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बुधवार, 21 फ़रवरी 2024

कला और साहित्य

कला और साहित्य 
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किसी कथ्य  या वस्तु की सुरुचिपूर्ण प्रस्तुति  विधि कला, प्रस्तुतिकर्ता कलाकार तथा प्रस्तुति कलकृति है।  
कला दो तरह की होती है - उपयोगी कला तथा ललित कला। उपयोगी कला में उपयोगिता का पक्ष प्रधान होता है और वह भौतिक आवश्यकता की पूर्ति में सहायक होती है जैसे बढ़ई की कलाकारी से सुंदर फर्नीचर आदि बनना कलात्मक है लेकिन भौतिक रूप से उपयोगी है।

ललित कला में भाव पक्ष प्रधान होता है। भावनाओं को सुसंस्कृत, अहलादित उदात्त तथा परिमार्जित करने में ललित कला का प्रयोग होता है। ललित कला भी पाँच तरह की तरह होती है - संगीत, काव्य (साहित्य), चित्र, वास्तु और मूर्ति।

काव्य ललित कला के वर्ग में आता है। संस्कृत तथा अन्य पुरानी भाषाएँ पहले छंदों में बोली जाती थीं। अतः भावनात्मक, सौष्ठव एवं सारगर्भित भाषा, कला का भाव पक्ष रखती थी। काव्य में सौंदर्य वर्णन, शौर्य गाथाएँ, करुण वेदना, शांत संदेश, हास्य, करुण आदि भावों से ओत प्रोत पद्य, राजा प्रजा तथा दरबार में कहे जाते थे । ये सारे कथन राजा, प्रजा समाज तथा देश की भलाई के लिए होते थे। मनोभावों को उदात्त करके जो पद्य निकलते थे, एक उद्देश्य, समाज के हित और वीरों के शौर्य बढ़ाने के लिए किया जाता था। श्रृंगार द्वारा राजा की सौंदर्य के प्रति कोमलता तथा करुणा द्वारा प्रजा की वेदना व्यक्त की जाती थी। यह सब कलात्मक विवरण, मूलतः समाज के हित के लिए होता था। अतः जो छंद समाज के हित के लिए हो, समाज को साथ लेकर चले वह साहित्य कहलाता है। जैसे जैसे गद्य का विकास हुआ, विधाएँ भी बढ़ गईं और साहित्य का आयाम भी। अब साहित्य गद्य पद्य, दोनो को लेकर चलता है। साहित्य शब्द, सहित में "व्यत्र" प्रत्यय लगाकर बना है। सहित यानी साथ साथ और सह हित माने, हित सहित या हितकारी। शब्द के साथ साथ शब्दों के सही और अर्थपूर्ण भाषा को साहित्य कहते हैं। अगर निरर्थक शब्द हैं या कोई विशेष हितकारी संदेश नही देते तो वे साहित्य श्रेणी में नही आते। जब शब्द कोई सुरुचि पूर्ण अर्थ दें या जनमानस की भावनाओं को जगा दें तब वह भाषा कलात्मक हो जाती है और साहित्य के वर्ग में आती है। स्नेह, करुणा, शौर्य, हास्य, संयोग, वियोग , शांति घृणा, क्रोध, भक्ति आदि भाव हमारे मन में छिपे होते हैं। भावों को हितकारी बना के लोगों के बीच में रखकर उनकी भावनाओं को जगाना ही साहित्य है।

सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता - खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी, पढ़िए, पढ़ते पढ़ते दुश्मनों के विरुद्ध भावना बरबस जग उठती है। वहीं सूरदास का पद - मैया मोरी मैं नहिं माखन खायो, में एक बच्चे के प्रति वात्सल्य उमड़ पड़ता है।

उदाहरण के लिए-

बच्चे की रोटी खाते खाते डाल में गिर गई और वह गर्म दाल से रोटी निकल कर खा लेता है।

यह बात आप को साधारण लगेगी, लेकिन इसको अगर इस तरह बोलें

जब गिरी रोटी दाल में, बचवा रोवन लाग

गरम दल में हाथ दिय, गया रोटी लेकर भाग।

इसमें आप को एक दृश्य दिखाई देगा कि गर्म दल में रोटी गिरने से बच्चा रोने लगा, फिर रोटी उठाई और दोबारा न गिर जाए, या सोच कर भागा।

दोनो में बातें एक हैं लेकिन कहने का अंदाज अलग है। एक साधारण है दूसरा कलात्मक है, पढ़ने पर एक दृश्य दिखाता है। हल्का मनोरंजन भी करता है अतः यह भाषा साहित्यिक हो गई।

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