कुल पेज दृश्य

गुरुवार, 22 फ़रवरी 2024

समीक्षा, अरुणिमा सक्सेना

कृति चर्चा
'अरुणिमा की ग़ज़लें' - उर्दुई हिंदी की जज्बाती फसलें   
- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
                    सृष्टि की उत्पत्ति 'नाद' (अनहद नाद) के विस्फोट से हुई। विज्ञान की  'बिग बिग थ्योरी' विस्फोट से सृष्टि की उत्पत्ति का सिद्धांत प्रतिपादित करती है किंतु उसके मूल में अंतर्निहित 'नाद' के संबंध में मौन है। यह नाद सूर्य के प्रभा मण्डल से निरंतर नि:सृत होता है, वैज्ञानिकों ने नाद-तरंगों की प्रतीति करने में सफलता पाई है। यह नाद सकल सृष्टि पर छाया रहता है। जो सर्वत्र छा जाए वही छंद है। नाद किसी आकार-सीमा में सीमित नहीं होता। वह निराकार और असीम है। आकार न होने से नाद निराकार है। आकार से चित्र बनता है, जिसका आकार न हो उसका चित्र नहीं बनाया जा सकता अर्थात उसका चित्र गुप्त है, वह चित्रगुप्त है। नाद-तरंगों के निरंतर फैलाव और टकराव के फलस्वरूप भारहीन कण (बोसॉन की तरह) तथा भारयुक्त कणों से सृष्टि में पदार्थ का जन्म होता है। 'कण' समुच्चय से ही सृष्टि के सकल पदार्थों व कालांतर में जीवों का विकास हुआ। सृष्टि की सभी और प्रत्येक  काया में सूक्ष्म रूप में 'परम तत्व' की उपस्थिति को 'कायास्थिते स: कायस्थ:' अर्थात काया जिसमें वह (अनहद नादरूपी परब्रह्म) आत्मा रूप में स्थित है वह कायस्थ है, कहकर व्यक्त किया गया। इस सनातन सत्य को जानने- मानने वालों ने खुद को 'कायस्थ' कहा।   

                'कण-कण में भगवान' तथा 'कंकर कंकर में शंकर' जैसी अभिव्यक्तियाँ अनहद नाद के भगवान (अजन्मा-अजर-अमर) और कल्याणकारी (सत्-शव-सुंदर) होने की अनुभूति कराती हैं। सहित्+यत् प्रत्यय अर्थात जिसमें सबके हित की कामना समाहित हो वही साहित्य है। साहित्य के दो रूप गद्य तथा पद्य हैं। गद्य का वैशिष्ट्य विवेचना तथा पद्य की विशेषता लयात्मक भाव प्रवणता है।
 
                    भारत में लोक में द्विपदियाँ और विद्वज्जनों में श्लोक और कहने का चलन आदिकाल से है। कालांतर में पश्चिम में पश्चिम में कपलेट का चलन हुआ। समतुकांती द्विपदियों से दोहा, सोरठा आदि तथा चतुष्पदियों से रोला, मुक्तक आदि का विकास हुआ। स्वतंत्र कथ्य व  समतुकांती द्विपदियों के रूप में मुक्तक से विकसित पद्य रचनाओं को फारसी में 'ग़ज़ल' कहा गया। संस्कृत शब्दों के साथ ही संस्कृत का पद्य  रचना शल्प फारस होत्र हूर भी पश्चिमी देशों में गया। मुग़ल-आगमन के साथ भारत के पश्चिमी सीमांत प्रदेशों की लोक भाषाओं और फारसी के सम्मिश्रण से क्रमश: लश्करी, रेखता और उर्दू का जन्म और विकास हुआ। भारत भूमि में जन्मी उर्दू को कायस्थों ने न केवल अपनाया अपितु इसे तराश-निखार कर दुनिया का श्रेष साहित्य उर्दू में रचा भी। इस पृष्ठभूमि में डॉ. अरुणिमा सक्सेना द्वारा 'अरुणिमा की गजलें' प्रकाशित की जाना पुरखों की विरासत, अंशजों-वंशजों तक पहुँचाने की तरह सारस्वत अनुष्ठान है। साहित्यकार के अंशज-वंशज उसके पाठक ही होते हैं। भारत के विविध अंचलों में हिंदी के विविध रूप प्रचलित हैं जिन्हें लोकभाषा या बोली कहा जाता है। उर्दू भी हिंदी की एक बोलि है जीसे खुसरो ने हिंदवी कहा था। उर्दू हिंदी के एक ऐसी बोली है जिसके समझने-बोलनेवाले किसी क्षेत्र विशेष में नहीं, लगभग पूरे देश में आउए विदेशों में भी मिलते हैं। मुगल काल में उर्दू शासन-प्रशासन की भाषा होने के नाते इस क्षेत्र से जुड़े कायस्थ समाज की भाषा हो गई थी।

                    अरुणिमा की ग़ज़लें  फारसी-अरबी शब्दों के बाहुल्यवाली किताबी उर्दू में नहीं, आम लोगों द्वारा बोली जानेवाली उर्दू  में कही गई हैं। इसलिए ये सहज ग्राह्य है। इन ग़ज़लों के विषय इशकों-मुश्क तक सीमित न होकर, सम सामयिक हैं। आजकल सरकारों द्वारा चुनाव जीतने के नजरिए से गरीबों को अनुदान देने की नीति से असहमत अरुणिमा अपनी बात इस सलीके से सामने रखती हैं कि कोई भी उनसे असहमत नहीं हो सकता- 

देश के वरदान पर हक सभी का है अगर 
मुफ़लिसों को अपनी रोटी खुद कमाने दीजिए। 

                 धरती की बर्बादी कर रहा मनुष्य अब अंतरिक्ष के पार अन्य ग्रहों पर जाने की तैयारी कर रहा है। बकौल अरुणिमा- 

घर बनाना है मुझे अब आसमां के पार भी 
आशियाने के लिए नूतन ठिकाने दीजिए। 

                    आज का आदमी वक्त की कमी से परेशान है, शायरा अतीत को याद करते हुए फरमाती है- 

दुनिया में भाग-दौड़ व रस्साकशी न थी 
हर इक बशर को खूब फुर्सत थी उन दिनों।  

                     उर्दू अदब में एक शेयर की पंक्ति लेकर अपनी बात कहने की लंबी परंपरा है जबकि हिंदी साहित्य में यह नहीं है। अरुणिमा जी ने इस परंपरा में एक कड़ी जोड़ी है। उन्होंने एक चित्रपटीय गीत (किसी से मोहब्बत किसी से लड़ाई / अरे मार डाला दुहाई दुहाई) की एक पंक्ति को लेकर एक खूबसूरत शे'र कहा है- 

हमीं से मोहब्बत हमीं से लड़ाई 
नहीं प्यार हमसे तो फिर यार क्या है?

                    ज़िंदगी में खुशी और दर्द का साथ धूप-छाँव जैसा होता है। हर शायर दर्द को अपनी अपनी तरह से जीता है। बकौल मिर्जा ग़ालिब-

इश्क़ से तबीअत ने ज़ीस्त का मज़ा पाया
दर्द की दवा पाई दर्द-ए-बे-दवा पाया

                        जां निसार अख्तर कुछ दर्दों को कलेजे से लगाने की ख्वाहिश रखते हैं-

अब ये भी नहीं ठीक कि हर दर्द मिटा दें
कुछ दर्द कलेजे से लगाने के लिए हैं

                        अरुणिमा जी को दर्द भी मजा दे रहा है- 

पास आकर देखिए ऐसा करिश्मा प्यार का 
कुछ मजा आने लगा है दर्द की तासीर का 

                        बनावटी चीजों से असलियत का मजा कभी नहीं मिलता- 

फूल कागज के बहुत ही खुशनुमा खुशबू नहीं 
कागजी है पैराहन हर पैकरे तस्वीर का 

                     छोटे बह्र की गजल कहना आसान नहीं होता लेकिन अरुणिमा जी को इसमें भी महारत है। वे एक भी लफ़्ज़ जाया किए बिना अपनी बात  खूबसूरती से कह पाती हैं- 

यहाँ पर सभी सिर झुकाने लगे 
मेरी हर घड़ी यूं इबादत हुई 
जली है शमा क्यों पतिंगे जले 
   खुदारा यहाँ फिर शहादत हुई।

                    हिंदी, उर्दू और कभी-कभी देशज तथा संस्कृत निष्ठ शब्दों का जरूरत के मुताबिक सही प्रयोग करना अरुणिमा जी के कलाम की खासियत है। उनकी शायरी बेहद खूबसूरत तो है ही साथ ही सहज और सरल भी है। उनका दीवान हर खासो-आम के लिए है। उन्हें दिली मुबारकबाद। 
***
संपर्क: विश्व वाणी हिंदी संस्थान अभियान, 402 विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर 482001 
चलभाष 9425183244, ईमेल salil.sanjiv@gmail.com   

                    
      


 

कोई टिप्पणी नहीं: