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बुधवार, 7 फ़रवरी 2024

घनाक्षरी, गुरु सक्सेना, पुरोवाक्

पुरोवाक्
छंदों की किताब - घनाक्षरी लाजवाब
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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                    महा विस्फोट सिद्धांत (बिग बैंग थ्योरी) के अनुसार लगभग १५ अरब वर्ष पूर्व ब्रह्मांड का निर्माण आरंभ हुआ। विस्फोट जनित नाद-निनाद ही सृष्टि उत्पत्ति का कारण है। भारतीय मनीषा नाद ब्रह्म की उपासना 'ॐ' ध्वनि से करती है जो सूर्य के प्रभा मण्डल से भी निसृत होता है। यह विज्ञान ने भी प्रमाणित किया है। ज्ञान-विज्ञान-कला की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती की वीणा से सप्त स्वर निनादित होते हैं। नाद तरंगों के सतत प्रवहण, टकराव, मिलन, बिखराव आदि के फल स्वरूप भारहीन कण तथा कालांतर में भारयुक्त कण का जन्म हुआ। यह निराकारी परब्रह्म का साकारी ब्रह्म में रूपांतरण होना है। चित्रगुप्त के गुप्त चित्र का प्रगटीकरण यही है। नाद-निनाद जो सकल सृष्टि पर छाया और निराकार के साकार होने में सहायक हुआ, यही छंद है। इस नाद की ध्वनि तरंगों की आवृत्ति सुनियोजित तथा लयबद्ध थी इसीलिए छंद में 'लय' का महत्व सर्वाधिक है। नाद-निनाद में लय तथा आवृत्ति की भिन्नता से सृष्टि के विविध तत्वों का निर्माण हुआ।

                    भौतिक विज्ञान के अनुसार लगभग १३.७ अरब वर्ष पूर्व एक बहुत छोटे से बिंदु से फैलते हुए ब्रह्माण्ड का निर्माण व क्रमश: विस्तार हुआ। चारों वेदों और स्कंद पुराण 'रेवा खंड' में वर्णित सनातन सलिला मेकलसुता शिवात्मजा-शिवप्रिया नर्मदा की लम्हेटा घाट संरचना लगभग ६.५ करोड़ वर्ष प्राचीन है। लगभग ५ करोड़ वर्ष पूर्व दक्षिणी गोंडवाना लैण्ड्स और उत्तरी अंगारा लैण्ड्स से प्रवहित नदियों द्वारा लाखों वर्षों तक टेथिस महासागर (वर्तमान हिमालय, कश्मीर, पंजाब, राजस्थान उत्तर प्रदेश, बिहार झारखंड, छतीसगढ़, मध्य प्रदेश, गुजरात आदि) में बहाई गई मिट्टी ने महासागर को पूर दिया। लगभग ३ करोड़ वर्ष पूर्व हिमालय तथा २ करोड़ वर्ष पूर्व गंगा नदी का उद्भव काल है। नर्मदा घाटी में विचरनेवाले भीमाकारी डायनासौर राजासौरस नर्मडेन्सिस का काल लगभग २० लाख वर्ष पूर्व का है। नर्मदा घाटी में आदि मानव द्वारा बनाए गए शैल चित्र लगभग २५ हजार से ३५ हजार वर्ष पूर्व के हैं। यह संकेत करने का उद्देश्य यह स्पष्ट करना है कि 'छंदों की किताब' का रचयिता उस कलकल निनादिनी नर्मदा का सुत है जिसके दक्षिण में 'असुर' तथा उत्तर में 'सुर' सभ्यताओं का जन्म, विकास और टकराव हुआ तथा इस घटनाक्रम में नर्मदा घाटी की नाग सभ्यता 'दो पाटन के बीच में साबित बचा न कोय' की गति को प्राप्त हुई। वेदकालीन सूर्य ऋषि की तनया नंदिनी तथा नागकुल राजकन्या इरावती से विवाहित दोनों कुलों के पूज्य कर्मेश्वर धर्मेश्वर लिपि-लेखनी-अक्षर दाता श्री चित्रगुप्त के महावंश में जन्म लेने का सौभाग्य इस कृति के कृतिकार को और मुझे भी मिला है। स्वाभाविक है कि वृत्ति से शिक्षक और अभिरुचि से कवि (मानव होना भाग्य है, कवि होना सौभाग्य - नीरज) शब्द ब्रह्म की सतत आराधना करते-करते छंद से साक्षात करे और कराए।

                    नर्मदा तट साधना से सिद्धि और गंगा तट सिद्धि से प्रसिद्धि के लिए चिरकाल से ख्यात है। 'नर्मम् ददाति इति नर्मदा' अर्थात जो आनंददेनेवाली है वह नर्मदा है। संस्कृत की 'चिद' धातु से बने 'छंद' का अर्थ आह्लादित करना है। नर्मदा-दर्शन से आनंद और छंद-सृजन से आह्लाद प्राप्ति का दुर्लभ सुख मुझ मूढ़मति को मिल रहा है तो मुझसे ज्येष्ठ गुरु जी की सुपात्रता असंदिग्ध है ही।

                    भगवान ब्रह्मा को कलुषित मति हेतु मिले श्राप से मुक्त कराने वाले ब्रह्मांड घाट (बरमान) में नर्मदा के सलिल-प्रवाह में अवगाहन का सौभाग्य कृतिकार को मिला है। बरमान घाट में  परमब्रह्म चित्रगुप्त भगवान के मंदिर निर्माण और विग्रह स्थापन का माध्यम बनने का सौभाग्य इन पंक्तियों के लेखक को मिला है। कृतिकार के पूर्व जन्म के संस्कार उसे कवि-मञ्च के प्रपंच की ऊँचाई तक पहुँचाने के बाद छंद-साधना और सिद्धि की दिशा में गतिमान कर चुके हैं। सिद्धि का प्रसाद श्रद्धालुओं को वितरित करने की परंपरा का निर्वाह इस कृति के माध्यम से हो रहा है, यह अत्यंत महत्वपूर्ण है।

छंद-महत्व तथा विरासत

                    'यदक्षरं परिमाणं तच्छन्दः' अर्थात् जहाँ अक्षरों की गिनती की जाती है या परिगणन किया जाता है, वह छन्द है। पाणिनीय शिक्षा में छन्दों के महत्व को प्रतिपादित करते हुए कहा गया है-'छन्दः पादौ तु वेदस्य'। यहाँ 'पैर' से भाव 'लात' नहीं 'चरण' ग्राह्य है। वेद मंदिर में प्रवेश चरण के बिना नहीं किया जा सकता अर्थात छंद जाने बिना वेद को समझा नहीं जा सकता। संस्कृत वांगमय में ७ वैदिक छंद (गायत्री २४ अक्षर, उष्णिक २८ अक्षर, अनुष्टुप् ३२ अक्षर, बृहती ३६ अक्षर, पंक्ति: ४० अक्षर, त्रिष्टुप ४४ अक्षर तथा जगती ४८ अक्षर) तथा १४ अति छंद (अतिजगती ५२ अक्षर, शक्वरी ५६ अक्षर, अतिशक्वरी ६० अक्षर, अष्टि ६४ अक्षर, अत्यष्टि ६८ अक्षर, धृति ७२ अक्षर, अतिधृति ७६ अक्षर, कृति ८० अक्षर, प्रकृति ८४, अक्षर, आकृति ८८ अक्षर, विकृति ९२ अक्षर, संस्कृति ९६ अक्षर, अभिकृति १०० अक्षर तथा उत्कृति १०४ अक्षर) हैं। इसके अतिरिक्त वार्णिक (सम, अर्धसम, विषम) तथा मात्रिक वृत्तों में विभक्त लौकिक छंद हैं। हिंदी छंद शास्त्र को अपभ्रंश तथा संस्कृत पिंगल की उदात्त विरासत प्राप्त है। हिंदी पिंगल के सर्वमान्य ग्रंथ छंद प्रभाकर (रचयिता जगन्नाथ प्रसाद 'भानु') में लगभग ७०० लौकिक छंदों का रचना विधान तथा उदाहरण प्राप्त हैं। गुरु जी ने छंद शास्त्र के उपलब्ध ग्रंथों का अनुशीलन कर अपने प्रिय घनाक्षरी छंद को केंद्र में रखकर इस पिंगल ग्रंथ का सृजन किया है।

घनाक्षरी

                    हिंदी पिंगल के सर्वकालिक सर्वाधिक लोकप्रिय छंदों में एक 'घनाक्षरी' का सृजन कवि की काव्य कला की कसौटी है। घनाक्षरी (घन + अक्षरी) नाम ही संकेत करता है कि इस छंद में अक्षरों का संगुफन सघन है। घनाक्षरी में सघनता भावों, रसों, अलंकारों, शब्द शक्तियों आदि की सघनता होना घनाक्षरीकार की गुरुता की परिचायक होती है। इस कृति की घनक्षरियों में विविध आयामी सघनता पंक्ति-पंक्ति में दृष्टव्य है। यदि इस दृष्टि से विवेचन किया जाए तो एक स्वतंत्र ग्रंथ ही तैयार हो जाएगा। इसलिए, यह विवेचन भावी शोधकर्ताओं के लिए छोड़ता हूँ। 
  
                    घनाक्षरी में 'चार' का महत्व है। चार पंक्तियाँ, चार यति स्थल। परंपरा से प्राप्त घनाक्षरी छंद ४ x २ = ८ (३१ वर्ण- मनहरण व जनहरण तथा ३२ वर्ण - रूप, जलहरण, डमरू, विजया, कृपाण तथा हरिहरण ) हैं। गुरु जी ने अपनी गुरुता के हस्ताक्षर करते हुए ७ अन्य घनाक्षरियों (३१ वर्ण- कलाधर, ३२ वर्ण- अनंगशेखर, सुधानिधि, मदनहरण,  ३३ वर्ण- देव, महीधर, ३० वर्ण सूर) पर न केवल रचनाएँ की हैं, पुस्तकांत में सभी १५ घनक्षरियों का रचना विधान भी संलग्न कर दिया है ताकि नव घनाक्षरीकार जोर आजमाइश कर सकें। 

                    घनाक्षरी छंद का परिवार बहुत बड़ा है। वर्ण मर्यादा के अनुसार ३१, ३२ तथा ३३ वर्णों के छंदों को घनाक्षरी माना जाए तो कुल प्रकार के छंद इस कुल में सम्मिलित होते हैं जिनकी यति, तुकांत आदि खोजे जा सकते हैं किंतु ये सभी घनाक्षरी इसलिए नहीं हो सकते कि इनकी लय घनाक्षरी कुल के छंदों की लय से सादृश्य नहीं रख सकेगी। इन छंदों में से किन-किन में घनाक्षरी कुल की लय है यह अन्वेषण शोध परियोजना में ही हो सकता है। व्यावहारिकता का तकाजा है कि भावी पीढ़ी को घनाक्षरी के चारुत्व और लालित्य से परिचित कराने के लिए अब तक अन्वेषित घनाक्षरियों के रचना विधान और उत्तम उदाहरण सुलभ कराए जाएँ। अंतर्जाल पर ८ जनवरी २००९ को हिंदयुग्म.कॉम पर घनाक्षरी की चर्चा प्रथमत: इन पंक्तियों के लेखक ने की थी और लगभग २ वर्ष चली विश्व की सर्वाधिक लंबी छंद शिक्षण शृंखला में घनाक्षरी  लेखन का विधान, उदाहरण और शिक्षण किया था। इस कार्यशाला की दो घनाक्षरियाँ प्रस्तुत हैं- 

भारती की आरती उतारिये 'सलिल' नित, सकल जगत को सतत सिखलाइये.
जनवाणी हिंदी को बनायें जगवाणी हम, भूत अंगरेजी का न शीश पे चढ़ाइये.
बैर ना विरोध किसी बोली से तनिक रखें, पढ़िए हरेक भाषा, मन में बसाइये.
शब्द-ब्रम्ह की सरस साधना करें सफल, छंद गान कर रस-खान बन जाइए.
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आठ-आठ-आठ-सात, पर यति रखकर, मनहर घनाक्षरी, छंद कवि रचिए।
लघु-गुरु रखकर, चरण के आखिर में, 'सलिल'-प्रवाह-गति, वेग भी परखिए।।
अश्व-पदचाप सम, मेघ-जलधार सम, गति अवरोध न हो, यह भी निरखिए।
करतल ध्वनि कर, प्रमुदित श्रोतागण- 'एक बार और' कहें, सुनिए-हरषिए।।

मेरे वेब स्थल दिव्य नर्मदा.इन पर घनाक्षरी संबंधी ४७ प्रस्तुतियाँ उपलब्ध हैं। घनाक्षरी शिक्षण की दिशा में इस कृति के माध्यम से गुरु जी ने यह सराहनीय कार्य किया है। वे साधुवाद के पात्र हैं। आज बीसों वेब स्थलों पर घनाक्षरी शिक्षण का कार्य जारी है। 

                घनाक्षरी को समृद्ध करनेवाले कालजयी घनाक्षरीकारों में देव, दूलह, नंदराम, पजनेस, गोस्वामी तुलसीदास, रहीम, गंग, बोधा, ग्वाल, द्विज, नवनीत, सेनापति, केशव, बिहारी, पद्माकर, भूषण, घनानंद, वृंद,  प्रताप सिंह , मतिराम, चिंतामणि, भिखारीदास, रघुनाथ, बेनी, टीकाराम, ग्वाल, चन्द्रशेखर बाजपेई, हरनाम, कुलपति मिश्र, नेवाज, सुरति मिश्र , कवीन्द्र उदयनाथ, ऋषिनाथ, रतन कवि, बेनी बन्दीजन, प्रवीन, ब्रह्मदत्त, ठाकुर बुन्देलखण्डी, बोधा, गुमान मिश्र, महाराज जसवन्त सिंह, भगवन्त राय खीची, भूपति, रसनिधि, महाराज विश्वनाथ, महाराज मानसिंह, मतिराम, रत्नाकर, नरोत्तमदास, मैथिलीशरण गुप्त, दिनकर, ब्रजेन्द्र अवस्थी, काका हाथरसी, निर्भय हाथरसी आदि तथा समकालिक घनाक्षरीकारों में सत्यनारायण सत्तन, उदय प्रताप सिंह, विष्णु विराट, हरिओम पंवार, जगदीश सोलंकी, अल्हड़ बीकानेरी, ओमप्रकाश आदित्य, विनीत चैहान, वेदव्रत वाजपेयी, ओमपाल सिंह 'निडर', रामदेव लाल 'विभोर', संजीव वर्मा 'सलिल', गुरु सक्सेना, राजेन्द्र वर्मा, ब्रजेश सिंह, ॐ नीरव आदि तथा नवोदित घनाक्षरीकारों में प्रवीण शुक्ल, चोवाराम बादल, छाया सक्सेना, नीलम कुलश्रेष्ठ, मिथलेश बड़गैया, हरि सहाय पांडे,  बसंत शर्मा, अनिल बाजपेई, मीना भट्ट, मनीषा सहाय 'सुमन', अरुण श्रीवास्तव, 'अर्णव', अरुण दीक्षित अनभिज्ञ, सुरेन्द्र यादवेंद्र, शशिकांत यादव, राहुल राय, पवन पांडेय, गौरी शंकर धाकड़, कैलाश जोशी पर्वत, राजेन्द्र चौहान, विवेक सक्सेना, विजय बागरी, कैलाश सोनी सार्थक, अखिलेश प्रजापति, अखिलेश त्रिपाठी 'केतन', प्रतीक तिवारी, प्रीतिमा पुलक आदि उल्लेखनीय हैं। स्पष्ट है कि घनाक्षरी का सृजन दुरूह होने के बाद भी इसके प्रति नई पीढ़ी में लगाव है और इसीलिए घनाक्षरी का भविष्य उज्ज्वल है। 

गुरु की घनाक्षरियाँ 

                घनाक्षरी की किताबी शिक्षा दे रहे स्थलों पर घनाक्षरी को वार्णिक  छंद के रूप में यति स्थान तक सीमित कर सिखाया जा रहा है। मेरा और गुरु जी का मानना है कि अन्य छंदों की तरह घनाक्षरी भी वार्णिक या मात्रिक नहीं मूलत: वाचिक छंद है जिसका गायन उच्चार पर आधारित है। यही कारण है कि निरक्षर कवियों (कृषकों, श्रमिकों, संतों आदि) ने भी उत्कृष्ट और कालजयी घनक्षरियों का सृजन किया है। ये घनाक्षरियाँ लोक के कंठ में अमरत्व पा सकी हैं। इनमें लय को प्रमुखता देते हुए शब्दों को शब्दकोषीय रूप-बंधन से मुक्त कर लय की आवश्यकतानुसार परिवर्तित कर प्रयोग किया गया है। लोकभाषा हिंदी को लोक से जुड़ा रहना है तो उसे विश्वविद्यालायीन किताबी रूप से भिन्न होना होगा। घनाक्षरी छंद यह कार्य चिरकाल से कर रहा है। गुरु की घनाक्षरियाँ इस दिशा में महत्वपूर्ण कदम हैं। 

                उच्चार और लय का समन्वय इस तरह करना कि शब्द-परिवर्तन के बाद भी उसके अर्थ और भाव में परिवर्तन न हो, कवि की कसौटी है। गुरु की घनाक्षरियाँ इस कसौटी पर शत-प्रतिशत खरी हैं। जिसने भी गुरु के कंठ से इन घनाक्षरियों का पाठ सुना है, वह जान सकेगा कि उच्चार और लय का सामंजस्य कैसे स्थापित किया जाता है। मुझे यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं हैं कि वर्ण गणना और यति स्थान पर आधृत अधिकांश घनाक्षरियाँ लय के निकष पर खरी नहीं हैं और उनका कोई भविष्य भी नहीं है। 
                
                गुरु की घनाक्षरियाँ सम सामयिकता की चुनौती को स्वीकार करती हैं। गुरु केवल पारंपरिक विषयों तक सीमित नहीं रहते। वे समय के साथ आँखें मिलाते हुए पुरातन घनाक्षरी छंद को बोतल में आधुनिक परिप्रेक्षय और संदर्भों की सुरा भरकर अपनी घनाक्षरियों को नवागत पीढ़ी के लिए सहज ग्राह्य और उपयोगी बना सके हैं। स्थान-सीमा को देखते हुए मैं उदाहरण नहीं दे रह हूँ किंतु पाठक इस तथ्य से सहमत होंगे, यह मैं जानता हूँ। 

                गुरु की घनाक्षरियाँ अन्य घनाक्षरीकारों के लिए एक चुनौती की तरह हैं। घनाक्षरी के किताबी मानकों के समांतर, लोक में व्याप्त अचर्चित मानकों को साध सकना तलवार की धार पर चलने की तरह है। इन घनाक्षरियों का भाषिक संस्कार 'बुंदेली' है। हर कवि की अपनी भाषा शैली होती है। इस शैली से ही कवि की पहचान होती है। भूषण, घनानंद, प्रेमचंद, पंत, महादेवी, दिनकर आदि की भाषा-शैली उनकी पहचान है। आज के किताबी कवियों की भाषा-शैली उनकी पहचान नहीं बनाती।  बाजारू मसालों से गृहणियाँ एक से स्वाद का खाना बनती हैं। जबकि अपने मसाले पिसाकर उपयोग करनेवाली गृहणियों की पहचान उनकी पाक कला निपुणता से होती है। गुरु की अपनी भाषा-शैली लोक से नि:सृत भाषा के अनुसार है शब्दकोश के अनुसार नहीं। इसलिए गुरु की घनाक्षरियाँ यांत्रिक नहीं जमीनी हैं। यही उनकी सार्थकता है।    

                मुझे विश्वास है कि यह कृति गुरु के शिष्यों को ही नहीं, साहित्य प्रेमियों को ही नहीं, छन्दकारों को ही नहीं आम आदमी को भी भाएगी और यह लोक में स्थान पाकर उसे अलौकिक आनंद देगी। नर्मदा का आनंद और छंद का आह्लाद इन घनाक्षरियों के माध्यम से लोक को छंद, साहित्य और भाषा से जोड़कर राष्ट्रीय एकत्व भाव के प्रसार में सहायक होगा।
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संपर्क : विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ 
चलभाष ९४२५१८३२४४, ईमेल : salil.sanjiv@gmail.com                                                                 

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