कृष्ण भक्त कुंभन दास जी
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कुंभ न कुंभन दास थे, थे वे पवन सदृश्य।
कृष्ण भक्ति पर्याय थे, माय-मोह अदृश्य।।
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पुष्टि मार्ग के पथिक थे, पुष्ट जिया वैराग्य।
दुख को ही सुख मानकर, कह अभाग्य सौभाग्य।।
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शिशु कान्हा धारण करें, गोवर्धन गिरि धन्य।
कुंभन लीला बखानें, प्रभु पद लीन अनन्य।।
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प्रभु गुण का वर्णन करें, प्रभु लीला का गान।
ध्यान करें प्रभु कृष्ण का, कर ऋतुओं का भान।।
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पुष्टि मार्ग में लोक का, अनुरंजन था ध्येय।
प्रभु लीला मन में बसे, हो न निराश ज्ञेय।।
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राग-रागिनी का चयन, मौसम के अनुसार।
प्रभु लीला पद नित रचे, पूजन भाव विहार।।
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कृष्णालय की गौ चरा, रहा लौटता पूत।
सिंह झपटा गौ बचाते, जीवन दे प्रभु-दूत।।
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कृष्ण दास ने कृष्ण हित, किया आत्म बलिदान।
जनक कुंभ ने दुख न कर, किया ईश का गान।।
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मोह न लोभ कभी किया, माया सकी न व्याप।
कुंभन जीवन पवनवत, मिला आप से आप।।
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कुंभन ने निज सुत तजे, जो न कृष्ण के भक्त।
केवल वह सुत स्वीकार्य था, जो प्रभु में अनुरक्त।।
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रति रखिए प्रभु नाम में, पल पल करिए जाप।
मोह रखें प्रभु रूप से, कट जाएँ सब पाप।।
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बने कीर तन नाम जप, कर कीर्तन अविराम।
भक्ति कुंभ कुंभन लिए, दास स्वामी बृज-श्याम।।
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