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बुधवार, 29 जनवरी 2020

आंकिक उपमान

आंकिक उपमान और छंद शास्त्र :


संजीव

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छंद शास्त्र में मात्राओं या वर्णों संकेत करते समय ग्रन्थों में आंकिक शब्दों का प्रयोग किया गया है। ऐसे कुछ शब्द नीचे सूचीबद्ध किये गये हैं। इनके अतिरिक्त आपकी जानकारी में अन्य शब्द हों तो कृपया, बताइये।

क्या नवगीतों में इन आंकिक प्रतिमानों का उपयोग इन अर्थों में किया जाना उचित होगा?

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एक - ॐ, परब्रम्ह 'एकोsहं द्वितीयोनास्ति', क्षिति, चंद्र, भूमि, नाथ, पति, गुरु, सिर, नाक, धड़, ललाट।

पहला - वेद ऋग्वेद, युग सतयुग, देव ब्रम्हा, वर्ण ब्राम्हण, आश्रम: ब्रम्हचर्य, पुरुषार्थ अर्थ,

इक्का, एकाक्षी काना, एकांगी इकतरफा, अद्वैत, एकत्व,



दो - देव: अश्विनी-कुमार। पक्ष: कृष्ण-शुक्ल। युग्म/युगल: प्रकृति-पुरुष, नर-नारी, जड़-चेतन। विद्या: परा-अपरा। इन्द्रियाँ: नयन/आँख, कर्ण/कान, कर/हाथ, पग/पैर। लिंग: स्त्रीलिंग, पुल्लिंग।

दूसरा- वेद: सामवेद, युग त्रेता, देव: विष्णु, वर्ण: क्षत्रिय, आश्रम: गृहस्थ, पुरुषार्थ: धर्म,

महर्षि: द्वैपायन/व्यास। द्वैत विभाजन,



तीन/त्रि - देव / त्रिदेव/त्रिमूर्ति: ब्रम्हा-विष्णु-महेश। ऋण : देव ऋण, पितृ-मातृ ऋण, ऋषि ऋण। अग्नि : पापाग्नि, जठराग्नि, कालाग्नि। काल : वर्तमान, भूत, भविष्य। गुण : सत्व, रजस, तम। दोष : वात, पित्त, कफ (आयुर्वेद)। लोक : स्वर्ग, भू, पाताल / स्वर्ग भूलोक, नर्क। त्रिवेणी / त्रिधारा : सरस्वती, गंगा, यमुना। ताप : दैहिक, दैविक, भौतिक। राम : श्री राम, बलराम, परशुराम। ऋतु : पावस/वर्षा शीत/ठंड ग्रीष्म/गर्मी। मामा : कंस, शकुनि, माहुल। व्रत : नित्य, नैमित्तिक, काम्य / मानस, कायिक, वाचिक। लय (संगीत) : विलंबित-लय, मध्य-लय एवं द्रुत-लय।
दिशाएं : आत्मिक, बौद्धिक, सांसारिक। आत्मिक निधियां- विवेक, पवित्रता, शांति हैं। बौद्धिक निधियां-  साहस, स्थिरता, कर्तव्यनिष्ठा। सांसारिक निधियां- स्वास्थ्य, समृद्धि, सहयोग। - आचार्य श्रीराम शर्मा। 
तीसरा- वेद: यजुर्वेद, युग द्वापर, देव: महेश, वर्ण: वैश्य, आश्रम: वानप्रस्थ, पुरुषार्थ: काम,

त्रिकोण, त्रिनेत्र = शिव, त्रिदल बेल पत्र, त्रिशूल, त्रिभुवन, तीज, तिराहा, त्रिमुख ब्रम्हा। त्रिभुज / त्रिकोण तीन रेखाओं से घिरा क्षेत्र।



चार - युग: सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग, कलियुग। धाम: बद्रीनाथ, जगन्नाथपुरी, रामेश्वरम धाम, द्वारिका। पीठ: शारदा पीठ द्वारिका, ज्योतिष पीठ जोशीमठ बद्रीधाम, गोवर्धन पीठ जगन्नाथपुरी, श्रृंगेरी पीठ। वेद : ऋग्वेद, अथर्वेद, यजुर्वेद, सामवेद। उपवेद: स्थापत्य (शिल्प), धनु, गंधर्व, आयुर्वेद। आश्रम : ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास। अंतःकरण : मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार। वर्ण : ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र। पुरुषार्थ : अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष। वर्ण (संगीत) : आरोही, अवरोही, स्थाई, संचारी। दिशा : पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण। फल : करौंदा (दस्त, ज्वर, पित्त), शहतूत (लू, कृमि, रक्त, सूजन)। अवस्था : शैशव/बचपन, कैशोर्य/तारुण्य, प्रौढ़ता, वार्धक्य। विकार/रिपु: काम, क्रोध, मद, लोभ। योग : हठ, लय, मंत्र, राजयोग।

अर्णव, अंबुधि, श्रुति,

चौथा - वेद: अथर्वर्वेद, युग कलियुग, वर्ण: शूद्र, आश्रम: सन्यास, पुरुषार्थ: मोक्ष,

चौराहा, चौगान, चौबारा, चबूतरा, चौपाल, चौथ, चतुरानन गणेश, चतुर्भुज विष्णु, चार भुजाओं से घिरा क्षेत्र।, चतुष्पद चार पंक्ति की काव्य रचना, चार पैरोंवाले पशु।, चौका रसोईघर, क्रिकेट के खेल में जमीन छूकर सीमाँ रेखा पार गेंद जाना, चार रन।



पाँच/पंच - गव्य : गाय का दूध, दही, घी, गोमूत्र, गोबर। देव : गणेश, विष्णु, शिव, देवी, सूर्य। तत्व / भूत : पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश। अमृत : दुग्ध, दही, घृत, मधु, नर्मदा/गंगा जल। अंग/पंचांग : तिथि, वार, योग, नक्षत्र, करण (ज्योतिष), जड़, छाल, पत्ती, फूल, फल (आयर्वेद), । पुरश्चरण : जप, होम, तर्पण, अभिषेक और भोजन (तंत्र)। नद : झेलम, चिनाब, रावी, सतलुज और व्यास। ज्ञानेन्द्रियाँ : आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा। कर्मेन्द्रियाँ : हाथ, पैर,आँख, कान, नाक। कन्या : अहल्या, तारा, मंदोदरी, कुन्ती, द्रौपदी।, प्राण : अपान, समान, प्राण, उदान, व्यान। उपप्राण : देवदत्त, वृकल, कूर्म, नाग, धनंजय।, शर : कामदेव के ५ बाण (धनुष गन्ने का, शहद की रस्सी, बाण सफेद-नीले कमल, चमेली व अशोक के फूल तथा आम की बौर से बने होते हैं) मारण, स्तम्भन, जृम्भन, चूषण, उन्मादन (मन्मथ)।, तिथि : नंदा, भद्रा, विजया, ऋक्ता, पूर्णा -वराह मिहिर। अणुव्रत : जैन अहिंसा, सत्य,अस्तेय, ब्रह्मचर्य,अपरिग्रह। बिड़ाल (बौद्ध प्रतिबंध) आलस्य, हिंसा, काम, विचिकित्सा, मोह। स्कंध (बौद्ध) : रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार, विज्ञान। शील : (भारत-चीन समझौता )एक दूसरे की अखंडता- संप्रुभता का सम्मान, एक दूसरे पर आक्रमण न करना, एक दूसरे के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना, समानता व परस्पर लाभकारी सम्बन्ध, शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व। स्नेह : घी, तेल, चरबी, मज्जा, मोम। सुगंधक : कपूर, शीतल चीनी, लौंग, अगर, जायफल। प्रणाम : घुटना, सिर, हाथ, छाती से पृथ्वी को स्पर्शकर आँखों से प्रणम्य को देखते हुए मुँह से प्रणाम शब्द का उच्चारण। कर्म : सहाय, साधन, उपाय, देश-कालभेद और विपत-प्रतिकार (राजनीतिशास्त्र)। कोष : अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनंदमय । ध्यान मुद्रा : अगोचरी, भूचरी, चाचरी, शाम्भवी, उन्मनी। नाड़ी : इड़ा. पिंगला, सुषुम्ना, वज्रा, ब्रह्म नाड़ी। बानी : दादू दयाल, हरिदास, नामदेव, कबीर, रैदास की रचनाएँ। राग गीतियाँ (संगीत) - शुद्धा, भिन्ना, गौड़ी, वेसरा, साधारणी। वाद्य (संगीत) : तत् वाद्य, तंतु वाद्य, सुषिर वाद्य, अवनद्घ वाद्य, घन वाद्य।



पांडव : पाण्डु के ५ पुत्र युधिष्ठिर भीम अर्जुन नकुल सहदेव।

पंचम वेद: आयुर्वेद।

पंजा, पंच, पंचायत, पंचमी, पंचक, पंचम: पांचवा सुर, पंजाब/पंचनद : पाँच नदियों का क्षेत्र, पंचानन = शिव, पंचभुज पाँच भुजाओं से घिरा क्षेत्र। व्रत : एक भुक्त एक समय आहार, अयाचित बिना मांगे जो मिले ग्रहण करना, मितभुक निर्धारित अल्प मात्रा १० ग्रास लेना, चांद्रायण तिथि अनुसार १५ से घटते हुए १ ग्रास लें, प्राजापत्य ३-३ दिन क्रमश: २२, २६, २४ ग्रास अंतिम ३ दिन निराहार।

कई एक आदमी । बहुत लोग । उदाहरण - मोरि बात सब बिधिहि बनाई । प्रजा पाँच कत करहु सहाई । - तुलसी

पंच - बिरादरी के मुखिया । उदाहरण - साँचे परे पाँचों पान पाँच में परै प्रमान, तुलसी चातक आस राम श्याम घन की । - तुलसी
मुहावरे- पाँच कोष नीचे कर देखो इनमें सार न जानी, पाँचों उँगलियाँ घी में होना= सब तरह का लाभ होना, पाँच सवारों में नाम लिखाना = खुद को न होते हुए भी श्रेष्ठ बताना। पञ्चाङ्गुल : [सं-पु.] - 1. अरंड या अंडी का पेड़ 2. तेजपत्ता 3. भूसा आदि बटोरने के लिए पाँचा नामक उपकरण। [वि.] 1. जिसमें पाँच उँगलियाँ हो 2. जो नाप में पाँच अंगुल का हो।

कामदेव का वास :

यौवनं स्त्री च पुष्पाणि सुवासानि महामते:।

गानं मधुरश्चैव मृदुलाण्डजशब्दक:।।

उद्यानानि वसन्तश्च सुवासाश्चन्दनादय:।

सङ्गो विषयसक्तानां नराणां गुह्यदर्शनम्।।

वायुर्मद: सुवासश्र्च वस्त्राण्यपि नवानि वै।

भूषणादिकमेवं ते देहा नाना कृता मया।।

मुद्गल पुराण के अनुसार कामदेव का वास यौवन, स्त्री, सुंदर फूल, सुगंध, गीत, मधुर शब्द, पराग कण या फूलों का रस, पक्षियों की मीठी आवाज, सुंदर बाग-बगीचों, वसंत ऋ‍तु, चंदन, काम-वासनाओं में लिप्त मनुष्य की संगति, छुपे अंग, सुहानी और मंद हवा, रहने के सुंदर स्थान, आकर्षक वस्त्र और सुंदर आभूषण धारण किए शरीरों में रहता है। इसके अलावा कामदेव स्त्रियों के शरीर में भी वास करते हैं, खासतौर पर स्त्रियों के नयन, ललाट, भौंह और होठों पर इनका प्रभाव काफी रहता है।



छह/षट/ षड - दर्शन : वैशेषिक, न्याय, सांख्य, योग, पूर्व मीसांसा, दक्षिण मीसांसा।, कर्म : धौति, वस्ति, नेति, नौलि, कपालभाति, त्राटक (स्थिति- मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धाख्य, आज्ञाचक्र) ।, तांत्रिक षडकर्म : शांति कर्म, वशीकरण, स्तंभन, विद्वेषण, उच्चाटन और मारण। राग (संगीत) :  भैरव, मालकौंस, हिन्डोल, श्रीराग, दीपक और मेघ। पर्व : कृषि, ऋतु, कामना, राष्ट्रीय, जयंती, श्रद्धांजलि। रस (स्वाद) : मधुर, अम्ल, लवण, कटु, तिक्त तथा कसाय।, शास्त्र : न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग मीमांसा, वेदांत।, ऋतु : वर्षा, शीत, ग्रीष्म, हेमंत, वसंत, शिशिर।, वेदांग : शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद, ज्योतिष।, अलिपद : भँवरा (६ पैर)। यंत्र : जारण, मारण, उच्चाटन, मोहन, स्तंभन, विध्वंसन। अरि : काम, कोध, लोभ, मोह, भय, शोक।, अग्नि : गार्हपत्य, आहवनीय, दक्षिणाग्नि, सभ्य, आवसथ्य, औपासन (जैमिनी,मीमांसासूत्र हवि:प्रक्षेपणाधिकरण)।,

षडानन कार्तिकेय, षट्कोण छह भुजाओं से घिरा क्षेत्र।



सात/सप्त - ऋषि - विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ एवं कश्यप। पुरी- अयोध्या, मथुरा, मायापुरी हरिद्वार, काशी वाराणसी , कांची (शिन कांची - विष्णु कांची), अवंतिका उज्जैन और द्वारिका। चक्र : मूलाधार (गुदा और लिंग के बीच), स्वाधिष्ठान (लिंग मूल), मणिपूर  (नाभि), अनाहत (हृदय), विशुद्धख्य (कण्ठ), आज्ञा  (भ्रूमध्य, भ्रकुटी), सहस्रार (मस्तिष्क मध्य शिखा), स्वर संगीत : षड्ज, ऋषभ, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत, निषाद (सा रे गा मा पा धा नी), रंग : सफ़ेद, हरा, नीला, पीला, लाल, काला।, नग/रत्न : हीरा, मोती, पन्ना, पुखराज, माणिक, गोमेद, मूँगा। सागर (विष्णु पुराण) : खारे पानी, इक्षुरस, मदिरा, घृत, दधि, दुग्ध और मीठे जलद्वीप : जम्बू द्वीपप्लक्ष द्वीपशाल्मल द्वीपकुश द्वीपक्रौंच द्वीपशाक द्वीपपुष्कर द्वीप पर्वत :हिमालय,  विंध्याचल, गोवर्धन, कैलाश, माउंटआबू, चामुंडा पहाड़ी, गब्बर। लोक : भूर्लोक, भुव- र्लोक, स्वर्लोंक, महर्लोक, जनलोक, तपोलोक और सत्यलोक । शरीर बॉडी : स्थूल फिजिकल, सूक्ष्म इथरिक, कारण एस्ट्रल, मानस मेन्टल, आत्मिक स्पिरिचुअल, देव कॉस्मिक, ब्रह्म वाडीनैस। धातु आयुर्वेद : रस, रक्‍त, मांस, मेद, अस्थि, मज्‍जा, शुक्र धातु / सोना, चाँदी, ताँबा, राँगा, लोहा, सीसा और जस्ता:।, उपधातु : सोनामाखी, रूपामाखी, तूतिया, काँसा, पीतल, सिंदूर और शिलाजतु।  अश्व (सूर्य के) छंद : गायत्री, बृहती, उष्णिक्, जगती, पंक्ति, अनुष्टुप्र, त्रिष्टुप। पुरी : अयोध्या, मथुरा, उज्जैन, वाराणसी, द्वारका, हरिद्वार, कांची। अग्नि की जिव्हा : काली, कराली, मनोजवा, सुलोहिता, धूम्रवर्णा, उग्रा, प्रदीप्ता। दिन : सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, रवि।  
सप्ताह = सात दिन, सप्तमी सातवीं तिथि, सप्तपदी सात फेरे,



आठ/अष्ट - वसु- धर, ध्रुव, सोम, अह, अनिल, अनल, प्रत्युष और प्रभाष। योग- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि। लक्ष्मी - आग्घ, विद्या, सौभाग्य, अमृत, काम, सत्य , भोग एवं योग लक्ष्मी। नाग: अनंत (शेष), वासुकि, तक्षक, कर्कोटक, पद्म, महापद्म, शंख कुलिक। कंठ दोष (संगीत) : रुक्ष, स्फुटित, नि:सार, काकोली, केटि, केणि, कृष, भग्न - संगीत रत्नाकर। अष्टांग राग के (संगीत)- स्वर, गीत, ताल और लय, आलाप, तान, मींड, गमक एवं बोलआलाप और बोलतान ।, अष्टांग योग : 'बहिरंग' (यम, नियम, आसन, प्राणायाम तथा प्रत्याहार)+ अंतरंग  (धारणा, ध्यान, समाधि)- पतंजलि। 
सिद्धियाँ : अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्रकाम्य, ईशत्व, वशित्व। अणिमा महिमा चैव लघिमा गरिमा तथा | प्राप्तिः प्राकाम्यमीशित्वं वशित्वं चाष्ट सिद्धयः ||
१. अणिमा : अष्ट सिद्धियों में सबसे पहली सिद्धि अणिमा हैं, जिसका अर्थ! अपने देह को एक अणु के समान सूक्ष्म करने की शक्ति से हैं।जिस प्रकार हम अपने नग्न आंखों से एक अणु को नहीं देख सकते, उसी तरह अणिमा सिद्धि प्राप्त करने के पश्चात दुसरा कोई व्यक्ति सिद्धि प्राप्त करने वाले को नहीं देख सकता हैं। साधक जब चाहे एक अणु के बराबर का सूक्ष्म देह धारण करने में सक्षम होता हैं।
२. महिमा : अणिमा के ठीक विपरीत प्रकार की सिद्धि हैं महिमा, साधक जब चाहे अपने शरीर को असीमित विशालता करने में सक्षम होता हैं, वह अपने शरीर को किसी भी सीमा तक फैला सकता हैं।
३. गरिमा : इस सिद्धि को प्राप्त करने के पश्चात साधक अपने शरीर के भार को असीमित तरीके से बढ़ा सकता हैं। साधक का आकार तो सीमित ही रहता हैं, परन्तु उसके शरीर का भार इतना बढ़ जाता हैं कि उसे कोई शक्ति हिला नहीं सकती हैं।
४. लघिमा : साधक का शरीर इतना हल्का हो सकता है कि वह पवन से भी तेज गति से उड़ सकता हैं। उसके शरीर का भार ना के बराबर हो जाता हैं।
५. प्राप्ति : साधक बिना किसी रोक-टोक के किसी भी स्थान पर, कहीं भी जा सकता हैं। अपनी इच्छानुसार अन्य मनुष्यों के सनमुख अदृश्य होकर, साधक जहाँ जाना चाहें वही जा सकता हैं तथा उसे कोई देख नहीं सकता हैं।
६. प्रकाम्य : साधक किसी के मन की बात को बहुत सरलता से समझ सकता हैं, फिर सामने वाला व्यक्ति अपने मन की बात की अभिव्यक्ति करें या नहीं।
७. ईशत्व : यह भगवान की उपाधि हैं, यह सिद्धि प्राप्त करने से पश्चात साधक स्वयं ईश्वर स्वरूप हो जाता हैं, वह दुनिया पर अपना आधिपत्य स्थापित कर सकता हैं।
८. वशित्व : वशित्व प्राप्त करने के पश्चात साधक किसी भी व्यक्ति को अपना दास बनाकर रख सकता हैं। वह जिसे चाहें अपने वश में कर सकता हैं या किसी की भी पराजय का कारण बन सकता हैं।


गज = १. हाथी, २. गजासुर राक्षस(महिषासुर का पुत्र), ३. एक बंदर जो रामचंद्र की सेना में था, ४. आठ की संख्या, ५. मकान की नींच या पुश्ता, ६. ज्योतिष में नक्षत्रों की वीथियों में से एक, ७. लंबाई नापने की एक प्राचीन माप जो साधारणतः ३० अंगुल की होती थी [को॰] । गज २ संज्ञा पुं॰ [फा़॰ गज]
चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण, ता ऊपर सुल्तान है मत चुके चौहान


१. लंबाई नापने की एक माप जो सोलह गिरह या तीन फुट की होती है । विशेष - गज कई प्रकार का होता है जिससे कपड़ा, जमीन, लकड़ी, दीवार आदि नापी जाती है । पुराने समय से भिन्न भिन्नः प्रांतों तथा भिन्न भिन्न व्यवसायों में भिन्न भिन्न माप के गज प्रचलित थे और उनके नाम भी अलग अलग थे । उनका प्रचार अभी भी है । सरकारी गज ३ फुट या ३६ इंच का होता है । कपड़ा नापने का गज प्रायः लोहे की छड़ या लकड़ी का होता है जिसमें १६ गिरहें होती हैं और चार चार गिरहों पर चौपाटे का चिह्न होता है । कोई कोई २० गिरह का भी होती है । राजगीरों का गज लकड़ी का होता है और उसमें १४ तसू होते हैं । एक एक इंच के बराबर तसू होता है । यही गज बढ़ई भी काम में लाते हैं । अब इसकी जगह विशेषकर विलायती दो फुटे से काम लिया जाता है । दर्जियों का गज कपड़े के फीते का होता है, जिसमें गिरह के चिह्न बने होते हैं । मुहा॰—गजभर = बनियों की बोलचाल में एक रुपए में सोलह सेर का भाव । गज भर की छाती होना = बहुत प्रसन्नता या संमान का बोध करना । गज भर की जबान होना = बड़बोला होना । उ॰—क्यों जान के दुश्मन हुए हो, इतनी सी जान गज भर की जबान—फिसाना॰, भा॰३, पृ॰ २१९ ।



२. वह पतली लकड़ी जो बैलगाड़ी के पाहिए में मूँड़ी से पुट्ठी तक लगाई जाती है । विशेष—यह आरे से पतली होती है और मूँड़ी के अंदर आरे को छेदकर लगाई जाती है । यह पुट्ठी और औरों को मूड़ी में जकड़े रहती है । गज चार होते हैं ।

३. लोहे या लकड़ी की वह छड़ जिससे पुराने ढंग की बंदूक में ठूसी जाती है । क्रि॰ प्र॰—करना ।

४. कमानी, जिससे सारंगी आदि बजाते हैं ।

५. एक प्रकार का तीर जिसमें पर और पैकान नहीं होता ।

६. लकड़ी की पटरी जो घोड़ियों के ऊपर रखी जाती है ।। दिशा: पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ईशान, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य।, याम: ।,

अष्टमी आठवीं तिथि, अष्टक आठ ग्रहों का योग, अष्टांग: ।,

अठमासा आठ माह में उत्पन्न शिशु,



नौ - दुर्गा - शैल पुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायिनी, कालरात्रि, महागौरी एवं सिद्धिदात्री। ग्रह : सूर्य/रवि , चन्द्र/सोम, गुरु/बृहस्पति, मंगल, बुध, शुक्र, शनि, राहु, केतु।, निधि १. - पद्म निधि, महापद्म निधि, नील निधि, मुकुंद निधि, नंद निधि, मकर निधि, कच्छप निधि, शंख निधि खर्व या मिश्र निधि। २. परकाया प्रवेश, हादी विद्या, कादी विद्या, वायु गमन, मदलसा, कनकधर, प्रक्य साधना, सूर्य विज्ञान, मृत संजीवनी।,
हवन कुंड : मनोकामना पूर्ति चतुरस्त्र कुंड,  पुत्र प्राप्ति योनि कुंड, ज्ञान प्राप्ति आचार्य कुंड, शत्रु नाश त्रिकोण कुंड, व्यापार वृद्धि वृत्त कुंड, मन की शांति अर्द्धचंद्र कुंड, लक्ष्मी प्राप्ति के लिए समअष्टास्त्र कुंड, विषम अष्टास्त्र कुंड, विषम षडास्त्र कुंड।, नन्द : उग्रसेन, पाण्डुक, पाण्डुगति, भूतपाल, राष्ट्रपाल, गोविश्नक, दाससिद्धक, कैवर्त तथा घनानंद। ।, विविर : ।, भक्ति: श्रवण (परीक्षित), कीर्तन (शुकदेव), स्मरण (प्रह्लाद), पादसेवन (लक्ष्मी), अर्चन (पृथुराजा), वंदन (अक्रूर), दास्य (हनुमान), सख्य (अर्जुन) और आत्मनिवेदन (बलि राजा)।, नग : ।, मास : ।, रत्न ।, रंग ।, द्रव्य ।, तंत्र प्रयोग : मारण, मोहन, स्तंभन, विद्वेषण, उच्चाटन, वशीकरण, आकर्षण, यक्षिणी साधना, रसायन क्रिया। 

नौगजा नौ गज का वस्त्र/साड़ी।, नौरात्रि शक्ति ९ दिवसीय पर्व।, नौलखा नौ लाख का (हार)।,

नवमी ९ वीं तिथि।,
अष्ट सिद्धि नव निधि के दाता - हनुमान चालीसा।
अंक माहात्म्य (१-९)
*
शून्य जन्म दे सृष्टि को, सकल सृष्टि है शून्य
शून्य जुड़े घट शून्य हो, गुणा-भाग भी शून्य
*
एक ईश रवि शशि गगन, भू मैं तू सिर एक
गुणा-भाग धड़-नासिका, है अनेक में एक
*
दो जड़-चेतन नार-नर, कृष्ण-शुक्ल दो पक्ष
आँख कान कर पैर दो, अधर-गाल समकक्ष
*
तीन देव व्रत राम त्रय, लोक काल ऋण तीन
अग्नि दोष-गुण ताप ऋतु, धारा मामा तीन
*
चार धाम युग वेद रिपु, पीठ दिशाएँ चार
वर्ण आयु पुरुषार्थ चौ, चौका चौक अचार
*
पाँच देव नद अंग तिथि, तत्व अमिय शर पाँच
शील सुगंधक इन्द्रियाँ, कन्या नाड़ी साँच
*
छह दर्शन वेदांग ऋतु, शास्त्र पर्व रस कर्म
षडाननी षड राग हे, षड अरि-यंत्र न धर्म
*
सात चक्र ऋषि द्वीप स्वर, सागर पर्वत रंग
लोक धातु उपधातु दिन, अश्व अग्नि शुभ अंग
*
अष्ट लक्ष्मी सिद्धि वसु, योग कंठ के दोष
योग-राग के अंग अठ, आत्मोन्नति जयघोष
*
नौ दुर्गा ग्रह भक्ति निधि, हवन कुंड नौ तंत्र
साड़ी मोहे नौगजी, हार नौलखा मंत्र
*


नवग्रह ,नौ छंद,नौ रस,नौ दुर्गा, नौ नाडी,नौ हव्य,
नौ सिद्धि, नौ निधि ,नौ रत्न, नौ छवि ,नौ द्रव्य
नवधा भक्ति ....श्रवण ,कीर्तन,स्मरण ,पादसेवन ,अर्चन ,वंदन ,दास्य ,सख्य,आत्मनिवेदन
नौ सिद्धि .......ब्राह्मी, वैष्णवी, रौद्री, महेश्वरी, नार सिंही, वाराही, इन्द्रानी, कार्तिकी, सर्वमंगला
नौ निधि,,,पद्म, महापद्म, शंख, मकर, कच्छप ,मुकुंद ,कुंद, नील, ख़राब
नौ रत्न,,,मानक, मोती, मूंगा, वैदूर्य ,गोमेद, हीरा, पद्मराग, पन्ना, नीलम
नौ दुर्गा ....शैलपुत्री ,ब्रह्मचारिणी ,चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, काल रात्री, महागौरी, सिद्धिदात्री
नौ गृह.....सूर्य, चन्द्रमा ,भौम ,बुध ,गुरु ,शुक्र ,शनि ,राहू ,केतु
नौ छंद....दोहा, सोरठा,चौपाई ,हरिगीतिका ,त्रिभंगी ,नाग स्वरुपिनी ,तोमर ,भुजन्ग्प्रयत ,तोटक
नौ छवि....द्दृती, लावण्य, स्वरुप, सुंदर, रमणीय, कांटी, मधुर, मृदु, सुकुमार
नौ द्रव्य ....पृथ्वी, जल, तेज ,वायु ,नभ ,काल, दिक्, आत्म, मन
काव्य शाश्त्र के नौ रस ....श्रृंगार, हास्य ,करुण ,रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स ,अद्भुत ,शांत
नौ हव्य....घृत ,दुग्ध, दधि, मधु,चीनी, तिल ,चावल, यव, मेवा
नौ नाडी ....इडा, पिंगला, सुषुम्ना, गांधारी, गज, जिम्हा ,पुष्प, प्रसादा, शनि ,शंखिनी
पृथवी के नौ खंड ..किम्पुरुष ,इलावृत ,रम्यक ,हिरंमय , कुरु, हरी, भारत,केतुमाल, भाद्रक्ष
शरीर के नौ द्वार ...दो नेत्र ,दो नाक दो कान ,मुख, गुदा, उपस्थ
किसी ब्यक्ति के घर आने पर नौ अमृत खर्च करे ...मीठे वचन ,सौम्य दृष्टि ,सौम्य मुख ,सौम्य मन ,खड़ा होना, स्वागत करना ,प्रेम से बात चीत करना ,पास बैठना ,जाते समय पीछे पीछे जाना
नौ बातें उन्नति में बाधक है .....चुगली या निंदा करना ,परस्त्री सेवन ,क्रोध ,दुसरे का बुरा करना ,अप्रिय करना झूठ ,द्वेश,दंभ ,जाल रचना
धर्म रूप नवक....सत्य, शौच, अहिंसा, क्षमा, दान, दया, मन का निग्रह, अस्तेय,इन्द्रियों का निग्रह
नौ प्रकार की जीविका निषिद्ध मानी गई है...भीख, नट, नृत्य,भांड ,कुटनी, वेश्या ,रिश्वत ,जुआ, चोरी
नौ कर्म नहीं छोड़ने चाहिए ...संध्या स्नान ,जप, हवन ,यज्ञ,दान, पूजा ,ब्रह्मचर्य ,अहिंसा
नौ ब्यक्तियों को क्रोध नहीं करना चाहिए ....शश्त्री,मर्मी, प्रभु, शठ ,धनी, वैध,वंदी, कवि ,चतुर मानस
नौ स्थान भ्रष्ट होने पर शोभा नहीं पाते ....राजा ,कुलवधू ,विप्र ,मंत्री ,स्तन ,डांट ,केश ,नख ,मनुष्य
गोस्वामी तुलसी दास जी ने रामचरित मानस में सर्वप्रथम नौ देवों की वंदना की ...गणेश ,सरस्वती ,भवानी ,शंकर ,गुरु ,वाल्मीकि ,हनुमान ,सीता ,श्री राम
ब्रह्मण के नौ गुण....अंत :करणका निग्रह करना ,इन्द्रियों का दमन करना,धर्मपालन के लिये कष्ट सहना ,बहार भीतर से शुद्ध रहना ,दूसरों के अपराधों को क्षमा करना ,मन इन्द्रिय और शरीर को सरल रखना ,वेद ,ईश्वर ,शाश्त्र ,ईश्वर ,परलौक आदि में श्रद्धा रखना ,वेद शाश्त्रों का अध्यन ,अद्ध्यापन करना परमात्मा के तत्वों का अनुभव करना
नौ सम्बन्धी ...धैर्य पिता , क्षमा माता, नित्य शान्ति स्त्री ,सत्य पुत्र ,दया भगिनी ,मन :संयम भ्राता, भूमितल सुकोमल शय्या ,दिशाएँ वस्त्र ,ज्ञाना मृत भोजन ,
९,१८,२७,३६,४५,....पहाड़े की हर संख्या नौ रहती है यथा ..
९,१+८=९,२+७=९,३+६=९,४+५=९....आदि
हिंदी या संस्कृत की वर्ण माला में दो भेद होते हैं एक स्वर दूसरा व्यंजन .अ से अ :तक १२ स्वर और क से ह तक ३३ व्यंजन कुल मिला कर ४५ जो ४+५=९ बनाते है I

ब्रह्म में चार अक्षरों का समन्वय है ब=२३(तेइसवां व्यंजन),र =२७,ह =३३,म =२५,चारों अक्षरों का जोड़ है १०८ ,१+०+८=९ बनाता हैI
जब ब्रह्म पूर्ण है तो संसार अपना मूल्य कम क्या रखेगा.....
स=३२,अं=१५,स=३२ ,आ =२,र=२७,कुल मिला कर हुए १०८ ,१+०+८=९
जब ब्रह्म और संसार तुल्य है तब संसार के चारो युग भी अपना अधिकार कम क्यों करें I
सत्ययुग ...१७२८०००=१+७+२+८=१८=१+८=९
त्रेता युग ...१२९६०००=१+२+९+६=१८=१+८=९
द्वापर युग ...८६४०००=८+६+४=१८=१+८=९
कलयुग ...४३२०००=४+३+२=९

चारो युग की सामूहिक वर्ष संख्या है ४३२००००=४+३+२=९

दस - दिशा : पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ईशान, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य, पृथ्वी, आकाश।, इन्द्रियाँ : ५ ज्ञानेन्द्रियाँ, ५ कर्मेन्द्रियाँ।, अवतार - मत्स्य, कच्छप, वराह, नरसिंह, वामन, परशुराम, श्री राम, कृष्ण, बुद्ध, कल्कि। थाट (संगीत)- कल्याण, बिलावल, खमाज, भैरव, पूर्वी, मारवा काफी, आसावरी, भैरवी, तोड़ी।

दशमुख/दशानन/दशकंधर/दशबाहु रावण।, दष्ठौन शिशु जन्म के दसवें दिन का उत्सव।, दशमी १० वीं तिथि।, दीप: ।, दोष: ।, दिगपाल: ।



ग्यारह - रुद्र : हर, बहुरुप, त्र्यंबक, अपराजिता, बृषाकापि, शँभु, कपार्दी, रेवात, मृगव्याध, शर्वा और कपाली।

एकादशी ११ वीं तिथि,



बारह - आदित्य : धाता, मित, आर्यमा, शक्र, वरुण, अँश, भाग, विवस्वान, पूष, सविता, तवास्था और विष्णु।, ज्योतिर्लिंग - सोमनाथ राजकोट, मल्लिकार्जुन, महाकाल उज्जैन, ॐकारेश्वर खंडवा, बैजनाथ, रामेश्वरम, विश्वनाथ वाराणसी, त्र्यंबकेश्वर नासिक, केदारनाथ, घृष्णेश्वर, भीमाशंकर, नागेश्वर। उपनिषद : ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छान्दोज्ञ, कौषीतकी, वृहदारण्यक, श्वेताश्वर। स्वर (संगीत) : सा, रे कोमल, रे शुद्ध, ग कोमल, ग शुद्ध, म शुद्ध, म तीव्र, पंचम, ध कोमल, ध शुद्ध, नि कोमल और नि शुद्ध। 

मास : चैत्र/चैत, वैशाख/बैसाख, ज्येष्ठ/जेठ, आषाढ/असाढ़ श्रावण/सावन, भाद्रपद/भादो, अश्विन/क्वांर, कार्तिक/कातिक, अग्रहायण/अगहन, पौष/पूस, मार्गशीर्ष/माघ, फाल्गुन/फागुन। राशि : मेष, वृषभ, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ, कन्यामेष, वृषभ, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या।, आभूषण: बेंदा, वेणी, नथ,लौंग, कुण्डल, हार, भुजबंद, कंगन, अँगूठी, करधन, अर्ध करधन, पायल. बिछिया।, काम-स्थान : कुंतल, कटाक्ष, कपोल, अधर, कुच, नाभि, जंघमूल (योनि), जंघा, कोयल की कूक, चाँदनी, सावन, फागुन।

द्वादशी १२ वीं तिथि।, बारादरी ।, बारह आने।



तेरह - भागवत: ।, नदी: ।,विश्व ।

त्रयोदशी १३ वीं तिथि ।



चौदह - इंद्र: ।, भुवन: ।, यम: ।, लोक: ।, मनु: ।, विद्या ।, रत्न: ।

चतुर्दशी १४ वीं तिथि।

कामदेव : अनंग, कंदर्प, मकरध्वज, मदन, मनमथ, मनसिज, विदेह, रतिकांत, रतिनाथ, रतिपति, रतीश, रागवृंत, पुष्पवान, क्यूपिड।

पंद्रह - तिथियाँ (प्रतिपदा/परमा, द्वितीय/दूज, तृतीय/तीज, चतुर्थी/चौथ, पंचमी, षष्ठी/छठ, सप्तमी/सातें, अष्टमी/आठें, नवमी/नौमी, दशमी, एकादशी/ग्यारस, द्वादशी/बारस, त्रयोदशी/तेरस, चतुर्दशी/चौदस, पूर्णिमा/पूनो, अमावस्या/अमावस।), कंठ के गुण संगीत : मृष्ट, मधुर, चेहाल, त्रिस्थानक, सुखावह, प्रचुर, कोमल, गाढ़, श्रावक, करुण, घन, स्निग्ध, श्लक्ष्ण, रक्तियुक्त, छविमान -संगीत रत्नाकर।



सोलह - षोडश मातृका: गौरी, पद्मा, शची, मेधा, सावित्री, विजय, जाया, देवसेना, स्वधा, स्वाहा, शांति, पुष्टि, धृति, तुष्टि, मातर, आत्म देवता। ब्रम्ह की सोलह कला: प्राण, श्रद्धा, आकाश, वायु, तेज, जल, पृथ्वी, इन्द्रिय, मन अन्न, वीर्य, तप, मंत्र, कर्म, लोक, नाम।, चन्द्र कलाएं: अमृता, मंदा, पूषा, तुष्टि, पुष्टि, रति, धृति, ससिचिनी, चन्द्रिका, कांता, ज्योत्सना, श्री, प्रीती, अंगदा, पूर्ण, पूर्णामृता। १६ कलाओंवाले पुरुष के १६ गुण सुश्रुत शारीरिक से: सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्राण, अपान, उन्मेष, निमेष, बुद्धि, मन, संकल्प, विचारणा, स्मृति, विज्ञान, अध्यवसाय, विषय की उपलब्धि। विकारी तत्व: ५ ज्ञानेंद्रिय, ५ कर्मेंद्रिय तथा मन। संस्कार: गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकरण, कर्णवेध, विद्यारम्भ, उपनयन, वेदारम्भ, केशांत, समावर्तन, विवाह, अंत्येष्टि। श्रृंगार: ।

षोडशी सोलह वर्ष की, सोलह आने पूरी तरह, शत-प्रतिशत।, अष्टि: ।

सत्रह -

अठारह - पुराण : ब्रह्म, पद्म, विष्णु, वायु, भागवत, नारद, मार्कंडेय, अग्नि, भविष्य, ब्रह्मवैवर्त, लिंग, वराह, स्कंद, वामन, कूर्म, मत्स्य, गरुड़, ब्रह्माण्ड पुराण

उन्नीस -

बीस - कौड़ी, नख, बिसात, कृति ।
बाइस - नाद (श्रुति)

चौबीस स्मृतियाँ - मनु, विष्णु, अत्रि, हारीत, याज्ञवल्क्य, उशना, अंगिरा, यम, आपस्तम्ब, सर्वत, कात्यायन, बृहस्पति, पराशर, व्यास, शांख्य, लिखित, दक्ष, शातातप, वशिष्ठ। २४ मिनिट = १ घड़ी।

पच्चीस - रजत, प्रकृति ।

पचीसी = २५, गदहा पचीसी, वैताल पचीसी।

छब्बीस -

राशि-रत्न (१४-१२ =२६)

अग्नि : गर्भाधान में अग्नि को "मारुत" कहते हैं। पुंसवन में "चन्द्रमा', शुगांकर्म में "शोभन", सीमान्त में "मंगल", जातकर्म में 'प्रगल्भ", नामकरण में "पार्थिव", अन्नप्राशन में 'शुचि", चूड़ाकर्म में "सत्य", व्रतबन्ध (उपनयन) में "समुद्भव", गोदान में "सूर्य", केशान्त (समावर्तन) में "अग्नि", विसर्ग (अर्थात् अग्निहोत्रादिक्रियाकलाप) में "वैश्वानर', विवाह में "योजक", चतुर्थी में "शिखी" धृति में "अग्नि", प्रायश्चित (अर्थात् प्रायश्चित्तात्मक महाव्याहृतिहोम) में "विधु', पाकयज्ञ (अर्थात् पाकांग होम, वृषोत्सर्ग, गृहप्रतिष्ठा आदि में) 'साहस', लक्षहोम में "वह्नि", कोटि होम में "हुताशन", पूर्णाहुति में "मृड", शान्ति में "वरद", पौष्टिक में "बलद", आभिचारिक में "क्रोधाग्नि", वशीकरण में "शमन", वरदान में "अभिदूषक", कोष्ठ में "जठर" और मृत भक्षण में "क्रव्याद" कहा गया है। - पाण्डेय, डॉ. राजबली हिन्दू धर्मकोश, १९८८ (हिन्दी), भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, पृष्ठ सं ६-८ ।
अग्नेस्तु मारुतो नाम गर्भाधाने विधीयते।
पुंसवने चन्द्रनामा शुगांकर्मणि शोभन:।।
सीमन्ते मंगलो नाम प्रगल्भो जातकर्मणि।
नाग्नि स्यात्पार्थिवी ह्यग्नि: प्राशने च शुचिस्तथा।।
सत्यनामाथ चूडायां व्रतादेशे समुद्भव:।
गोदाने सूर्यनामा च केशान्ते ह्यग्निरुच्यते।।
वैश्वानरो विसर्गे तु विवाहे योजक: स्मृत:।
चतुर्थ्यान्तु शिखी नाम धृतिरग्निस्तथा परे।।
प्रायश्चित्ते विधुश्चैव पाकयज्ञे तु साहस:।
लक्षहोमे तु वह्नि:स्यात कोटिहोमे हुताश्न:।।
पूर्णाहुत्यां मृडो नाम शान्तिके वरदस्तथा।
पौष्टिके बलदश्चैव क्रोधाग्निश्चाभिचारिके।।
वश्यर्थे शमनी नाम वरदानेऽभिदूषक:।
कोष्ठे तु जठरी नाम क्रव्यादो मृतभक्षणे।। -गोभिलपुत्रकृत संग्रह



तीस - मास,

तीसी तीस पंक्तियों की काव्य रचना,

बत्तीस - बत्तीसी = ३२ दाँत ।,

तैंतीस - सुर: ।,

छत्तीस - रागिनियाँ (संगीत) -
छत्तीसा ३६ गुणों से युक्त, नाई।

चालीस - चालीसा ४० पंक्तियों की काव्य रचना।

अड़तालीस - १ मुहूर्त = ४८ मिनिट या २ घड़ी।

पचास - स्वर्णिम, हिरण्यमय, अर्ध शती।

साठ - षष्ठी।

सत्तर -

पचहत्तर -

चौरासी - सिद्ध (लूहिप, लीलण, बिरुपा, डोंभिपा, शबरीपा, सरहपा (सरोजवज्र), कंकलिपा, मीनपा, गोरक्षपा (गोरखनाथ), चौरंगीपा, वीणापा, शांतिपा, तंतिपा, चमरिपा, खड्गपा, नागार्जुन, कण्हपा, कर्नृप, थगनपा, नारोपा, शीलपा, तिलोपा, छतरपा, भादरपा, दोखंधिपा, अजोगीपा, काल्पा, धोंभीपा, कंकणपा, कमरिपा, डेन्गिपा, भदेपा, तंधेपा, ककुक्कुरिपा, कुचिपा, धर्मपा, महिपा, अचिंतिपा, भल्ल्हपा, नलिनपा, भूसुकुपा, इंद्रभूति, मेकोपा, कुठालिपा, जालंधरपा, राहुलपा, घर्वरिपा, धोकरिपा, मेदनीपा, पंकजपा, घंटापा, जोगीपा, चेलुकपा, गुंडरिपा, लुचिकपा, निर्गुणपा, जयंत, चर्पटीपा, चंपकपा, भीखन पा, भलिपा, कुमरिपा, चंवरिपा, मणिभद्रा (योगिनी), कनखलापा (योगिनी), कनकलपा, कंतालीपा, धुहुरिपा, उधरिपा, कपालपा, किलपा, सगरपा, सर्वभक्षपा, नागबोधिपा, दारिकपा, पुतुलिपा, पनइपा, कोकालिपा, अनंगपा, लक्ष्मीकरा (योगिनी), समुद्रपा, भलिपा।[ पा = पाद, सम्मानसूचक, जिनके चरण पूज्य हों। -हिंदी साहित्य का इतिहास, रामचंद्र शुक्ल]

सौ -

एक सौ आठ - जप माला के दाने,

सात सौ - सतसई।,

सहस्त्र - सहस्त्रई, हजारा,

सहस्राक्ष इंद्र।,

एक लाख - लक्ष।,

करोड़ - कोटि।,

दस करोड़ - दश कोटि, अर्बुद।,

अरब - महार्बुद, महांबुज, अब्ज।,

ख़रब - खर्व ।,

दस ख़रब - निखर्व, न्यर्बुद ।,

*

३३ कोटि देवता

*

देवभाषा संस्कृत में कोटि के दो अर्थ होते है, कोटि = प्रकार, एक अर्थ करोड़ भी होता। हिन्दू धर्म की खिल्ली उड़ने के लिये अन्य धर्मावलम्बियों ने यह अफवाह उडा दी कि हिन्दुओं के ३३ करोड़ देवी-देवता हैं। वास्तव में सनातन धर्म में ३३ प्रकार के देवी-देवता हैं:

० १ - १२ : बारह आदित्य- धाता, मित, आर्यमा, शक्रा, वरुण, अँश, भाग, विवस्वान, पूष, सविता, तवास्था और विष्णु।

१३ - २० : आठ वसु- धर, ध्रुव, सोम, अह, अनिल, अनल, प्रत्युष और प्रभाष।

२१ - ३१ : ग्यारह रुद्र- हर, बहुरुप, त्र्यंबक, अपराजिता, बृषाकापि, शँभु, कपार्दी, रेवात, मृगव्याध, शर्वा और कपाली।

३२ - ३३: दो देव- अश्विनी और कुमार।


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