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शुक्रवार, 16 फ़रवरी 2024

१६ फरवरी, सॉनेट, नवगीत, लघुकथा, वैलेंटाइन, उपेन्द्रवज्रा, प्रदोष, प्रेम गीत, छंद, मुक्तिका, सुभ्रामर, दोहा, कुण्डलिया,

सलिल सृजन १६ फरवरी
*
हिंगलिश सॉनेट 
Never ask what your country can do for you. 
Always ask what you can do for your country. 
You can shelter others only if you are a tree.
Be greatful to those who sheltered you. 
काम निकल जाने के बाद न हो जाएँ उड़न छू,
याद हमेशा रखें कब-किसने आपकी मदद की,
जिस तिस को देखकर कभी मत बजाइए सीटी,
हो जाएँगे बदनाम सब लोग देखेंगे करेंगे थू थू। 

मनाइए वेलेंटाइन या आयोजित करें बसंतोत्सव, 
किंतु कभी मत भूलिए मर्यादा और शालीनता, 
पर्वों पर मस्ती करिए इस तरह न रंग में भंग हो। 
Remember no playboy make eternal love, 
Enjoys willfully and very soon say tata. 
Step always firmly whenever whereever you go.  
•••
सोरठा सलिला 
सूरज नित्य प्रणाम, किरण करों से कर रहा।
मनु की किस्मत वाम, वसुधा को मैला करे।।
भोगे दुष्परिणाम, तनिक न लेकिन चेतता।
दौड़ रहा अविराम, ठोकर खा सँभले नहीं।।
भली करेंगे राम, कह खाता प्रभु भोग भी।
है आराम हराम, भूल न करता परिश्रम।।
किसको प्यारा चाम, जाहिर जग है काम प्रिय।
काम करो निष्काम, कृष्ण वचन माने नहीं।।
सभी चाहते दाम, ज्यादा से ज्यादा मिले।
माया जोड़ तमाम, जाते खाली हाथ सब।।
१६.२.२०२४
•••
सॉनेट
धीर धरकर
पीर सहिए, धीर धरिए।
आह को भी वाह कहिए।
बात मन में छिपा रहिए।।
हवा के सँग मौन बहिए।।
मधुर सुधियों सँग महकिए।
स्नेहियों को चुप सुमिरिए।
कहाँ क्या शुभ लेख तहिए।।
दर्द हो बेदर्द सहिए।।
श्वास इंजिन, आस पहिए।
देह वाहन ठीक रखिए।
बनें दिनकर, नहीं रुकिए।।
असत् के आगे न झुकिए।।
शिला पर सिर मत पटकिए।
मान सुख-दुख सम विहँसिए।।
१६-२-२०२२
•••
नवगीत:
.
मफलर की जय
सूट-बूट की मात हुई.
चमरौधों में जागी आशा
शीश उठे,
मुट्ठियाँ तनीं,
कुछ कदम बढ़े.
.
मेहनतकश हाथों ने बढ़
मतदान किया.
झुकाते माथों ने
गौरव का भान किया.
पंजे ने बढ़
बटन दबाया
स्वप्न बुने.
आशाओं के
कमल खिले
जयकार हुआ.
अवसर की जय
रात हटी तो प्रात हुई.
आसमान में आयी ऊषा.
पौध जगे,
पत्तियाँ हँसी,
कुछ कुसुम खिले.
मफलर की जय
सूट-बूट की मात हुई.
चमरौधों में जागी आशा
शीश उठे,
मुट्ठियाँ तनीं,
कुछ कदम बढ़े.
.
आम आदमी ने
खुद को
पहचान लिया.
एक साथ मिल
फिर कोइ अरमान जिया.
अपने जैसा,
अपनों जैसा
नेता हो,
गड़बड़ियों से लड़कर
जयी विजेता हो.
अलग-अलग पगडंडी
मिलकर राह बनें
केंद्र-राज्य हों सँग
सृजन का छत्र तने
जग सिरमौर पुनः जग
भारत बना सकें
मफलर की जय
सूट-बूट की मात हुई.
चमरौधों में जागी आशा
शीश उठे,
मुट्ठियाँ तनीं,
कुछ कदम बढ़े.
११.२.२०१५
...

नवगीत:
.
आम आदमी
हर्ष हुलास
हक्का-बक्का
खासमखास
रपटे
धारों-धार गये
.
चित-पट, पट चित, ठेलमठेल
जोड़-घटाकर हार गये
लेना- देना, खेलमखेल
खुद को खुद ही मार गये
आश्वासन या
जुमला खास
हाय! कर गया
आज उदास
नगदी?
नहीं, उधार गये
.
छोडो-पकड़ो, देकर-माँग
इक-दूजे की खींचो टाँग
छत पानी शौचालय भूल
फाग सुनाओ पीकर भाँग
जितना देना
पाना त्रास
बिखर गया क्यों
मोद उजास?
लोटा ले
हरि द्वार गये
...
दोहा गीत: धरती ने हरिय...
धरती ने हरियाली ओढी,
मनहर किया सिंगार.,
दिल पर लोटा सांप
हो गया सूरज तप्त अंगार...
*
नेह नर्मदा तीर हुलसकर
बतला रहा पलाश.
आया है ऋतुराज काटने
शीत काल के पाश.
गौरा बौराकर बौरा की
करती है मनुहार.
धरती ने हरियाली ओढी,
मनहर किया सिंगार.
*
निज स्वार्थों के वशीभूत हो
छले न मानव काश.
रूठे नहीं बसंत, न फागुन
छिपता फिरे हताश.
ऊसर-बंजर धरा न हो,
न दूषित मलय-बयार.
धरती ने हरियाली ओढी,
मनहर किया सिंगार....
*
अपनों-सपनों का त्रिभुवन
हम खुद ना सके तराश.
प्रकृति का शोषण कर अपना
खुद ही करते नाश.
जन्म दिवस को बना रहे क्यों
'सलिल' मरण-त्यौहार?
धरती ने हरियाली ओढी,
मनहर किया सिंगार....
***
नवगीत:
*
फागुन फगुनाई फगुनाहट
फगुनौटी त्यौहार.
रश्मिरथी हो विनत कर रहा
वसुधा की मनुहार.....
*
किरण-करों से कर आलिंगित
पोर-पोर ले चूम.
बौर खिलें तब आम्र-कुञ्ज में
विहँसे भू मासूम.
चंचल बरसाती सलिला भी
हुई सलज्जा नार.
कुलाचार तट-बंधन में बंध
चली पिया के द्वार.
वर्षा-मेघ न संग दीखते
मौन राग मल्हार.....
*
प्रकृति-सुंदरी का सिंगार लख
मोहित है ऋतुराज.
सदा लुभाता है बनिए को
अधिक मूल से ब्याज.
संध्या-रजनी-उषा त्रयी के
बीच फँसा है चंद.
मंद हुआ पर नहीं रच सका
अचल प्रणय का छंद.
पूनम-'मावस मिलन-विरह का
करा रहीं दीदार.....
*
अमराई, पनघट, पगडंडी,
रहीं लगाये आस.
पर तरुणाई की अरुणाई
तनिक न फटकी पास.
वैलेंटाइन वाइन शाइन
डेट गिफ्ट प्रेजेंट.
नवाचार में कदाचार का
मिश्रण है डीसेंट.
विस्मित तके बसंत नज़ारा
'सलिल' भटकता प्यार.....
***
लघु कथा
वैलेंटाइन
*
'तुझे कितना समझाती हूँ, सुनता ही नहीं. उस छोरी को किसी न किसी बहाने कुछ न कुछ देता ही रहता है. इतने दिनों में तो बात आगे बढ़ी नहीं. अब तो उसका पीछा छोड़ दे'
"क्यों छोड़ दूँ? तेरे कहने से रोज सूर्य को जल देता हूँ न? फिर कैसे छोड़ दूँ?"
'सूर्य को जल देने से इसका क्या संबंध?'
"हैं न, देख सूर्य धरती को धूप की गिफ्ट देकर प्रोपोज करता हैं न?धरती माने या न माने सूरज धूप देना बंद तो नहीं करता. मैं सूरज की रोज पूजा करूं और उससे इतनी सी सीख भी न लूँ कि किसी को चाहो तो बदले में कुछ न चाहो, तो रोज जल चढ़ाना व्यर्थ हो जायेगा न? सूरज और धरती की तरह मुझे भी मनाते रहना है वैलेंटाइन."
***

दोहा सलिला
*
कौर त्रिलोचन के हुए, गत अब आगत मीत.
उमा मौन हो देखतीं, जगत्पिता की प्रीत.
*
यह अनुपम वह निरुपमा, गौरा-बौरा साथ.
'सलिल' धन्य दर्शन मिले, जुड़े हाथ नत माथ.
*
क्या दूँ कैसे मैं इन्हें, सोच रहे मिथलेश?
त्रिपग नापते पग खड़े, बन दामाद रमेश.
*
रमा दे रहे शेष क्या, रहा कहीं भी तात?
राम जोड़ कर नत हुए, वंदन करे प्रभात
*
श्यामल विश्वंभर प्रभा, गौर उमा की कांति
इन्हें लुभाती उग्रता, उन्हें सुहाती शांति
*
थामे लता यशोधरा, तनिक नहीं भयभीत
सिंह अखंड पीड़ा लखे, अश्रु बहाए प्रीत
१६.२.२०१८

***
एक दोहा
*
लाड़ शब्द से कीजिए, शब्द जताते प्यार
जान लुटाई शब्द पर, शब्द हुए बलिहार
***
कार्यशाला
दो कवि एक कुण्डलिया
*
शब्दों ने मिलकर किया , शब्दों का श्रंगार।
शब्दों की दुल्हन सजी , शब्दों के गलहार।। -मिथलेश
शब्दों के गलहार, छंद गहने-पहनाए।
आनन्दित मिथलेश, विनीता सिय मुस्काए।।
सुलभ प्रेरणा करी, कल्पना-प्रारब्धों ने।
'सलिल' राय दी सत्य, कांता के शब्दों ने।। -संजीव
***
मुक्तिका
वार्णिक छंद उपेन्द्रवज्रा –
मापनी- १२१ २२१ १२१ २२
सूत्र- जगण तगण जगण दो गुरु
तुकांत गुरु, पदांत गुरु गुरु
*
पलाश आकाश तले खड़ा है
उदास-खो हास, नहीं झुका है
हजार वादे कर आप भूले
नहीं निभाए, जुमला कहा है
सियासती है मनुआ हमारा
चचा न भाए, कर में छुरा है
पड़ोस में ही पलते रहे हो
मिलो न साँपों, अब मारना है
तुम्हें दई सौं, अब तो बताओ
बसंत में कंत कहाँ छिपा है
***
सुभ्रामर दोहा
[२७ वर्ण, ६ लघु, २१ गुरु]
*
छोटी मात्रा छै रहें, दोहा ले जी जीत
सुभ्रामर बोलें इसे, जैसे मन का मीत
*
मैया राधा द्रौपदी, हेरें-टेरें खूब
आता जाता सताता, बजा बाँसुरी खूब
*
दादा दादी से कहें, पोते हैं नादान
दादी बोलीं- 'पोतियाँ, शील-गुणों की खान
*
कृष्णा सी मानी नहीं, दानी कर्ण समान
मीरा सी साध्वी कहाँ, कान्हा सी संतान
*
क्या लाया?, ले जाय क्या?, क्यों जोड़ा है व्यर्थ?
ज्यों का त्यों है छोड़ना, तो क्यों किया अनर्थ??
*
पाना खोना दें भुला, देख रहा अज्ञेय
हा-हा ही-ही ही नहीं, है साँसों का ध्येय
*
टोटा है क्यों टकों का, टकसालों में आज?
छोटा-खोटा मूँड़ पे, बैठा पाए राज
*
भोला-भाला देव है, भोला-भाला भक्त
दोनों दोनों से कहें, मैं तुझसे संयुक्त
*
देवी देवी पूजती, 'माँगो' माँगे माँग
क्या माँगे कोई कहे?, भरी हुई है माँग
*
माँ की माँ से माँ मिली, माँ से पाया लाड़
लाड़ो की लाड़ो लड़ी, कौन लड़ाए लाड़?
१६.२.२०१७
***
एक रचना-
आदमी
*
हमने जहाँ
जब भी लिखा
बस आदमी लिखा
*
मेहनत लिखी
कोशिश लिखी
मुस्कान भी लिखी
ठोकर लिखी
आहें लिखीं
नव तान भी लिखी
पीड़ा लिखी
आँसू लिखे
पहचान भी लिखी
ऐसा नहीं कि
कुछ न कहीं
वायवी लिखा
*
कुछ चाहतें
कुछ राहतें
मधुगान भी लिखा
पनघट लिखा
नुक्कड़ लिखा
खलिहान भी लिखा
हुक्का लिखा
हाकिम लिखा
फरमान भी लिखा
पत्थर लिखा
ठोकर लिखी
मधुगान भी लिखा
*
गेंती लिखी
छाले लिखे
प्याले नहीं लिखे
उपले लिखे
टिक्कड़ लिखे
निवाले भी लिखे
अपने लिखे
सपने लिखे
यश-मान भी लिखा
अमुआ लिखा
महुआ लिखा
बेचारगी लिखा
***
एक रचना
बरगद बब्बा
*
बरगद बब्बा
खड़े दिख रहे
जड़ें न लेकिन
अब मजबूत
*
बदलावों की घातक बारिश
संस्कार की माटी बहती।
जटा न दे पाती मजबूती
पात गिर रहे, डालें ढहतीं।
बेपेंदी के
लोटों जैसे
लुढकें घबरा
पंछी-पूत
*
रक्षक मानव छाया पाता
भक्षक बन फिर काट गिराता
सिर पर धूप पड़े जब सहनी
हाय-हाय तब खूब मचाता
सावन-झूला
गिल्ली-डंडा
मोबाइल को
लगे अछूत
*
मिटा दिये चौपाल-चौंतरे
भूले पूजा-व्रत-फेरे
तोता-मैना तोड़ रहे दम
घिरे चतुर्दिक बाँझ अँधेरे
बरगद बब्बा
अड़े दिख रहे
टूटी हिम्मत
मगर अकूत
***
दोहा-
जिस थाली में खा रहे, करें उसी में छेद
नर-विषधर में रह गया, कहिए अब क्या भेद?
*
द्विपदी
खोजा बाहर न मिला, हार के मैं बैठ गया
मन में झाँका तो आनंद को पाया मैंने
*
खोजा बाहर न मिला, हार के मैं बैठ गया
मन में झाँका तो आनंद को पाया मैंने
***
पुस्तक सलिला:
परिंदे संवेदना के : गीत नव सुख-वेदना के
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: परिंदे संवेदना के, गीत-नवगीत संग्रह, जयप्रकाश श्रीवास्तव, वर्ष २०१५, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द, जैकेटयुक्त, बहुरंगी, पृष्ठ ७०, मूल्य १५०/-, पहले पहल प्रकाशन, २५ ए प्रेस कॉम्प्लेक्स, भोपाल ०७६१ २५५५७८९, गीतकार संपर्क- आई. सी. ५ सैनिक सोसायटी, शक्ति नगर, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ०७८६९१९३९२७, ईमेल- jaiprakash09.shrivastava@gmail.com]
*
गीत-नवगीत के मानकों, स्वीकार्यताओ-अस्वीकार्यताओं को लेकर तथाकथित मठाधीशों द्वारा छेड़ी गयी निरर्थक कवायद से दूर रहते हुए जिन नवगीतकारों ने अपनी कृति गीत संग्रह के रूप में प्रकाशित करना बेहतर समझा जयप्रकाश श्रीवास्तव उनमें से एक हैं। हिंदी साहित्य में स्नाकोत्तर उपाधि प्राप्त रचनाकार गीत-नवगीत को भली-भाँति समझता है, उनके वैशिष्ट्य, साम्य और अंतर पर चर्चा भी करता है किन्तु अपने रचनाकर्म को आलोचकीय छीछालेदर से दूर रखने के लिये गीत संग्रह के रूप में प्रकाशित कर संतुष्ट है। इस कारण नवगीत के समीक्षकों - शोधछात्रों की दृष्टि से ऐसे नवगीतकार तथा उनका रचना कर्म ओझल हो जाना स्वाभाविक है।
'परिंदे संवेदना के' शीर्षक चौंकाता है परिंदे अनेक, संवेदना एक अर्थात एक संवेदना विशेष से प्रभावित अनेक भाव पक्षियों की चहचहाहट किन्तु संग्रह में संकलित गीत-नवगीत जीवन की विविध संवेदनाओं सुख-दुःख, प्रीति-घृणा, सर्जन-शोषण, राग-विराग, संकल्प-विकल्प आदि को अभिव्यक्त करते हैं। अत:, 'परिंदे संवेदनाओं के' शीर्षक उपयुक्त होता। जयप्रकाश आत्मानंदी रचनाकार हैं, वे छंद के शिल्प पर कथ्य को वरीयता देते हैं। उनके सभी गीत-नवगीत जय हैं किन्तु विविध अंतरों में समान संख्या अथवा मात्रा भार की पंक्तियों की सामान्यत: प्रचलित प्रथा का अनुकरण वे हमेशा नहीं करते। हर अंतरे के पश्चात मुखड़े के समान तुकांती पंक्तियों की प्रथा का वे पालन करते हैं। उनके नवगीत कथ्य-केंद्रित हैं। प्रकृति-पर्यावरण, शासन-प्रशासन, शोषण-विलास, गिराव-उठाव, आशा-निराशा आदि उनके इन ५८ नवगीतों में अन्तर्निहित हैं।
इन नवगीतों की भाषा सामान्यत: बोली जा रही शब्दावली से संपन्न है, जयप्रकाश अलंकरण पर स्वाभाविक सादगी को वरीयता देते हैं। वे शब्द चुनते नहीं, नदी के जलप्रवाह में स्वयमेव आती लहरियों के तरह शब्द अपने आप आते हैं।
आश्वासन के घर / खुशियों का डेरा
विश्वासों के / दीपक तले अँधेरा
बीज बचा / रक्खा है हमने
गाढ़े वक़्त अकाल का
हर संध्या / झंझावातों में बीते
स्नेह-प्यार के / सारे घट हैं रीते
संबंधों की /पगडंडी पर
रिश्ता सही कुदाल का
जाड़े के सूरज को अँगीठी की उपमा देता कवि दृश्य को सहजता से शब्दित करता है-
एक जलती अँगीठी सा / सूर्य धरकर भेष
ले खड़ा पूरब दिशा में / भोर का सन्देश
कुनकुनी सी धूप / पत्ते पेड़ के उजले
जागकर पंछी / निवाले खोजने निकले
नदी धोकर मुँह खड़ी / तट पर बिखेरे केश
जयप्रकाश मन में उमड़ते भावों को सीधे कागज़ पर उतार देते हैं। वे शिल्ल्प पर अधिक ध्यान नहीं देते। गीतीय मात्रात्मक संतुलन जनित माधुर्य के स्थान पर वे अभिव्यक्ति की सहजता को साधते हैं। फलत:, कहीं-कहीं कविता की अनुभूति देते हैं नवगीत। अँतरे के पश्चात मुखड़े की संतुकान्ति-समभारीय पंक्तिया ही रचनाओं को गीत में सम्मिलित कराती हैं-
संवेदनायें / हुईं खारिज, पड़ी हैं / अर्ज़ियाँ (९-१२-५)
बद से बदतर / हो गये हालात (८-१०)
वेदनाएँ हैं मुखर / चुप हुए ज़ज़्बात (१२-१०)
आश्वासनों की / बाँटी गईं बस / पर्चियाँ (९-९-५)
सोच के आगे / अधिक कुछ भी नहीं (९-१०)
न्याय की फ़ाइल / रुकी है बस वहीं (९-१०)
व्यवस्थाओं ने / बयानों की उड़ाईं / धज्जियाँ (१०-१२-५)
प्रतिष्ठित अपराध / बिक चुकी है शर्म (१०-१०)
हाथ में कानून/ हो रहे दुष्कर्म (१०-१०)
मठाधीशों से / सुरक्षित अब नहीं / मूर्तियाँ (९-१०-५)
स्पष्ट है कि मुखड़ा तथा उसकी आवृत्ति ९-१२-५ = २६ मात्रीय अथवा ५-८-३ के वर्णिक बंधन में आसानी से ढली जा सकती हैं किंतु अभिव्यक्ति को मूल रूप में रख दिया गया है। इस कारण नवगीतों में नादीय पुनरावृत्ति जनित सौंदर्य में न्यूनता स्वाभाविक है।
जयप्रकाश जी के नवगीतों का वैशिष्ट्य बिना किसी प्रयास के आंग्ल शब्दों का प्रयोग न होना है। केंद्रीय विद्यालय में शिक्षक होने के नाते उनके कोष में अनेक आंग्ल शब्द हैं किंतु भाषा पर उनका अधिकार उन्हें आंग्ल शब्दों का मुहताज नईं बनाने देता जबकि संस्कृत मूल के शिरा, अवशेष, वातायनों, शतदल, अनुत्तरित, नर्तन, प्रतिमान, उत्पीड़न, यंत्रणाएँ, श्रमफल आदि, देशज बुंदेली के समंदर, मीड़, दीवट, बिचरें, दुराव, दिहाड़ी, तलक, ऊसर आदि और उर्दू के खारिज, अर्जियाँ, बदतर, हालात, ज़ज़्बात, बयानों, बहावों, वज़ीर, ज़मीर, दरख्तों, दुशाले, निवाले, दुश्वारियों, मंज़िल, ज़ख्म, बेनूर, ख्याल. दहलीज़ आदि शब्द वे सहजता से प्रयोग करते हैं। शब्दों को एकवचन से बहुवचन बनाते समय वे ज़ज़्बा - ज़ज़्बात, हालत - हालात में उर्दू व्याकरण का अनुकरण करते हैं तो बयान - बयानों में हिंदी व्याकरण के अनुरूप चलते हैं। काले-गोरे, शह-मात, फूल-पत्ते, अस्त्र-शस्त्र, आड़ी-तिरछी जैसे शब्द युग्म भाषा को सरसता देते हैं।
इस संग्रह के मुद्रण में पथ्य-शुद्धि पर काम ध्यान दिया गया है। फलत: आहूति (आहुति), दर्पन (दर्पण), उपरी (ऊपरी), रुप (रूप), बिचरते (विचरते), खड़ताल (करताल), उँचा (ऊँचा), सोंपकर (सौंपकर), बज़ीर (वज़ीर), झंझाबातों (झंझावातों) जैसी त्रुटियाँ हो गयी हैं।
जयप्रकाश के ये नवगीत आम आदमी के दर्द और पीड़ा की अभिव्यक्ति के प्रति प्रतिबद्ध हैं। श्री शिवकुमार अर्चन ने ठीक ही आकलित किया है- इन 'गीतों की लयात्मक अभिव्यक्ति के वलय में प्रेम, प्रकृति, परिवार, रिश्ते, सामाजिक सरोकार, राजनैतिक विद्रूप, असंगतियों का कुछ जाना, कुछ अनजाना कोलाज है'।
जयप्रकाश जी पद्य साहित्य में छंदबद्धता से उत्पन्न लय और संप्रेषणीयता से न केवल सुपरिचित है उसे जानते और मानते भी हैं, इसलिए उनके गीतों में छान्दस अनुशासन में शैथिल्य अयाचित नहीं सुविचारित है जिससे गीत में रस-भंग नहीं होता। उनका यह संग्रह उनकी प्रतिबद्धता और रचनाधर्मिता के प्रति आश्वस्त करता है। उनके आगामी संग्रह को पढ़ने की उत्सुकता जगाता है यह संग्रह।
१६.२.२०१६
***
नवगीत:
.
चिन्तन करें,
न चिंता करिए
.
सघन कोहरा
छटना ही है.
आज न कल
सच दिखना ही है.
श्रम सूरज
निष्ठा की आशा
नव परिभाषा
लिखना ही है.
संत्रासों की कब्र खोदने
कोशिश गेंती
साथ चलायें
घटे विषमता,
समता वरिए
चिन्तन करें,
न चिंता करिए
.
दल ने दलदल
बहुत कर दिया.
दलविहीन जो
ऐक्य हर लिया.
दीन-हीन को
नहीं स्वर दिया.
अमिया पिया
विष हमें दे दिया.
दलविहीन
निर्वाचन करिए.
नव निर्माणों
का पथ वरिए.
निज से पहले
जन हित धरिए.
चिन्तन करें,
न चिंता करिए
१६.२.२०१५, भांड़ई
***
नवगीत:
*
झोपड़-झुग्गी से
बँगलेवाले हारे
.
झाड़ू लेकर
राजनीति की
बात करें.
संप्रदाय की
द्वेष-नीति की
मात करें.
आश्वासन की
मृग-मरीचिका
ख़त्म करो.
उन्हें हराओ
जो निर्बल से
घात करें.
मैदानों में
शपथ लोक-
सेवा की लो.
मतदाता क्या चाहे
पूछो जा द्वारे
झोपड़-झुग्गी से
बँगलेवाले हारे
.
मन्दिर-मस्जिद
से पहले
शौचालय हो.
गाँव-मुहल्ले
में उत्तम
विद्यालय हो.
पंडित-मुल्ला
संत, पादरी
मेहनत कर-
स्वेद बहायें,
पूज्य खेत
देवालय हों.
हरियाली संवर्धन हित
आगे आ रे!
झोपड़-झुग्गी से
बँगलेवाले हारे
.
जाती जन्म से
नहीं, कर्म से
बनती है.
उत्पादक अन-
उत्पादक में
ठनती है.
यह उपजाता
वह खाता
बिन उपजाये-
भू उसकी
जिसके श्रम-
सीकर सनती है.
अन-उत्पादक खर्च घटे
वह विधि ला रे!
झोपड़-झुग्गी से
बँगलेवाले हारे
.
श्रम की
सबसे अधिक
प्रतिष्ठा करना है.
शोषक पूँजी को
श्रम का हित
वरना है.
चौपालों पर
संसद-ग्राम
सभाएँ हों-
अफसरशाही
को उन्मूलित
करना है.
बहुत हुआ द्लतंत्र
न इसकी जय गा रे!
झोपड़-झुग्गी से
बँगलेवाले हारे
.
बिना बात की
बहसें रोको,
बात करो.
केवल अपनी
कहकर तुम मत
घात करो.
जिम्मेवारी
प्रेस-प्रशासन
की भारी-
सिर्फ सनसनी
फैला मत
आघात करो.
विज्ञापन की पोल खोल
सच बतला रे!
झोपड़-झुग्गी से
बँगलेवाले हारे
१५-१६.२.२०१५
*
छंद सलिला:
प्रदोष छंद
संजीव
*
दो पदी, चार चरणीय, १२ मात्राओं के मात्रिक प्रदोष छंद में दो चतुष्कल एक पंचकल होते हैं तथा चरणान्त में गुरु-लघु (तगण, जगण) वर्जित हैं.
उदाहरण:
१. प्रदोष व्रत दे शांति सुख, उमेश हर लें भ्रान्ति-दुःख
त्रिदोष मेंटें गजानन, वर दें दुर्गे-षडानन
२. भारत भू है पुरातन, धरती है यह सनातन
जां से प्यारा है वतन, चिन्तन-दर्शन चिरंतन
३. झण्डा ऊंचा तिरंगा, नभ को छूता तिरंगा
अपना सपना तिरंगा, जनगण वरना तिरंगा
*
१. लक्षण संकेत: उमेश = १२ ज्योतिर्लिंग = १२ मात्रायें
(अब तक प्रस्तुत छंद: अग्र, अचल, अचल धृति, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, एकावली, कीर्ति, घनाक्षरी, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दोधक, नित, निधि, प्रदोष, प्रेमा, बाला, मधुभार, माया, माला, ऋद्धि, रामा, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शिव, शुभगति, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हंसी)
१६.२.२०१४
***
विमर्श :
प्रेम गीत
सलिल
*
स्थापना और प्रतिस्थापना के मध्य संघात, संघर्ष, स्वीकार्यता, सहकार और सृजन सृष्टि विकास का मूल है। विज्ञान बिग बैंग थ्योरी से उत्पन्न ध्वनि तरंग जनित ऊर्जा और पदार्थ की सापेक्षिक विविधता का अध्ययन करता है तो दर्शन और साहित्य अनाहद नाद की तरंगों से उपजे अग्नि और सोम के चांचल्य को जीवन-मृत्यु का कारक कहता है। प्राणमय सृष्टि की गतिशीलता ही जीवन का लक्षण है। यह गतिशीलता वेदना, करुणा, सौन्दर्यानुभूति, हर्ष और श्रृंगार के पञ्चतात्विक वृत्तीय सोपानों पर जीवनयात्रा को मूर्तित करती है।
'जीवन अनुभूतियों की संसृति है। मानव का अपने परिवेश से संपर्क किसी न किसी सुखात्मक या दुखात्मक अनुभूति को जन्म देता है और इन संवेदनों पर बुद्धि की क्रिया-प्रतिक्रिया मूल्यात्मक चिंतन के संस्कार बनती चलती है। विकास की दृष्टि से संवेदन चिंतन के अग्रज रहे हैं क्योंकि बुद्धि की क्रियाशीलता से पहले ही मनुष्य की रागात्मक वृत्ति सक्रिय हो जाती है।'-महादेवी वर्मा, संधिनी, पृष्ठ ११
इस रागात्मक वृत्ति की प्रतीति, अनुभूति और अभिव्यक्ति की प्रेम गीतों का उत्स है। गीत में भावना, कल्पना और सांगीतिकता की त्रिवेणी का प्रवाह स्वयमेव होता है। गीतात्मकता जल प्रवाह, समीरण और चहचहाहट में भी विद्यमान है। मानव समाज की सार्वजनीन और सरकालिक अनुभूतियों को कारलायल ने 'म्यूजिकल थॉट' कहा है. अनुभूतियों के अभिव्यमति कि मौखिक परंपरा से नि:सृत लोक गीत और वैदिक छान्दस पाठ कहने-सुनने की प्रक्रिया से कंठ से कंठ तक गतिमान और प्राणवंत होता रहा। आदिम मनुष्य के कंठ से नि:सृत नाद ब्रम्ह व्यष्टि और समष्टि के मध्य प्रवाहमान होकर लोकगीत और गीत परंपरा का जनक बना। इस जीवन संगीत के बिना संसार असार, लयहीन और बेतुक प्रतीत होने लगता है। अतः जीवन में तुक, लय और सार का संधान ही गीत रचना है। काव्य और गद्य में क्रमशः क्यों, कब, कैसे की चिंतनप्रधानता है जबकि गीत में अनुभूति और भावना की रागात्मकता मुख्य है। गीत को अगीत, प्रगीत, नवगीत कुछ भी क्यों न कहें या गीत की मृत्यु की घोषणा ही क्यों न कर दें गीत राग के कारण मरता नहीं, विरह और शोक में भी जी जाता है। इस राग के बिना तो विराग भी सम्भव नहीं होता।
आम भाषा में राग को प्रेम कहा जाता है और राग-प्रधान गीतों को प्रेम गीत।
१६.२.२०१४
***
क्षणिका
याद बन पाथेय
जीवन को नये
नित अर्थ देती.
यदि नहीं तो
भाव की
होती 'सलिल'
सब व्यर्थ खेती..
***
मुक्तिका
खुद से ही
*
खुद से ही हारे हैं हम.
क्यों केवल नारे हैं हम..

जंग लगी है, धार नहीं
व्यर्थ मौन धारे हैं हम..

श्रम हमको प्यारा न हुआ.
पर श्रम को प्यारे हैं हम..

ऐक्य नहीं हम वर पाये.
भेद बहुत सारे हैं हम..

अधरों की स्मित न हुए.
विपुल अश्रु खारे हैं हम..

मार न सकता कोई हमें.
निज मन के मारे हैं हम..

बाँहों में नभ को भर लें.
बादल बंजारे हैं हम..

चिबुक सजे नन्हे तिल हैं.
नयना रतनारे हैं हम..

धवल हंस सा जनगण-मन.
पर नेता करे हैं हम..

कंकर-कंकर जोड़ रहे.
शंकर सम, गारे हैं हम..

पाषाणों को मोम करें.
स्नेह-'सलिल'-धारे हैं हम..
***
मुक्तिका:
हाथ में हाथ रहे...
*
हाथ में हाथ रहे, दिल में दूरियाँ आईं.
दूर होकर ना हुए दूर- हिचकियाँ आईं..

चाह जिसकी न थी, उस घर से चूड़ियाँ आईं..
धूप इठलाई तनिक, तब ही बदलियाँ आईं..

गिर के बर्बाद ही होने को बिजलियाँ आईं.
बाद तूफ़ान के फूलों पे तितलियाँ आईं..

जीते जी जिद ने हमें एक तो होने न दिया.
खाप में तेरे-मेरे घर से पूड़ियाँ आईं..

धूप ने मेरा पता जाने किस तरह पाया?
बदलियाँ जबके हमेशा ही दरमियाँ आईं..

कह रही दुनिया बड़ा, पर मैं रहा बच्चा ही.
सबसे पहले मुझे ही दो, जो बरफियाँ आईं..

दिल मिला जिससे, बिना उसके कुछ नहीं भाता.
बिना खुसरो के न फिर लौट मुरकियाँ आईं..

नेह की नर्मदा बहती है गुसल तो कर लो.
फिर न कहना कि नहीं लौट लहरियाँ आईं..
१६.२.२०११
***
गीत
*
धरती ने हरियाली ओढ़ी,
मनहर किया सिंगार.,
दिल पर लोटा साँप
हो गया सूरज तप्त अंगार...
*
नेह नर्मदा तीर हुलसकर
बतला रहा पलाश.
आया है ऋतुराज काटने
शीत काल के पाश.
गौरा बौराकर बौरा की
करती है मनुहार.
धरती ने हरियाली ओढी,
मनहर किया सिंगार.
*
निज स्वार्थों के वशीभूत हो
छले न मानव काश.

रूठे नहीं बसंत, न फागुन
छिपता फिरे हताश.

ऊसर-बंजर धरा न हो,
न दूषित मलय-बयार.
धरती ने हरियाली ओढी,
मनहर किया सिंगार....
*
अपनों-सपनों का त्रिभुवन
हम खुद ना सके तराश.
प्रकृति का शोषण कर अपना
खुद ही करते नाश.
जन्म दिवस को बना रहे क्यों
'सलिल' मरण-त्यौहार?
धरती ने हरियाली ओढी,
मनहर किया सिंगार....
***
नवगीत:
*
फागुन फगुनाई फगुनाहट
फगुनौटी त्यौहार.
रश्मिरथी हो विनत कर रहा
वसुधा की मनुहार.....
*
किरण-करों से कर आलिंगित
पोर-पोर ले चूम.
बौर खिलें तब आम्र-कुञ्ज में
विहँसे भू मासूम.
चंचल बरसाती सलिला भी
हुई सलज्जा नार.
कुलाचार तट-बंधन में बंध
चली पिया के द्वार.
वर्षा-मेघ न संग दीखते
मौन राग मल्हार.....
*
प्रकृति-सुंदरी का सिंगार लख
मोहित है ऋतुराज.
सदा लुभाता है बनिए को
अधिक मूल से ब्याज.
संध्या-रजनी-उषा त्रयी के
बीच फँसा है चंद.
मंद हुआ पर नहीं रच सका
अचल प्रणय का छंद.
पूनम-'मावस मिलन-विरह का
करा रहीं दीदार.....
*
अमराई, पनघट, पगडंडी,
रहीं लगाये आस.
पर तरुणाई की अरुणाई
तनिक न फटकी पास.
वैलेंटाइन वाइन शाइन
डेट गिफ्ट प्रेजेंट.
नवाचार में कदाचार का
मिश्रण है डीसेंट.
विस्मित तके बसंत नज़ारा
'सलिल' भटकता प्यार.....
१६.२.२०१०
***

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