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बुधवार, 7 फ़रवरी 2024

७ फरवरी, हिंगलिश ग़ज़ल, लघुकथा, गीत, मुक्तिका, मुंडकोपनिषद, ताण्डव छंद, शेर, हाइकु, कायस्थ, हास्य

सलिल सृजन ७ फरवरी
अभिनव प्रयोग
हिंगलिश ग़ज़ल 
*
Get well soon.
दे दुश्मन को भून।

है विपक्ष अभिशाप।
Power party boon.

Be officer first.
तब ही मिले सुकून।

कर धरती को नष्ट।
Let us go to moon.

Fight for the change.
कुतर नहीं नाखून।

न्यायमूर्ति भगवान।
Every plaintiff coon.

Always do your best.
तब ही मिले सुकून।
*
coon = हबशी गुलाम
७.२.२०२४
***
विमर्श
लोकतंत्र है तो विरोध की गुंजाइश भी बनी रहे!
स्रोतः स्व. खुशवंत सिंह
सरकार के खिलाफ अपना विरोध दर्ज करने वालों के लिए भी कोई कायदे−कानून होने चाहिए। उसके लिए हमें बहुत दूर जाने की जरूरत नहीं है। अपने बापू तो दुनिया के महानतम विरोध करने वाले थे। उनके जेहन में बिल्कुल साफ था कि क्या सही है और क्या गलत? बॉयकॉट उनके लिए जायज तरीका था। उन्होंने विदेशी कपड़ों के बॉयकॉट की अपील की। आखिर जो इस देश में बन रहा है, उसका इस्तेमाल होना चाहिए। उन्होंने चीजों का ही बॉयकॉट नहीं किया, लोगों का भी किया। वे लोग जिनको हिन्दुस्तान में नहीं होना चाहिए था, उनके बॉयकॉट के लिए भी कहा। उन्होंने 'अंग्रेजों भारत छोड़ो' का नारा दिया। विरोध−प्रदर्शन का बापू का तरीका किसी की जिंदगी में परेशानी लाने के लिए नहीं था। वह जिंदगी को रोकना भी नहीं चाहते थे। वह तो बस अपना विरोध दर्ज करना चाहते थे।
बापू का दांडी मार्च गजब की मिसाल थी। उन्होंने पहले सरकार को नोटिस दिया। उसमें कहा कि नमक तो गरीबों के लिए भी जरूरी है। सो, नमक बनाने का हक सिर्फ सरकार का नहीं हो सकता। सरकार जो कर रही है, वह गलत है। इसलिए वह उस कानून को तोड़ने जा रहे हैं। उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। मुजरिम करार दिए गए। जेल भेज दिया गया। तब भी उनकी जीत हुई। वह जीते, क्योंकि वह सही थे। उनका मुद्दा जन−जन से जुड़ा था। विरोध के जब तमाम तरीके काम न आए तो वह अनशन पर बैठ गए। लोगों ने उसे महसूस किया और उन्हें जम कर समर्थन दिया। उन्होंने अपने अनशन का पब्लिक प्रदर्शन नहीं किया।
बापू के तरीकों के उलट आज के विरोध−प्रदर्शन हैं। जरा गौर तो फरमाइए। रास्ता रोको, बंद, घेराव वगैरह−वगैरह। इन सबसे हमारी आम जिंदगी पर असर पड़ता है। ये सब कुल मिलाकर किसी को ब्लैकमेल करने या परेशान करने के लिए होते हैं। इसीलिए वे गलत हैं और अपने मकसद को पूरा नहीं कर पाते। बापू इस तरह के विरोध को अपनी रजामंदी नहीं देते।
विरोध के जायज तरीकों के लिए हमारे रोल मॉडल सांसद और विधायक हो सकते हैं, लेकिन वे अपना रोल ठीक से कर नहीं पा रहे हैं। पंडित नेहरू जब तक प्रधानमंत्री थे, तब तक ये लोग कायदे से विरोध करते थे। शायद ही कभी वे सदन में अध्यक्ष की ओर भागते हों। सदन न चलने वाला शोर−शराबा करते हों। आज तो जरा−सी बात पर हंगामा हो जाता है और सदन को रोक दिया जाता है। ऐसा लगता है कि संसदीय प्रणाली वाला लोकतंत्र अपने यहां चुक गया है। हम आसानी से सारी तोहमत आज के नेताओं पर लगा देते हैं। ऐसा करने से पहले हमें सोचना चाहिए कि क्या उन्हें हमने नहीं चुना है? क्या हमने उन्हें कानून बनाने की जिम्मेदारी नहीं सौंपी?
टिड्डी दल
एक बार दिल्ली में जबर्दस्त आंधी आई थी। फिर जबर्दस्त बारिश हुई थी। दिन में ऐसा महसूस होता था मानो रात हो गई हो। उस वक्त मुझे अपने लड़कपन के दिन याद आए। तब भी मैंने ऐसा ही तूफान देखा था। कुछ−कुछ ऐसा हुआ था। अचानक आसमान पर बादल घिर आए थे। टिडि्डयों का जबर्दस्त हमला हुआ था। अरबों की तादाद में ये दल हर पेड़ पर छा गए थे और पत्तों को खाने लगे थे। कुछ मुसलमान भाई तो अपनी छत पर चादर लेकर चढ़ गए थे, उसे बिछा कर
टिडि्डयों को इकट्ठा करने लगे, ताकि उसके पकोड़े बना सकें। तभी जोरों की आंधी आई थी। फिर आई थी जबर्दस्त बरसात। देखते ही देखते मौसम ठंडा हो गया था। बारिश के तमाम धूल−मिट्टी को धो−पोंछ दिया था। हर तरफ गजब की सफाई और हरियाली ही हरियाली बिखर गई थी।
मेरे मुसलमान दोस्त कहते नहीं थकते थे कि उनके पूर्वज टिडि्डयों को खाते थे। ये टिडि्डयां उत्तरी अफ्रीका से आती हैं। वह अक्सर घूमती रहती हैं। अपनी जगह बदलती रहती हैं। ये पूरे मध्य एशिया में छा जाती हैं। वहां से होते हुए हिन्दुस्तान और पाकिस्तान चली आती हैं। लातीनी अमेरिका में उसे लोकस्ट माइग्रेटोरिया कहते हैं। ये बर्बादी करने वाली होती हैं। उसका जिक्र बाइबिल में भी आता है। वहां इनकी वजह से भयंकर तबाही के बारे में चर्चा है। उसे जंगली शहद भी कहा गया है। इन दिनों हम लोग टिड्डी दलों का हमला नहीं देखते हैं, लेकिन उसकी कई यादें मेरे जेहन में हैं। अगर वे कभी वापसी करती हैं और मैं आसपास होता हूं तो मजा आ जाएगा। मैं अपने रसोइए से गुजारिश करूंगा कि वह मुझे उनके पकोड़े बना कर खिलाए। मैं अपने शाम के ड्रिंक के साथ उनका मजा लेना चाहूंगा।
टिप्पणीः यह आलेख स्व. खुशवंत सिंह के पुरालेखों में से एक है।
***
लघुकथा
बाज
.
नीम आसमान में परवाज भर रहा था बाज। समीप ही उड़ रहे रेवेन पक्षी ने बाज को ऊपर उठते देखा तो लपक कर बाज की गर्दन के ऊपर जा बैठा और लगा चोंच मारने। रेवेन सोच रहा था बाज उससे लड़ने के लिए नीचे उतरेगा और वह पल भर में आसमान में ऊपर जाकर बाज को नीचा दिखा देगा।
बाज को आसमान का बादशाह कहा जाता है और यह रेवेन को बर्दाश्त नहीं होता था।
बाज ने रेवेन के चंचु-प्रहार सहते हुए ऊपर उठना जारी रखा। बाज की सहनशीलता रंग लाई। जैसे जैसे बाज आसमान में ऊपर उठता गया, वायुमंडल में ओषजन वायु कम होती गई। हमेशा ऊँचाई पर उड़नेवाला बाज कम ओषजन में उड़ने का अभ्यस्त था किंतु रेवेन के लिए यह पहला अवसर था। बाज अपनी ऊँचाई और गति बढ़ाता गया। रेवेन के लिए बाज की गर्दन पर टिके रहना कठिन होता गया और अंतत: रेवेन धराशायी हो गया औरआसमान छूता रहा बाज ।
७-३-२०२३
***
लघुकथा
अपराधी
.
अपराधी के कटघरे में एक बालक खड़ा था। न्यायाधीश ने उस पर दृष्टि डाली, ऐसा प्रतीत हुआ बादलों में चंद्रमा छिपा हो। बालक उदास, नीची निगाह किए, चिंताग्रस्त दिख रहा था। न्यायाधीश अनुभवी थे, समझ गए कि यह आदतन अपराधी नहीं है।
सरकारी वकील ने बालक का अपराध बताया कि वह होटल से खाद्य सामग्री चुरा रहा था, तभी उसे पकड़ लिया गया। होटल मालिक ने बालक के जुर्म की तस्दीक करते हुए गर्व के साथ कहा कि उसीने अपने कर्मचारियों की मदद से बालक को पकड़ कर मरम्मत भी की थी ताकि फिर चोरी करने की हिम्मत न पड़े।
न्यायाधीश के पूछने पर लड़के ने स्वीकार किया कि उसने डबलरोटी उठाई थी हुए बिस्कुट उठाने के पहले ही उसे दबोच लिया गया था। यह भी बताया कि वहाँ कई तरह की मिठाइयाँ भी थीं, उसे मिठाई बहुत अच्छी लगती है।
'जब तुम्हें मिठाई बहुत अच्छी लगती है और वहां कई प्रकार की मिठाइयाँ रखी थीं तो तुमने मिठाई न उठकर डबलरोटी क्यों उठाई, पैसे क्यों नहीं दिए?' -न्यायाधीश ने पूछा।
''घर पर माँ बीमार है, उसे डबलरोटी खिलानी थी, मेरे पास या घर में एक भी रुपया नहीं था।''
'तो किसी से माँग लेते, चोरी बुरी बात है न?'
"कई लोगों से रोटी या पैसे माँगे सबने दुतकार दिया, इनसे भी डबलरोटी माँगी थी और कहा था कि माँ को खिलाकर आकर होटल में काम कर दूँगा पर इन्होंने भी डाँटकर भगा दिया।" -होटलवाले की तरफ देखकर बालक बोला।
मुकदमे के फैसला दोपहर भोजन काल के बाद सुनाने का आदेश देते हुए न्यायाधीश ने भूखे बालक को सरकारी व्यय पर भोजन कराए जाने का आदेश दिया।
डफरबाद अदालत बैठी तो न्यायाधीश ने कहा- 'यह किसी सभ्य समाज के लिए शर्म की बात है कि लोककल्याणकारी गणराज्य में किसी असहाय स्त्री हुए बालक को रोटी भी नसीब न हो। सरकार, प्रशासन, समाज और नागरिक सभी इस परिस्थिति के लिए दोषी हैं कि हम अपने वर्तमान और भविष्य की समुचित देखभाल नहीं कर पा रहे और नौनिहालों को मजबूरन चोरी करने के लिए विवश होना पड़े, अगर हर चोरी दंडनीय होती तो माखन-मिसरी चुराने के लिए कन्हैया को भी दंड दिया जाता। लोकोक्ति है 'भूखे भजन न होय गुपाला'।
इस बालक के अपराध के लिए हम सब दोषी हैं, स्वयं मैं भी। इसलिए मुझ समेत इस अदालत में उपस्थित हर व्यक्ति दस-दस रुपए जमा करे। होटल मालिक को संवेदनहीनता तथा बालक को बिना अधिकार पीटने के लिए एक हजार रुपए जमा करने होंगे। यह राशि बालक की माँ को दे दी जाए जिससे वह स्वस्थ्य होने तकअपने तथा बालक के भोजन की व्यवस्था कर सके। जिलाधिकारी को निर्देश है कि बालक की निशुल्क शिक्षा का प्रबंध करें तथा माँ को गरीबी रेखा से नीचे होने का प्रमाणपत्र देकर शासकीय योजनाओं से मिलनेवाले लाभ दिलाकर इस न्यायालय को सूचित करें। न्याय देने का अर्थ केवल दंड देना नहीं होता, ऐसी परिस्थिति का निर्माण करना होता है ताकि भविष्य में कोई अन्य निर्दोष विवश होकर न बने अपराधी।
७-२-२०२३
***
मुण्डकोपनिषद १
परा सत्य अव्यक्त जो, अपरा वह जो व्यक्त।
ग्राह्य परा-अपरा, नहीं कहें किसी को त्यक्त।।
परा पुरुष अपरा प्रकृति, दोनों भिन्न-अभिन्न।
जो जाने वह लीन हो, अनजाना है खिन्न।।
जो विदेह है देह में, उसे सकें हम जान।
भव सागर अज्ञान है, अक्षर जो वह ज्ञान।।
मन इंद्रिय अरु विषय को, मान रहा मनु सत्य।
ईश कृपा तप त्याग ही, बल दे तजो असत्य।।
भोले को भोले मिलें, असंतोष दुःख-कोष।
शिशु सम निश्छल मन रखें, करें सदा संतोष।।
पाना सुखकारक नहीं, खोना दुखद न मान।
पाकर खो, खोकर मिले, इस सच को पहचान।।
'कुछ होने' का छोड़ पथ, 'कुछ मत हो' कर चाह।
जो रीता वह भर सके, भरा रीत भर आह।।
तन को पहले जान ले, तब मन का हो ज्ञान।
अपरा बिना; न परा का, हो सकता अनुमान।।
सांसारिक विज्ञान है, अपरा माध्यम मान।
गुरु अपरा से परा की, करा सके पहचान।।
अक्षर अविनाशी परा, अपरा क्षर ले जान।
अपरा प्रगटे परा से, त्याग परा पहचान।।
मन्त्र हवन अपरा समझ, परा सत्य का भान।
इससे उसको पा सके, कर अभ्यास सुजान।।
अपरा पर्दा कर रही, दुनियावी आचार।
परा न पर्दा जानती, करे नहीं व्यापार।।
दृष्टा दृष्ट न दो रहें, अपरा-परा न भिन्न।
क्षर-अक्षर हों एक तो, सत्यासत्य अभिन्न।।
***
मुक्तिका
किसे दिखाएँ मन के छाले?
पिला रहे सब तन को प्याले
संयम मैखाने में मेहमां
सती बहकती कौन सम्हाले?
वेणु झूमती पीकर पब में
ब्रज की रेणु क्रशर के पाले
पचा न पाएँ इतना खाते
कुछ, कुछ को कौरों के लाले
आदम मन की देख कालिमा
शरमा रहे श्याम पट काले
***
मुक्तिका
घातक सपनों के लिए जीवन का यह दौर
फागुन से डर काँपती कोमल कमसिन बौर
महुआ मर ही गया है, हो बोतल में कैद
मस्ती को मिलती नहीं मानव मन में ठौर
नेता जुमलेबाज है, जनता पत्थरबाज
भूख-प्यास का राज है, नंगापन सिरमौर
सपने मोहनभोग के छपा घोषणा पत्र
छीन-खा रहे रात-दिन जन-हित का कागौर
'सलिल' सियासत मनचली मुई हुई निर्लज्ज
छलती जन विश्वास को, भुला तरीके-तौर
७-६-२०२०
***
मुक्तिका
जंगल जंगल
*
जंगल जंगल कहाँ रहे अब
नदी सरोवर पूर रहे अब
काटे तरु, बोई इमारतें
चंद ठूँठ बेनूर रहे अब
कली मुरझती असमय ही लख
कामुक भौंरे क्रूर हुए अब
होली हो ली, अनहोली अब
रंग तंग हो दूर हुए अब
शेष न शर्म रही नैनों में
स्नेहिल नाते सूर हुए अब
पुष्पा पुष्प कहें काँटों से
झुक खट्टे अंगूर हुए अब
मिटी न खुद से खुद की दूरी
सपने चकनाचूर हुए अब
***
एक रचना
*
गाय
*
गाय हमारी माता है
पूजो गैया को पूजो
*
पिता कहाँ है?, ज़िक्र नहीं
माता की कुछ फ़िक्र नहीं
सदा भाई से है लेना-
नहीं बहिन को कुछ देना
है निज मनमानी करना
कोई तो रस्तों सूझो
पूजो गैया को पूजो
*
गौरक्षक हम आप बने
लाठी जैसे खड़े-तने
मौका मिलते ही ठोंके-
बात किसी की नहीं सुनें
जबरा मारें रों न देंय
कार्य, न कारण तुम बूझो
पूजो गैया को पूजो
*
गैया को माना माता
बैल हो गया बाप है
अकल बैल सी हुई मुई
बात अक्ल की पाप है
सींग मारते जिस-तिस को
भागो-बचो रे! मत जूझो
पूजो गैया को पूजो
*
मुक्तिका
*
मुक्त मन मुस्कान मंजुल मुक्तिका
नर्मदा का गान किलकिल मुक्तिका
मुक्तकों से पा रही विस्तार यह
षोडशी का भान खिलखिल मुक्तिका
बीज अंकुर कुसुम कंटक धूल सह
करे जीवन गान हिलमिल मुक्तिका
क्या कहे कैसे कहाँ कब, जानती
ज्योत्सना नभ-शान झिलमिल मुक्तिका
रूपसी अपरूप उज्वल धूपसी
मनुजता का मान प्रांजल मुक्तिका
नर्मदा रस-भाव-लय की गतिमयी
कथ्य की है जान, निश्छल मुक्तिका
सत्य-शिव-सुंदर सलिल आराध्य है
मीत गुरु गंभीर-चंचल मुक्तिका
७-२-२०२०
***
छंद सलिला :
ताण्डव छंद
*
(अब तक प्रस्तुत छंद: अग्र, अचल, अचल धृति, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, कीर्ति, घनाक्षरी, छवि, ताण्डव, तोमर, दीप, दोधक, निधि, प्रेमा, मधुभार,माला, वाणी, शक्तिपूजा, शाला, शिव, शुभगति, सार, सुगति, सुजान, हंसी)
*
तांडव रौद्र कुल का बारह मात्रीय छंद है जिसके हर चरण के आदि-अंत में लघु वर्ण अनिवार्य है.
उदाहरण:
१. भर जाता भव में रव, शिव करते जब ताण्डव
शिवा रहित शिव हों शव, आदि -अंत लघु अभिनव
बारह आदित्य मॉस राशि वर्ण 'सलिल' खास
अधरों पर रखें हास, अनथक करिए प्रयास
२. नाश करें प्रलयंकर, भय हरते अभ्यंकर
बसते कंकर शंकर, जगत्पिता बाधा हर
महादेव हर हर हर, नाश-सृजन अविनश्वर
त्रिपुरारी उमानाथ, 'सलिल' सके अब भव तर
३. जग चाहे रहे वाम, कठिनाई सह तमाम
कभी नहीं करें डाह, कभी नहीं भरें आह
मन न तजे कभी चाह, तन न तजे तनिक राह
जी भरकर करें काम, तभी भला करें राम
***
नवगीत
पकौड़ा-चाय
*
तलो पकौड़ा
बेचो चाय
*
हमने सबको साथ ले,
सबका किया विकास।
'बना देश में' का दिया,
नारा खासुलखास।
नव धंधा-आजीविका
रोजी का पर्याय
तलो पकौड़ा
बेचो चाय
*
सब मिल उत्पादन करो,
साधो लक्ष्य अचूक।
'भारत में ही बना है'
पीट ढिंढोरा मूक।।
हम कुर्सी तुम सड़क पर
बैठो यही उपाय
तलो पकौड़ा
बेचो चाय
*
लाइसेंस-जीएसटी,
बिना नोट व्यापार।
इनकम कम, कर दो अधिक,
बच्चे भूखे मार।।
तीन-पांच दो गुणित दो
देशभक्ति अध्याय
तलो पकौड़ा
बेचो चाय
***
छंद: दोहा
***
नवगीत
*
तू कल था
मैं आज हूं
*
उगते की जय बोलना
दुनिया का दस्तूर।
ढलते को सब भूलते,
यह है सत्य हुजूर।।
तू सिर तो
मैं ताज हूं
*
मुझको भी बिसराएंगे,
कहकर लोग अतीत।
हुआ न कोई भी यहां,
जो हो नहीं व्यतीत।।
तू है सुर
मैं साज हूं।।
*
नहीं धूप में किए हैं,
मैंने बाल सफेद।
कल बीता हो तजूंगा,
जगत न किंचित खेेद।।
क्या जाने
किस व्याज हूं?
***
७.२.२०१८
***
लघुकथा-
बेटा
*
गलत संगत के कारण उसे चोरी की लत लग गयी. समझाने-बुझाने का कोई प्रभाव नहीं हुआ तो उसे विद्यालय से निकाल दिया गया. अपने बेटे को जैसे-तैसे पढ़ा-लिखा कर भला आदमी बनाने का सपना जी रही बीमार माँ को समाचार मिला तो सदमे के कारण लकवा लग गया.
एक रात प्यास से बेचैन माँ को निकट रखे पानी का गिलास उठाने में भी असमर्थ देखकर बेटे से रहा नहीं गया. पानी पिलाकर वह माँ के समीप बैठ गया और बोला 'माँ! तेरे बिना मुझसे रोटी नहीं खाई जाती.' बेबस माँ को आँखों से बहते आँसू पोंछने के बाद बेटा सवेरे ही घर से चला जाता है.
दिन भर बेटे के घर न आने से चिंतित माँ ने आहत सुन दरवाजे से बेटे के साथ एक अजनबी को घर में घुसते हुए देखा तो उठने की कोशिश की किन्तु कमजोरी के कारण उठ न सकी. अजनबी ने अपना परिचय देते हुए बताया कि बेटे ने उनके गोदाम में चोरी करनेवाले चोरों को पकड़वाया है. इसलिए वे बेटे को चौकीदार रखेंगे. वह काम करने के साथ-साथ पढ़ भी सकेगा.
अजनबी के प्रति आभार व्यक्त करने की कोशिश में हाथ जोड़ने की कोशिश करती माँ के मुँह से निकला 'बेटा'
***
मुक्तक
मेटते रह गए कब मिटीं दूरियाँ?
पीटती ही रहीं, कब पिटी दूरियाँ?
द्वैत मिटता कहाँ, लाख अद्वैत हो
सच यही कुछ बढ़ीं, कुछ घटीं दूरियाँ
*
कुण्डलिया
जल-थल हो जब एक तो, कैसे करूँ निबाह
जल की, थल की मिल सके, कैसे-किसको थाह?
कैसे-किसको थाह?, सहायक अगर शारदे
संभव है पल भर में, भव से विहँस तार दे
कहत कवि संजीव, हरेक मुश्किल होती हल
करें देखकर पार, एक हो जब भी जल-थल
*
***
एक प्रश्न:
*
लिखता नहीं हूँ,
लिखाता है कोई
*
वियोगी होगा पहला कवि
आह से उपजा होगा गान
*
शब्द तो शोर हैं तमाशा हैं
भावना के सिंधु में बताशा हैं
मर्म की बात होंठ से न कहो
मौन ही भावना की भाषा है
*
हैं सबसे मधुर वो गीत जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते हैं,
*
अवर स्वीटेस्ट सांग्स आर दोज विच टेल ऑफ़ सैडेस्ट थॉट.
*
जितने मुँह उतनी बातें के समान जितने कवि उतनी अभिव्यक्तियाँ
प्रश्न यह कि क्या मनुष्य का सृजन उसके विवाह अथवा प्रणय संबंधों से प्रभावित होता है? क्या अविवाहित, एकतरफा प्रणय, परस्पर प्रणय, वाग्दत्त (सम्बन्ध तय), सहजीवी (लिव इन), प्रेम में असफल, विवाहित, परित्यक्त, तलाकदाता, तलाकगृहीता, विधवा/विधुर, पुनर्विवाहित, बहुविवाहित, एक ही व्यक्ति से दोबारा विवाहित, निस्संतान, संतानवान जैसी स्थिति सृजन को प्रभावित करती है?
यह प्रभाव कब, कैसे, कितना और कैसा होता है? इस पर विचार दें.
आपके विचारों का स्वागत और प्रतीक्षा है.
७-२-२०१७
***
द्विपदियाँ (अश'आर)
*
उगते सूरज को करे, दुनिया सदा प्रणाम
तपते से बच,डूबते देख न लेती नाम
*
औरों के ऐब देखना, आसान है बहुत
तू एक निगाह, अपने आप पे भी डाल ले
*
आगाज़ के पहले जरा अंजाम सोच ले
शुरुआत किसी काम की कर, बाद में 'सलिल'
*
उगते सूरज को करे, दुनिया सदा प्रणाम
तपते से बच,डूबते देख न लेती नाम
*
३-२-२०१६
अमरकंटक एक्सप्रेस बी २ /३५, बिलासपुर-भाटापारा
***
एक रचना
परिंदा
*
करें पत्ते परिंदों से गुफ्तगू
व्यर्थ रहते हैं भटकते आप क्यूँ?
बंद पिंजरों में रहें तो हर्ज़ क्या?
भटकने का आपको है मर्ज़ क्या??
परिंदे बोले: 'न बंधन चाहिए
जमीं घर, आकाश आँगन चाहिए
फुदक दाना चुन सकें हम खुद जहाँ
उड़ानों पर भी न हो बंदिश वहाँ
क्यों रहें हम दूर अपनी डाल से?
मरें चाहे, जूझ तो लें हाल से
चुगा दें चुग्गा उन्हें असमर्थ जो
तोल कर पर नाप लें वे गगन को
हम नहीं इंसान जो खुद के लिये
जियें, हम जीते यहाँ सबके लिये'
मौन पत्ता छोड़ शाखा गिर गया
परिंदा झट से गगन में उड़ गया
२०-१२-२०१५
***
हाइकु गीत:
.
रेवा लहरें
झुनझुना बजातीं
लोरी सुनातीं
.
मन लुभातीं
अठखेलियाँ कर
पीड़ा भुलातीं
.
राई सुनातीं
मछलियों के संग
रासें रचातीं
.
रेवा लहरें
हँस खिलखिलातीं
ठेंगा दिखातीं
.
कुनमुनातीं
सुबह से गले मिल
जागें मुस्कातीं
.
चहचहातीं
चिरैयाँ तो खुद भी
गुनगुनातीं
.
रेवा लहरें
झट फिसल जातीं
हाथ न आतीं
***
कविता
प्रश्नोत्तर
कल क्या होगा?
कौन बचेगा? कौन मरेगा?
कौन कहे?
.
आज न डरकर
कल की खातिर
शिव मस्तक से सतत बहे बहे
.
कल क्या थे?
यह सोच-सोचकर
कल कैसे गढ़ पाएँगे?
.
दादा चढ़े
हिमालय पर
क्या हम भी कदम बढ़ाएँगे?
.
समय
सवाल कर रहा
मिलकर उत्तर दें
.
चुप रहने से
प्रश्न न हल
हो पाएँगे।
७-२-२०१५
***
छंद सलिला :
ताण्डव छंद
*
(अब तक प्रस्तुत छंद: अग्र, अचल, अचल धृति, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, कीर्ति, घनाक्षरी, छवि, ताण्डव, तोमर, दीप, दोधक, निधि, प्रेमा, मधुभार,माला, वाणी, शक्तिपूजा, शाला, शिव, शुभगति, सार, सुगति, सुजान, हंसी)
*
तांडव रौद्र कुल का बारह मात्रीय छंद है जिसके हर चरण के आदि-अंत में लघु वर्ण अनिवार्य है.
उदाहरण:
१. भर जाता भव में रव, शिव करते जब ताण्डव
शिवा रहित शिव हों शव, आदि -अंत लघु अभिनव
बारह आदित्य मॉस राशि वर्ण 'सलिल' खास
अधरों पर रखें हास, अनथक करिए प्रयास
२. नाश करें प्रलयंकर, भय हरते अभ्यंकर
बसते कंकर शंकर, जगत्पिता बाधा हर
महादेव हर हर हर, नाश-सृजन अविनश्वर
त्रिपुरारी उमानाथ, 'सलिल' सके अब भव तर
३. जग चाहे रहे वाम, कठिनाई सह तमाम
कभी नहीं करें डाह, कभी नहीं भरें आह
मन न तजे कभी चाह, तन न तजे तनिक राह
जी भरकर करें काम, तभी भला करें राम
३०.१.२०१४
बिहार और कायस्थ
बंगाल से बिहार का अलग होना और राष्ट्र भाषा हिंदी के लिए आन्दोलन व हिंदी को राष्ट्र भाषा बनाने वाले कायस्थ ही हैं :-
राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम के आरंभिक बिहारी नेता यथा महेश नारायण, सच्चिदानन्द सिन्हा एवं अन्य सभी अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेतृत्व में चल रहे स्वतंत्रता आंदोलन के प्रति ‘सचेत’ उदासीन भाव रखते हुए बंगाल से बिहार को अलग करने के आंदोलन से गहरे जुड़े थे। बिहार के नवजागरण का एक अत्यंत रोचक तथ्य है कि सन् १९१२ से पहले प्रतिक्रियावादी जमींदार वर्ग कांग्रेस अर्थात् राष्ट्रीय आंदोलन के साथ है और बंगाल से बिहार के पृथक्करण के विरोध में है जबकि प्रगतिशील मध्यवर्ग पृथक्करण के तो पक्ष में है लेकिन राष्ट्रीय आंदोलन के प्रति उदासीन है। बल्कि कई बार यह प्रगतिशील तबका अपनी ‘राजभक्ति’ भी प्रदर्शित करता है।
हसन इमाम ने कहा कि महेश नारायण ‘बिहारी जनमत के जनक’ हैं तो सिन्हा ने उन्हें ‘बिहारी नवजागरण का जनक’ कहा। कहना न होगा कि यह नवजागरण बिहार के पृथक्करण की शक्ल में था। महेश नारायण के बड़े भाई गोविंद नारायण कलकत्ता विश्वविद्यालय में एम. ए. की डिग्री पानेवाले पहले बिहारी थे। उनके ही नेतृत्व में बिहार में सर्वप्रथम राष्ट्रभाषा का आंदोलन आरंभ किया गया था और यह उन्हीं की प्रेरणा का फल था कि हिंदी का प्रवेश उस समय स्कूलों और कचहरियों में हो सका।
बंगाल से बिहार के पृथक्करण में महेश नारायण, डा. सच्चिादानंद सिन्हा, नंदकिशोर लाल, परमेश्वर लाल, राम बहादुर कृष्ण सहाय, भगवती सहाय तथा आरा के हरवंश सहाय समेत लगभग तमाम लोग, जिनकी भूमिका महत्त्वपूर्ण कही जा सकती है, जाति से कायस्थ थे और अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोगों में उनकी जाति अग्रणी थी। सुमित सरकार(बंगाली कायस्थ ) ने बंगालियों के प्रभुत्त्व को चुनौती देते बिहार की कायस्थ जाति के लोगों के द्वारा पृथक बिहार हेतु आंदोलन का नेतृत्त्व करने की बात पर प्रकाश डाला है। यह अकारण नहीं था कि १९०७ में महेश नारायण के निधन के बाद डा. सच्चिदानंद सिन्हा ने बंगालियों के प्रभुत्त्व को तोड़नेवाले नेतृत्त्व की अगुआई की और अंततः इस जाति ने बंगाली प्रभुत्त्व को समाप्त कर अपनी प्रभुता कायम कर ली। इस वर्ग की बढ़ती महत्त्वाकांक्षा ने एक बार पुनः बिहार से उड़ीसा को अलग करने का ‘साहसिक’ कार्य किया। डा. अखिलेश कुमार ने अन्यत्र डा. सच्चिदानंद सिन्हा की उस भूमिका को रेखांकित करने का प्रयास किया गया है जिससे इस बात की पुष्टि होती है कि वे उड़ीसा के पृथक्करण के भी प्रमुख हिमायती थे। शिक्षित बिहारी युवकों ने महसूस किया था कि अपना अलग प्रांत नहीं होगा तो उनका कोई भविष्य नहीं है। इन युवकों में अधिकतर कायस्थ थे। अतएव वे अलग बिहार प्रांत बनाने के आंदोलन में स्वाभाविक रूप से कायस्थ जाति के लोग ही आगे आए। जाहिर है, रोजगार एवं अवसर की तलाश की इस मध्यवर्गीय लड़ाई को सच्चिदानंद सिन्हा ने एक व्यापक आधार प्रदान करने हेतु ‘बिहारी पहचान’ एवं ‘बिहारी नवजागरण’ की बात ‘गढ़ी’। उन्होंने अपने संस्मरण में लिखा है, ‘सिर्फ खुद बिहारियों को छोड़कर बाकी लोगों में बिहार का नाम भी लगभग अनजान था।’ आगे उन्होंने लिखा, ‘पिछली सदी के ९० के दशक के प्रारंभ में मैं जब एक छात्र के रूप में लंदन में था, तब मुझे जबरन इस ओर ध्यान दिलाया गया। तभी मैंने यह दर्दनाक और शर्मनाक खोज की कि आम बर्तानवी के लिए तो बिहार एक अनजान जगह है ही, और यहां तक कि अवकाशप्राप्त आंग्ल-भारतीयों के बहुमत के लिए भी बिहार अनजाना ही है। …मेरे लिए आज के बिहारियों को यह बताना बड़ा कठिन है कि उस वक्त मुझे और कुछ दूसरे उतने ही संवेदनशील बिहारी मित्रों को कितनी शर्मिंदगी और हीनता महसूस हुई जब हमें महसूस हुआ कि हम ऐसे लोग हैं जिनकी अपनी कोई अलग पहचान नहीं है, कोई प्रांत नहीं है जिसको वे अपना होने का दावा करें, दरअसल उनकी कोई स्थानीय वासभूमि नहीं है जिसका कोई नाम हो। यह पीड़ादायक भावना उस वक्त और टीस बन गई जब सन् १८९३ में स्वदेश लौटने पर बिहार में प्रवेश करते-करते पहले ही रेलवे स्टेशन पर एक लंबे-तगड़े बिहारी सिपाही के बैज पर ‘बंगाल पुलिस’ अंकित देखा। घर लौटने की खुशियां गायब हो गईं और मन खट्टा हो गया। …पर सहसा ख्याल आया कि बिहार को एक अलग और सम्मानजनक इकाई का दर्जा दिलाने के लिए, जिसकी देश के अन्य महत्वपूर्ण प्रांतों की तरह अपनी एक अलग पहचान हो, मैं सब कुछ करने का संकल्प लूं जो करना मेरे बूते में है। एक शब्द में कहूं तो यही मेरे जीवन का मिशन बन गया और इसको हासिल करना मेरे सार्वजनिक क्रियाकलापों की प्रेरणा का सबसे बड़ा स्रोत।’
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सामयिक कविता:
रंग-बिरंगे नेता करते बात चटपटी.
ठगते सबके सब जनता को बात अटपटी.
लोकतन्त्र को लोभतंत्र में बदल हँस रहे.
कभी फाँसते हैं औरों को कभी फँस रहे.
ढंग कहो, बेढंग कहो चल रही जंग है.
हर चहरे की अलग कहानी, अलग रंग है.
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हर चेहरे की अलग कहानी, अलग रंग है.
अलग तरीका, अलग सलीका, अलग ढंग है...
यह नेता भैंसों को ब्लैक बोर्ड बनवाता.
कुर्सी पड़े छोड़ना, बीबी को बैठाता.
घर में रबड़ी रखे मगर खाता था चारा.
जनता ने ठुकराया अब तडपे बेचारा.
मोटा-ताज़ा लगे, अँधेरे में वह भालू.
जल्द पहेली बूझो नाम बताओ........?
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भगवा कमल चढ़ा सत्ता पर जिसको लेकर
गया पाक बस में, आया हो बेबस होकर.
भाषण लच्छेदार सुनाये, काव्य सुहाये.
धोती कुरता गमछा धारे सबको भाये.
बरस-बरस उसकी छवि हमने विहँस निहारी.
ताली पीटो, नाम बताओ-...
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गोरी परदेसिन की महिमा कही न जाए.
सास और पति के पथ पर चल सत्ता पाए.
बिखर गया परिवार मगर क्या खूब सम्हाला?
देवरानी से मन न मिला यह गड़बड़ झाला.
इटली में जन्मी, भारत का ढंग ले लिया.
बहू दुलारी भारत माँ की नाम? .........
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छोटी दाढीवाला यह नेता तेजस्वी.
कम बोले करता ज्यादा है श्रमी-मनस्वी.
नष्ट प्रान्त को पुनः बनाया, जन-मन जीता.
मरू-गुर्जर प्रदेश सिंचित कर दिया सुभीता.
गोली को गोली दे, हिंसा की जड़ खोदी.
कर्मवीर नेता है भैया ...
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माया की माया न छोड़ती है माया को.
बना रही निज मूर्ति, तको बेढब काया को.
सत्ता प्रेमी, कांसी-चेली, दलित नायिका.
नचा रही है एक इशारे पर विधायिका.
गुर्राना-गरियाना ही इसके मन भाया.
चलो पहेली बूझो, नाम बताओ...
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मध्य प्रदेशी जनता के मन को जो भाया.
दोबारा सत्ता पाकर भी ना इतराया.
जिसे लाडली बेटी पर आता दुलार है.
करता नव निर्माण, कर रहा नित सुधार है.
दुपहर भोजन बाँट, बना जन-मन का तारा.
जल्दी नाम बताओ वह ............. हमारा.
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बंगालिन बिल्ली जाने क्या सोच रही है?
भय से हँसिया पार्टी खम्बा नोच रही है.
हाथ लिए तृण-मूल, करारी दी है टक्कर.
दिल्ली-सत्ताधारी काटें इसके चक्कर.
दूर-दूर तक देखो इसका हुआ असर जी.
पहचानो तो कौन? नाम ...
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तेजस्वी वाचाल साध्वी पथ भटकी है.
कौन बताये किस मरीचिका में अटकी है?
ढाँचा गिरा अवध में उसने नाम काया.
बनी मुख्य मंत्री, सत्ता सुख अधिक न भाया.
बड़बोलापन ले डूबा, अब है गुहारती.
शिव-संगिनी का नाम मिला, है ...
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डर से डरकर बैठना सही न लगती राह.
हिम्मत गजब जवान की, मुँह से निकले वाह.
घूम रहा है प्रान्त-प्रान्त में नाम कमाता.
गाँधी कुल का दीपक, नव पीढी को भाता.
जन मत परिवर्तन करने की लाता आँधी.
बूझो-बूझो नाम बताओ ...
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बूढा शेर बैठ मुम्बई में चीख रहा है.
देश बाँटता, हाय! भतीजा दीख रहा है.
पहलवान है नहीं मुलायम अब कठोर है.
धनपति नेता डूब गया है, कटी डोर है.
शुगर किंग मँहगाई अब तक रोक न पाया.
रबर किंग पगड़ी बाँधे, पहचानो भाया.
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७-२-२०१०
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