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रविवार, 19 जनवरी 2020

ॐ छंद शाला पाठ २


छंद शाला

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

पाठ २

कथ्य भाव लय छंद है

*

(इस लेख माला का उद्देश्य नवोदित कवियों को छंदों के तत्वों, प्रकारों, संरचना, विधानों तथा उदाहरणों से परिचित कराना है। लेखमाला के लेखक आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ख्यात छन्दशास्त्री, नवगीतकार, लघुकथाकार, संपादक व् समालोचक हैं। सलिलजी ने ५०० से अधिक नए छंदों का अन्वेषण किया है। लेखमाला के भाग १ में छंद के तत्वों, दोहा सोरठा, रोला व् कुण्डलिया लेखन ने विधान व् उदाहरण बताए जा चुके हैं। - सं.)
*
काव्य शास्त्र है पुरातन :


काव्य शास्त्र चिर पुरातन, फिर भी नित्य नवीन। 
झूमे-नाचे मुदित मन, ज्यों नागिन सुन बीन।। 


लगभग ३००० साल प्राचीन भारतीय काव्यशास्त्र के अनुसार काव्य ऐसी रचना है जिसके शब्दों-अर्थों में दोष कदापि न हों, गुण अवश्य हों चाहे अलंकार कहीं-कहीं पर भी न हों। दिग्गज काव्याचार्यों ने काव्य को रमणीय अर्थमय चित्त को लोकोत्तर आनंद देने में समर्थ, रसमय वाक्य, काव्य को शोभा तथा धर्म को अलंकार, रीति (गुणानुकूल शब्द विन्यास/ छंद) को काव्य की आत्मा, वक्रोक्ति को काव्य का जीवन, ध्वनि को काव्य की आत्मा, औचित्यपूर्ण रस-ध्वनिमय, कहा है। काव्य (ग्रन्थ} या कविता (पद्य रचना) श्रोता या पाठक को अलौकिक भावलोक में ले जाकर जिस काव्यानंद की प्रतीति कराती हैं वह वस्तुतः शब्द, अर्थ, रस, अलंकार, रीति, ध्वनि, वक्रोक्ति, वाग्वैदग्ध्य, तथा औचित्य की समन्वित-सम्मिलित अभिव्यक्ति है।

उच्चार :

ध्वनि-तरंग आघात पर, आधारित उच्चार.
मन से मन तक पहुँचता, बनकर रस आगार.

ध्वनि विज्ञान सम्मत् शब्द व्युत्पत्ति शास्त्र पर आधारित व्याकरण नियमों ने संस्कृत और हिन्दी को शब्द-उच्चार से उपजी ध्वनि-तरंगों के आघात से मानस पर व्यापक प्रभाव करने में सक्षम बनाया है। मानव चेतना को जागृत करने के लिए रचे गए काव्य में शब्दाक्षरों का सम्यक् विधान तथा शुद्ध उच्चारण अपरिहार्य है। सामूहिक संवाद का सर्वाधिक लोकप्रिय एवं सर्व सुलभ माध्यम भाषा में स्वर-व्यंजन के संयोग से अक्षर तथा अक्षरों के संयोजन से शब्द की रचना होती है। मुख में ५ स्थानों (कंठ, तालू, मूर्धा, दंत तथा अधर) में से प्रत्येक से ५-५ व्यंजन उच्चारित किए जाते हैं।

सुप्त चेतना को करे, जागृत अक्षर नाद.
सही शब्द उच्चार से, वक्ता पाता दाद.

उच्चारण स्थान
वर्ग
कठोर(अघोष) व्यंजन
मृदु(घोष) व्यंजन




अनुनासिक
कंठ
क वर्ग
क्
ख्
ग्
घ्
ङ्
तालू
च वर्ग
च्
छ्
ज्
झ्
ञ्
मूर्धा
ट वर्ग
ट्
ठ्
ड्
ढ्
ण्
दंत
त वर्ग
त्
थ्
द्
ध्
न्
अधर
प वर्ग
प्
फ्
ब्
भ्
म्
विशिष्ट व्यंजन

ष्, श्, स्,
ह्य्, र्ल्व्

कुल १४ स्वरों में से ५ शुद्ध स्वर अ, इ, उ, ऋ तथा ऌ हैं. शेष ९ स्वर हैं आ, ई, ऊ, ऋ, ॡ, ए, ऐ, ओ तथा औ। स्वर उसे कहते हैं जो एक ही आवाज में देर तक बोला जा सके। मुख के अन्दर ५ स्थानों (कंठ, तालू, मूर्धा, दांत, होंठ) से जिन २५ वर्णों का उच्चारण किया जाता है उन्हें व्यंजन कहते हैं। किसी एक वर्ग में सीमित न रहने वाले ८ व्यंजन स्वरजन्य विशिष्ट व्यंजन हैं।

विशिष्ट (अन्तस्थ) स्वर व्यंजन :

य् तालव्य, र् मूर्धन्य, ल् दंतव्य तथा व् ओष्ठव्य हैं। ऊष्म व्यंजन- श् तालव्य, ष् मूर्धन्य, स् दंत्वय तथा ह् कंठव्य हैं।

स्वराश्रित व्यंजन: अनुस्वार ( ं ), अनुनासिक (चन्द्र बिंदी ँ) तथा विसर्ग (:) हैं।

संयुक्त वर्ण : विविध व्यंजनों के संयोग से बने संयुक्त वर्ण श्र, क्ष, त्र, ज्ञ, क्त आदि का स्वतंत्र अस्तित्व मान्य नहीं है।

मात्रा :
उच्चारण की न्यूनाधिकता अर्थात किस अक्षर पर कितना कम या अधिक भार ( जोर, वज्न) देना है अथवा किसका उच्चारण कितने कम या अधिक समय तक करना है ज्ञात हो तो लिखते समय सही शब्द का चयन कर दोहा या अन्य काव्य रचना के शिल्प को संवारा और भाव को निखारा जा सकता है। गीति रचना के वाचन या पठन के समय शब्द सही वजन का न हो तो वाचक या गायक को शब्द या तो जल्दी-जल्दी लपेटकर पढ़ना होता है या खींचकर लंबा करना होता है, किंतु जानकार के सामने रचनाकार की विपन्नता, उसके शब्द भंडार की कमी, शब्द ज्ञान की दीनता स्पष्ट हो जाती है. अतः, दोहा ही नहीं किसी भी गीति रचना के सृजन के पूर्व मात्राओं के प्रकार व गणना-विधि पर अधिकार कर लेना जरूरी है।

उच्चारण नियम :

उच्चारण हो शुद्ध तो, बढ़ता काव्य-प्रभाव.
अर्थ-अनर्थ न हो सके, सुनिए लेकर चाव.

शब्दाक्षर के बोलने, में लगता जो वक्त.
वह मात्रा जाने नहीं, रचनाकार अशक्त.

हृस्व, दीर्घ, प्लुत तीन हैं, मात्राएँ लो जान.
भार एक, दो, तीन लो, इनका क्रमशः मान.

१. हृस्व (लघु) स्वर : कम भार, मात्रा १ - अ, इ, उ, ऋ तथा चन्द्र बिन्दु वाले स्वर।

२. दीर्घ (गुरु) स्वर : अधिक भार, मात्रा २ - आ, ई, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ, अं।

३. बिन्दुयुक्त स्वर तथा अनुस्वारयुक्त या विसर्ग युक्त वर्ण भी गुरु होता है। यथा - नंदन, दु:ख आदि.

४. संयुक्त वर्ण के पूर्व का लघु वर्ण दीर्घ तथा संयुक्त वर्ण लघु होता है।

५. प्लुत वर्ण : अति दीर्घ उच्चार, मात्रा ३ - ॐ, ग्वं आदि। वर्तमान हिन्दी में अप्रचलित।

६. पद्य रचनाओं में छंदों के पाद का अन्तिम हृस्व स्वर आवश्यकतानुसार गुरु माना जा सकता है।

७. शब्द के अंत में हलंतयुक्त अक्षर की एक मात्रा होगी।

पूर्ववत् = पूर् २ + व् १ + व १ + त १ = ५

ग्रीष्मः = ग्रीष् 3 + म: २ +५

कृष्ण: = कृष् २ + ण: २ = ४

हृदय = १ + १ +२ = ४

अनुनासिक एवं अनुस्वार उच्चार :

उक्त प्रत्येक वर्ग के अन्तिम वर्ण (ङ्, ञ्, ण्, न्, म्) का उच्चारण नासिका से होने का कारण ये 'अनुनासिक' कहलाते हैं।

१. अनुस्वार का उच्चारण उसके पश्चातवर्ती वर्ण (बाद वाले वर्ण) पर आधारित होता है। अनुस्वार के बाद का वर्ण जिस वर्ग का हो, अनुस्वार का उच्चारण उस वर्ग का अनुनासिक होगा। यथा-

१. अनुस्वार के बाद क वर्ग का व्यंजन हो तो अनुस्वार का उच्चार ङ् होगा।

क + ङ् + कड़ = कंकड़,

श + ङ् + ख = शंख,

ग + ङ् + गा = गंगा,

ल + ङ् + घ् + य = लंघ्य

२. अनुस्वार के बाद च वर्ग का व्यंजन हो तो, अनुस्वार का उच्चार ञ् होगा.

प + ञ् + च = पञ्च = पंच

वा + ञ् + छ + नी + य = वांछनीय

म + ञ् + जु = मंजु

सा + ञ् + झ = सांझ

३. अनुस्वार के बाद ट वर्ग का व्यंजन हो तो अनुस्वार का उच्चारण ण् होता है.

घ + ण् + टा = घंटा

क + ण् + ठ = कंठ

ड + ण् + डा = डंडा

४. अनुस्वार के बाद 'त' वर्ग का व्यंजन हो तो अनुस्वार का उच्चारण 'न्' होता है.

शा + न् + त = शांत

प + न् + थ = पंथ

न + न् + द = नंद

स्क + न् + द = स्कंद

५ अनुस्वार के बाद 'प' वर्ग का व्यंजन हो तो अनुस्वार का उच्चार 'म्' होगा.

च + म्+ पा = चंपा

गु + म् + फि + त = गुंफित

ल + म् + बा = लंबा


कु + म् + भ = कुंभ

छंद ५. अचल छंद
*
अपने नाम के अनुरूप इस छंद में निर्धारित से विचलन की सम्भावना नहीं है. यह मात्रिक सह वर्णिक छंद है. इस चतुष्पदिक छंद का हर पद २७ मात्राओं तथा १८ वर्णों का होता है. हर पद (पंक्ति) में ५-६-७ वर्णों पर यति इस प्रकार है कि यह यति क्रमशः ८-८-११ मात्राओं पर भी होती है. मात्रिक तथा वार्णिक विचलन न होने के कारण इसे अचल छंद कहा गया होगा। छंद प्रभाकर तथा छंद क्षीरधि में दिए गए उदाहरणों में मात्रा बाँट १२१२२/१२१११२/२११२२२१ रखी गयी है. तदनुसार
सुपात्र खोजे, तभी समय दे, मौन पताका हाथ.
कुपात्र पाये, कभी न पद- दे, शोक सभी को नाथ..
कभी नवायें, न शीश अपना, छूट रहा हो साथ.
करें विदा क्यों, सदा सजल हो, नैन- न छोड़ें हाथ..
*
वर्ण तथा मात्रा बंधन यथावत रखते हुए मात्रा बाँट में परिवर्तन करने से इस छंद में प्रयोग की विपुल सम्भावनाएँ हैं.
मौन पियेगा, ऊग सूर्य जब, आ अँधियारा नित्य.
तभी पुजेगा, शिवशंकर सा, युगों युगों आदित्य..

छंद ६. पाँच मात्रिक याज्ञिक जातीय अभियान छंद 
*
विधान:
प्रति पद ५ मात्राएँ।
पदांत: जगण।
सूत्र: ल ज, लघु + जगण, लघु जभान, १ १२१।
उदाहरण:
गीत-
अठ याम  
कर काम।  
मत हार  
वर नाम।    
सपना न 
तज यार।  
तजना न 
मन प्यार।  
दिल को न    
झट वार। 
गर वार  
मत हार। 
बिसरा न  
परिणाम। 
अठ याम  
कर काम। 
करना न  
अभिमान। 
तजना न 
सम मान। 
मँगना न 
वरदान।  
कर पूर्ण  
अभियान।  
बन ख़ास  
मत आम।    
अठ याम  
कर काम। 

७. अमरकंटक छंद  
विधान-
१. प्रति पंक्ति ७ मात्रा
२. प्रति पंक्ति मात्रा क्रम लघु लघु लघु गुरु लघु लघु
गीत
नरक चौदस
.
मनुज की जय  
नरक चौदस
.
चल मिटा तम
मिल मिटा गम
विमल हो मन
नयन हों नम
पुलकती खिल
विहँस चौदस  
मनुज की जय
नरक चौदस
.
घट सके दुःख
बढ़ सके सुख
सुरभि गंधित
दमकता मुख
धरणि पर हो 
अमर चौदस 
मनुज की जय  
नरक चौदस
.
विषमता हर
सुसमता वर
दनुजता को
मनुजता कर
तब मने नित 
विजय चौदस  
मनुज की जय  
नरक चौदस
.
मटकना मत
भटकना मत
अगर चोटिल
चटकना मत
नियम-संयम
वरित चौदस
मनुज की जय  
नरक चौदस
.
बहक बादल
मुदित मादल
चरण नर्तित 
बदन छागल
नरमदा मन
'सलिल' चौदस 
मनुज की जय  
नरक चौदस

८. अचल धृति छंद
संजीव
*
छंद विधान: 
सूत्र: ५ न १ ल, ५ नगण १ लघु = ५ (१ + १ +१ )+१ 
       हर पद में १६ लघु मात्रा, १६ वर्ण
उदाहरण:
१. कदम / कदम / पर ठ/हर ठ/हर क/र
ठिठक / ठिठक / कर सि/हर सि/हर क/र
हुलस / हुलस / कर म/चल म/चल क/र
मनसि/ज सम / खिल स/लिल ल/हर क/र
२. सतत / अनव/रत प/थ पर / पग ध/र
अचल / फिसल / गर सँ/भल ठि/ठकक/र
रुक म/त झुक / मत चु/क मत / थक म/त
'सलिल' / विहँस/कर प्र/वह ह/हरक/र
९. आचमन छंद
*
विधान:
प्रति पद ५ मात्राएँ।
पदांत: जगण।
सूत्र: भ ल = भगण + लघु, भानस + लघु, २११ १।
       ग न = गुरु + नगण, गुरु + नसल, १ २११।
उदाहरण:
मुक्तिका-
 . 
प्यार कर 
वार कर।
.
जीत वर
हार कर।
.
मीत बन
प्रीत कर।
.
क्यों गलत
रीत कर?
.
हो अमर 
बीत कर।
भोर जग
ईद कर।

१०. इंद्र वज्रा छंद

इस द्विपदिक मात्रिक चतुःश्चरणी छंद के हर पद में २ तगण, १ जगण तथा २ गुरु मात्राएँ होती हैं. इस छंद का प्रयोग मुक्तक हेतु भी किया जा सकता है.
इन्द्रवज्रा एक पद = २२१ / २२१ / १२१ / २२ = ११ वर्ण तथा १८ मात्राएँ
उदाहरण:
१. तोड़ो न वादे जनता पुकारे
बेचो-खरीदो मत धर्म प्यारे
लूटो तिजोरी मत देश की रे!
चेतो न रूठे, जनता न मारे
२. नाचो-नचाओ मत भूलना रे!
आओ! न जाओ, कह चूमना रे!
माशूक अपनी जब साथ में हो-
झूमो, न भूले हँस झूलना रे!
३. पाया न / खोया न / रखा न / रोका
बोला न / डोला न / कहा न / टोंका
खेला न / झेला न / तजा न / हारा
तोडा न / फोड़ा न / पिटा न / मारा
४. आराम / ही राम / हराम / क्यों हो?
माशूक / के नाम / पयाम / क्यों हो?
विश्वास / प्रश्वास / नि:श्वास टूटा-
सायास / आभास / हुलास / झूठा
***
सन्दर्भ :

१. तद्दोशौ शब्दार्थो सगुणावनलंकृति पुनः क्वापि -- मम्मट, काव्य प्रकाश,

२. रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्दः काव्यम -- पं. जगन्नाथ,

३. लोकोत्तरानंददाता प्रबंधः काव्यनामभाक -- अम्बिकादत्त व्यास,
४. रसात्मकं वाक्यं काव्यं -- महापात्र विश्वनाथ,
५. काव्यशोभाकरान धर्मान अलंकारान प्रचक्षते -- डंडी, काव्यादर्श,
६. रीतिरात्मा काव्यस्य -- वामन, ९०० ई., काव्यालंकार सूत्र,
७. वक्रोक्तिः काव्य जीवितं -- कुंतक, १००० ई., वक्रोक्ति जीवित,
८. काव्यस्यात्मा ध्वनिरितिः, आनंदवर्धन, ध्वन्यालोक,
९. औचित्यम रस सिद्धस्य स्थिरं काव्यं जीवितं -- क्षेमेन्द्र, ११०० ई., औचित्य विचार चर्चा,

संपर्क : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन , जबलपुर ४८२००१ चलभाष - ९४२५१८३२४४ / ७९९९५५९६१८, ईमेल salil.sanjiv@gmail.com 

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