कृष्ण भक्त कृष्णदास जी
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कृष्णदास के सत्य ने, किया कृष्ण का दास।
भाव सागर से दूर हो, हुए कृष्ण के पास।।
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श्री वल्लभ आचार्य से, मिली कृपा-विश्वास।
अधिकारी बन बही की, लेखन विधि की खास।।
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पर उपकारी वृत्ति का, किया अनुकरण नित्य।
पिता तजे हरि पिता की, पाई भक्ति अनित्य ।।
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हो अधिकारी हो गए, सेवक खासुलखास।
सेवा में हो कमी न कुछ, प्रभु से थी यह आस।।
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कृष्ण युगल की भक्ति की, भाषा मंजुल भाव।
की उपासना अन्यतम, कीर्तन रचना चाव।।
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रच कवित्त निर्दोष नित, प्रभु-अर्पण कर मस्त।
कृष्णदास-सिर पर रहा, राधा-माधव हस्त।।
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तेजस्वी थे भक्ति-पथ, पथिक कृष्ण के भक्त।
कृष्ण-कार्य में लीन थे, पद-सेवा अनुरक्त।।
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राम-कृष्ण हरि ही रहे, दो न रहे वे एक।
दृष्टि द्वैत-अद्वैत की, करी समन्वित नेक।।
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भक्ति-जगत व्यवहार का, किया समन्वय खूब।
कार्य व्यवस्था श्रेष्ठ की, भाव-भक्ति में डूब।।
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रतिमय राधा-कृष्ण का, मर्यादित शृंगार।
वर्णित कर कीर्तन किया, कृष्ण भक्ति आगार।।
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कृष्ण-भक्ति कर्तव्य का, हो अभिन्न पर्याय।
काम किया निष्काम हो, था हरि-हित स्वीकार्य।।
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प्रेम तत्व में डूबकर, रस लीला साक्षात।
किया कीर्तन में लिखा, दस दिश हो विख्यात।।
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माया-मोहित थे न वे, विषय मुक्त थे आप।
पंकज सम थे पंक में, दूर रहा हर पाप।।
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विविध रूप श्री कृष्ण के, थे अनेक में एक।
कृष्णदास ने सत्य को, साधा सहित विवेक।।
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भगवन होते भक्त के, खुद ही प्रेमाधीन।
भक्त वही जो ईश के, होते हैं आधीन।।
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भजन न श्रेष्ठ न हीन हों, सम है भक्ति तरंग।
भक्त लीन भगवान में, एक भक्ति का रंग।।
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कालजयी साहित्य है, वार्ता विधा न भूल।
सदियाँ बीतीं पर नहीं, दबा सकी है धूल।।
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