गोंड़ी लोक कथा
नरबदिया
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सतपुड़ा में एक पर्वत है मेकल। मेकल पर्वत के सघन जंगल में कहीं-कहीं कुछ झोपड़ियों की छोटी-छोटी बस्तियाँ थीं। एक बस्ती में दुग्गन नामक एक गोंड़ आदिवासी रहता था। उसकी एक लड़की थी जिसका नाम नरबदिया था। नरबदिया के जन्म के समय ही उसकी माँ की मृत्यु हो गई थी। दुग्गन को बिना आयाल (माँ) की पुत्री नरबदिया से बहुत प्रेम था। नरबदिया ने जन्म के बाद केवल पिता को ही देखा था। वह पूरे समय पिता के साथ रहती थी। बरसात आने को हुई तो दुग्गन को अपनी झोपड़ी की चिंता हुई जिसके छप्पर में हुए छेदों से जगह-जगह पर सूरज की धूप झाँककर जमीन पर सुनहरे चित्र बना रही थी।
बस्ती के पास के जंगल में छोटे-पतले बाँस थे लेकिन दुग्गन को मोटे-लंबे बाँस चाहिए थे। ऐसे बाँस दूर मेकल पर्वत की चोटी के जंगल में ही मिल सकते थे। दुग्गन ने मेकल पर्वत के जंगल में जाकर बाँस लाने का फैसला किया। समस्या यह थी कि बेटी नरबदिया को अकेले कहाँ छोड़े। आस-पास की झोपड़ियों में रहने वाले पड़ोसी जंगली फल-फूल, घास यदि लेने जंगल जा चुके थे। दुग्गन ने नरबदिया को अकेली छोड़ना सुरक्षित नहीं लगा, किसी जंगली जानवर के आने पर नरबदिया अपने को कैसे बचाएगी? यह सोचकर दुग्गन ने नरबदिया को साथ लेकर जंगल जाने का फैसला किया।
दोनों पिता-पुत्री मेकल पर्वत की ओर चल दिए। धीरे-धीरे चलते हुए दोपहर होने लगी, नरबदिया थकने लगी, वह छोटे-छोटे कदम रख रही थी, उसके कारण दुग्गन की चाल भी धीमी थी। नरबदिया को प्यास लगने लगी किंतु वह धैर्य रखते हुए पिता के साथ आगे बढ़ती रही। कुछ देर बाद उसका गला सूखने लगा, उसे बहुत अधिक व्याकुल देखकर दुग्गन भी विचलित होने लगा। कुछ दूर पर्वत की चोटी पर मोटे-ऊँचे बाँस दिखाई दे रहे थे किंतु नरबदिया वहाँ तक जा पाने में समर्थ नहीं थी। इसलिए दुग्गन ने उसे दुलारकर एक वट वृक्ष की छाँह में लिटा दिया और कहा कि तुम यहाँ सुस्ता लो। मैं जल्दी से काटकर बाँस और तुम्हारे खाने के लिए फल तोड़कर लाता हूँ।
दुग्गन पर्वत पर चढ़ रहा था। सूरज अपनी तेज किरणों से धरा को तपा रहा था। दुग्गन पर भी थकान हावी हो रही थी, उसका गला सूखने लगा पर वह रुका नहीं बढ़ता रहा ताकि रात होने से पहले गाँव लौट सके। थोड़ी देर बाद उसका सिर चकराने लगा। वह अशक्त होकर बैठ गया। मन में विचार आया कि मुझे यातना अधिक कष्ट हो रहा है तो नन्हीं सी नरबदिया ने कैसे सहन किया होगा? उसकी पीड़ा बढ़ी तो नहीं? मैं भी कैसा मूरख हूँ जो उसे ले आया और अकेला छोड़ दिया। उसने आकाश की ओर देखकर बड़ा देव (महादेव जी) को याद किया- 'हे बड़ा देव! मेरी प्रार्थना सुनो कि मेरी लाड़ली बेटी नरबदिया बिना माता की है, उसे कुछ न हो। उसे पीड़ा से मुक्त कर दो भोलेनाथ!। उस पर कृपा करो।
दूसरी ओर नरबदिया प्यास के कारण अचेतप्राय होने लगी। उसने भी पिता से पाए संस्कारों के अनुसार बाददेव को सुरते हुए आकाश की ओर देख कार हाथ जोड़े और आँखें मूँदकर एकाग्र चित्त प्रार्थना की हे बड़ादेव! मुझ बच्ची पर कृपया करो। मेरे पिता कितना कष्ट उठाकर बाँस लेने गए हैं। उनकी पीड़ा दूर कर दो। मेरे कारण उनको देर हो गई। मुझसे प्यास सही नहीं जा रही है। हे भगवान! मुझे ऐसी ताकत दे दो कि मैं सबकी प्यास बुझा सकूँ। कोई भी प्यास न रहे। मेरे पिता को मेरी चिंता न करना पड़े। अर्ध चेतन अवस्था में नरबदिया प्रार्थना करती रही। उसे ऐसा लगा कि बड़ादेव और मैया उसे दुलार रहे हैं।
दुग्गन कुछ देर सुध-बुध भुला पड़ा रहा। धीरे-धीरे उसे चेत आया। वह नरबदिया की चिंता कर उसे झाड़ के नीचे पहुँचा जहाँ वह उसे लिटा गया था। नरबदिया वहाँ नहीं थी। दुग्गन घबराया, उसने चारों ओर देखा, जोर जोर से आवाज लगाई। इधर-उधर दौड़ता, पेड़ों के नीचे देखता, जमीन पर देखता कि कोई जानवर तो नहीं आ आया किंतु उसे किसी जानवर के आने के चिन्ह नहीं मिले। नरबदिया को रास्ता भी नहीं मालूम कि गाँव की ओर जा सके, फिर वह गई कहाँ? 'हे बड़ादेव!' उसने फिर प्रभु को पुकारा और नरबदिया को खोजने लगा। कुछ दूर जाने पर अचानक उसके कानों में कुछ आवाज सुनाई दी, पक्षी भी बोल रहे थे। वह समझ गया कि यह पानी बहने की आवाज है। उसने पूरी ताकत लगाकर नरबदिया को पुकारते हुए खोज तेज कर दी। पेड़ों के एक झुरमुट के पीछे उसे बहत हुआ पानी दिखा। दुग्गन ने फिर पुकारा मियाड (बिटिया) नरबदिया! कहाँ गई? जल्दी से आ। देख, पानी मिल गया। अब तू प्यासी नहीं रहेगी।'
'बाबल! (पिता जी)' आवाज सुनकर दुग्गन चौंका। यह आवाज तो नरबदिया की थी। उसने चारों ओर देखा, कोई नहीं दिखा। उसने व्यथित होकर फिर आवाज लगाई मियाड नरबदिया! वह रोने लगा। 'बाबल! इधर देखो मैं नदी बन गई हूँ।' दुग्गन ने देखा नदी की धार उसके पास तक आ गई है। उसने झुककर चुल्लू में पानी भरा । उसमें उसे नरबदिया की झलक दिखी।
'मियाड नरबदिया! तू नदी कैसे?'
'बाबल! मैं बड़ादेव को पुकार रही थी कि मुझसे प्यास सही नहीं जा रही, आकर दूर कर दें।' बड़ादेव ने आकर मुझे उठाया और कहा कि अब से तू ही सबकी प्यास बुझाएगी, तुझे कभी प्यास नहीं लगेगी। तू बार-बार आयाल को याद करती है। अब से सब तुझमें अपनी आयाल देखेंगे। उसके बाद मेरे सिर पर हाथ फेरा तो मैं नदी बन गई। आओ! अपनी प्यास बुझा लो। तब से गोंड़ आदिवासी नर्मदा जी को मैया मानते हैं और उनकी पूजा करते हैं।
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