता है-
सो न आवै, दुई घरु, कांइ अहोमुहू तुज्झु.
वयणु जे खंढइ तउ सहि ए, सो पिय होइ न मुज्झु
यदि प्रिय घर आता नहीं. दूती क्यों नत मुख.
मुझे न प्रिय जो तोड़कर, वचन तुझे दे दुःख.
हर प्रियतम बेवफा नहीं होता. सच्चे प्रेमियों के लिए बिछुड़ना की पीड़ा असह्य होती है. जिस विरहणी की अंगुलियाँ पीया के आने के दिन गिन-गिन कर ही घिसी जा रहीं हैं उसका साथ कोई दे न दे दोहा तो देगा ही।
जे महु दिणणा दिअहडा, दइऐ पवसंतेण.
ताण गणनतिए अंगुलिऊँ, जज्जरियाउ नहेण.
जाते हुए प्रवास पर, प्रिय ने कहे जो दिन.
हुईं अंगुलियाँ जर्जरित, उनको नख से गिन.
परेशानी प्रिय के जाने मात्र की हो तो उसका निदान हो सकता है पर इन प्रियतमा की शिकायत यह है कि प्रिय गए तो मारे गम के नींद गुम हो गयी और जब आए तो खुशी के कारण नींद गुम हो गयी।
पिय संगमि कउ निद्दणइ, पियहो परक्खहो केंब?
मई बिन्नवि बिन्नासिया, निंद्दन एंव न तेंव.
प्रिय का संग पा नींद गुम, बिछुडे तो गुम नींद.
हाय! गयी दोनों तरह, ज्यों-त्यों मिली न नींद.
मिलन-विरह के साथ-साथ दोहा हास-परिहास में भी पीछे नहीं है. सारे जहां का दर्द हमारे जिगर में है अथवा मुल्ला जी दुबले क्यों? - शहर के अंदेशे से जैसी लोकोक्तियों का उद्गम शायद निम्न दोहा है जिसमें अपभ्रंश के दोहाकार सोमप्रभ सूरी की चिंता यह है कि दशानन के दस मुँह थे तो उसकी माता उन सबको दूध कैसे पिलाती होगी?
रावण जायउ जहि दिअहि, दहमुहु एकु सरीरु.
चिंताविय तइयहि जणणि, कवहुं पियावहुं खीरू.
एक बदन दस वदनमय, रावन जन्मा टाट.
दूध पिलाऊँ किस तरह, सोचे चिंतित मात.
दोहा सबका साथ निभाता है, भले ही इंसान एक दूसरे का साथ छोड़ दे. बुंदेलखंड के परम प्रतापी शूर-वीर भाइयों आल्हा-ऊदल के पराक्रम की अमर गाथा महाकवि जगनिक रचित 'आल्हा खंड' (संवत १२३०) का श्री गणेश दोहा से ही हुआ है-
श्री गणेश गुरुपद सुमरि, ईस्ट देव मन लाय.
आल्हखंड बरण करत, आल्हा छंद बनाय.
इन दोनों वीरों और युद्ध के मैदान में उन्हें मारनेवाले दिल्लीपति पृथ्वीराज चौहान के प्रिय शस्त्र तलवार के प्रकारों का वर्णन दोहा उनकी मूठ के आधार पर करता है-
पार्ज चौक चुंचुक गता, अमिया टोली फूल.
कंठ कटोरी है सखी, नौ नग गिनती मूठ.
कवि को नम्र प्रणाम:
राजा-महाराजा से अधिक सम्मान साहित्यकार को देना दोहा का संस्कार है. परमल रासो में दोहा ने महाकवि चाँद बरदाई को दोहा ने सदर प्रणाम कर उनके योगदान को याद किया-
भारत किय भुव लोक मंह, गणतीय लक्ष प्रमान.
चाहुवाल जस चंद कवि, कीन्हिय ताहि समान.
बुन्देलखंड के प्रसिद्ध तीर्थ जटाशंकर में एक शिलालेख पर डिंगल भाषा में १३वी-१४वी सदी में गूजरों-गौदहों तथा काई को पराजित करनेवाले विश्वामित्र गोत्रीय विजयसिंह का प्रशस्ति गायन कर दोहा इतिहास के अज्ञात पृष्ठ को उद्घाटित कर रहा है-
जो चित्तौडहि जुज्झी अउ, जिण दिल्ली दलु जित्त.
सोसुपसंसहि रभहकइ, हरिसराअ तिउ सुत्त.
खेदिअ गुज्जर गौदहइ, कीय अधी अम्मार.
विजयसिंह कित संभलहु, पौरुस कह संसार.
वीरों का प्यारा रहा, कर वीरों से प्यार.
शौर्य-पराक्रम पर हुआ'सलिल', दोहा हुआ निसार.
दोहा-मित्रों यह दोहा गोष्ठी समाप्त करते हैं एक दोहा से जो कथा समापन के लिए ही लिखा गया है-
कथा विसर्जन होत है, सुनहूँ वीर हनुमान.
जो जन जहां से आए हैं, सो तंह करहु पयान।
9 कविताप्रेमियों का कहना है :
इतने तन्मयता के साथ हम सब से यह सब बांटने के लिए धन्यवाद |
-- अवनीश तिवारी
ये सही है के मैंने प्रिंट आउट पढने के बाद भी गिनती नहीं सीखी. गणना का काम मुश्किल हो या नहीं ...पर पता नहीं क्यूं भाता नहीं है..
क्षमा
आपके लेखों को पढके आपकी निर्निमेष तन्मयता को पता चलता है और मैं नहीं चाहता कि आपका प्रयास कतई भी व्यर्थ हो। मेरा मानना है कि अगर पहले आप दोहा के व्याकरण के बारे में बता देंगे तो पाठक-गण रूचि लेकर दोहा-लेखन के इतिहास को भी पढेंगे।
उम्मीद करता हूँ कि आप मेरी बात का बुरा नहीं मानेंगे।
आदर सहित,
विश्व दीपक
मैं धीरे धीरे आपके पाठ पढ़ रहा हूँ। लेकिन हाँ एक गुजारिश जरूर है कि पाठ थोड़े से छोटे हों।
प्रणाम। आपकी दोहा की कक्षाएं प्रारम्भ से तो क्रमबद्ध तरीके से मेरे द्वारा ग्रहण नहीं की गयी लेकिन अभी एक माह से ही सम्पूर्ण कक्षाओं को मैंने पढ़ा है। बहुत सारी जानकारियां प्राप्त हो रही हैं। आप इसे निरन्तर रखिए, ऐसा मेरा अनुरोध है। कभी हमें लगता है कि हमें बहुत कुछ आता है, लेकिन जब कक्षा में पढ़ते हैं तब मालूम पड़ता है कि अरे हमें तो कुछ नहीं आता। आप सभी के इस निष्काम प्रयास के लिए ह्वदय से आभारी हूँ। आगामी कक्षा की प्रतिक्षा में।
अजित गुप्ता