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गुरुवार, 4 मार्च 2021

साक्षात्कार प्रश्नों के घेरे में आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' द्वारा विभा तिवारी

साक्षात्कार 
प्रश्नों के घेरे में आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
द्वारा विभा तिवारी
*
प्र.१_ छंदमुक्त काव्य तथा मुक्त छंद काव्य में मुख्य रूप से आप क्या अंतर देखते हैं ?

उ. १ - पहले यह समझें कि छंद क्या है? छंद शब्द का प्रथम उल्लेख ऋग्वेद के पुरुष सुक्त के १० वें मंत्र में मिलता हैं। 'तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे। छंदांसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत॥१०॥ '
यहाँ छंद की उत्पत्ति "विराट यज्ञ पुरुष " से बताई गई है। पिंगल ग्रंथों के अनुसार ब्रह्मा ने छंद-ज्ञान बृहस्पति को, बृहस्पति ने च्वयन को, च्यवन ने माडव्य को, मांडव्य ने सैतव को, सैतव ने यास्क को और यास्क ने पिंगल जी को यह ज्ञान दिया। पिंगल कृत "छंद सूत्र" (७०० ई. पू.) छंद शास्त्र" का प्रथम ग्रंथ मान्य है। छंद' वेदांग' है जिसके उपवेद-वेदांग गार्ग्यप्रोक्त उपनिदान सूत्र,छन्द मंजरी, छन्दसूत्र, छन्दोविचित छन्द सूत्र, छन्दोऽनुक्रमणी, छलापुध वृत्ति, जयदेव छन्द, जानाश्रमां छन्दोविचित, वृत्तरत्नाकर,वेंकटमाधव छन्दोऽनुक्रमणी, श्रुतवेक आदि हैं।
संस्कृत वाङ्मय में छन्दःशास्त्र के लिए (१) छन्दोविचिति, (२) छन्दोमान, (३) छन्दोभाषा, (४) छन्दोविजिनी (५) छन्दोविजिति, (छन्दोविजित), (६) छन्दोनाम, (७) छन्दोव्याख्यान, (८) छन्दसांविच्य, (९.) छन्दसांलक्षण, (१०) छन्दःशास्त्र, (११) छन्दोऽनुशासन, (१२) छन्दोविवृति, (१३) वृत्त, (१४) पिङ्गल अदि नामों का व्यवहार किया गया है।
'छन्दस्' शब्द वेद का पर्यायवाची है। ध्वनि विज्ञान तथा गणित पर आधारित होने के कारण छंद को 'पुष्ट' अर्थात विज्ञान सम्मत शास्त्र कहा गया है। छन्दशास्त्र की रचना का उद्देश्य भविष्य में इसके नियमों के आधार पर छन्दरचना के सनातन परंपरा का विकास है। छंद शास्त्री 'प्रस्तार' आदि के द्वारा आचार्य नए छंद विकसित करते रहे। कविगण कथ्यानुरूप छंद चयन कर विधान में यत्किंचित परिवर्तन की छूट लेते हुए अपनी बात इस प्रकार कहते रहे कि छंद का मूल विधान नष्ट न हो। परिवर्तित विधान में निरंतर कई कवियों द्वारा रचना किये जाने पर नए छंद उत्पन्न हुए और अब भी हो रहे हैं। माँ शारदा ने मुझे ५०० से अधिक नए छंदों के प्रागट्य का माध्यम बनाकर कृतार्थ किया है।
'चद्' धातु से बने छंद शब्द का अर्थ है 'आह्लादित करना', 'आनंदित करना'। यह आह्लाद ध्वन्यात्मक उच्चार (सामान्यत: वर्ण के माध्यम से लिखा तथा मात्रा के माध्यम से उच्चारकाल को गिना जाता है) की आवृत्ति तथा संख्या के विन्यास से उत्पन्न होता है। 'वर्णों या मात्राओं की आह्लादकारी नियमित संख्या के विन्यास को छंद कहते हैं'। सामान्यतः वर्णों और मात्राओं की गेय-व्यवस्था को छन्द कहा जाता है। इसी अर्थ में पद्य शब्द का भी प्रयोग किया जाता है। पद्य अधिक व्यापक अर्थ में प्रयुक्त होता है। भाषा में शब्द और शब्दों में वर्ण तथा स्वर रहते हैं। इन्हीं को एक निश्चित विधान से सुव्यवस्थित करने पर 'छन्द' का नाम दिया जाता है। जिस रचना में मात्राओं और वर्णों की विशेष व्यवस्था तथा संगीतात्मक लय और गति की योजना रहती है, उसे ‘छन्द’ कहते हैं।
छंद 'वाक्' से निर्मित हैं। वास्तव में छंद वाचिक होते है। लोक (जान सामान्य) लघु-गुरु उच्चारों का समायोजन कर अनुभूत की अभिव्यक्ति कर 'लौकिक छंदों' को जन्म देता है।वाचिक छंद निश्चित नियम पर नहीं, विशेष ताल और लय पर ही आधारित रहते हैं। इनकी रचना सामान्य  अपठित जन भी कर लेते हैं। लोक द्वारा प्रयुक्त लौकिक छंदों का ध्यायन कर उनमें अन्तर्निहित लघु-गुरु उच्चार क्रम को नियमबद्ध कर वैदिक संस्कृत में रचे गए छंदों को 'वैदिक छंद' कहा गया है जिनका जन्मदाता वाल्मीकि को माना गया है। छंद को वेदों का चरण (पैर) कहा गया है। अपौरुषेय कहे गए वैदिक छंदों में ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत और स्वरित, इन चार प्रकार के स्वरों का विचार किया जाता है, यथा "अनुष्टुप" इत्यादि। लौकिक  छंद वे वाचिक छंद हैं जिनकी रचना निश्चित नियमों के आधार पर होती है और जिनका प्रयोग सुपठित कवि काव्यादि रचना में करते हैं। इन लौकिक छंदों के रचना-विधि-संबंधी नियम सुव्यवस्थित रूप से जिस शास्त्र में रखे गए हैं उसे छंदशास्त्र कहते हैं। आचार्य पिंगल ने ‘छन्दसूत्र’ में छंदों का सुव्यवस्थित वर्णन किया है, अत: इसे छन्दशास्त्र का आदि ग्रन्थ माना जाता है। छन्दशास्त्र को ‘पिंगलशास्त्र’ भी कहा जाता है।
लौकिक और वैदिक छंदों पर लोक भाषाओँ ,प्राकृत पैशाची, छंदों की रचना चिरकाल से की जाती रही है। इस विरासत को आत्मसात करते हुए हिंदी में छंद शास्त्र का विकास होना स्वाभाविक है। हिन्दी छन्दशास्त्र की दृष्टि से प्रथम कृति ‘छन्दमाला’ है। हिंदी में लघु-गुरु उच्चार के लिप्यांकित रूप वर्ण (अक्षर) गणना पर आधारित छंद 'वर्णिक' तथा वर्ण के उच्चारकाल पर आधारित छंद 'मात्रिक' कहे जाते हैं। लघु उच्चार की एक तथा गुरु उच्चार की २ मात्रा गिनी जाती है। ध्वनि की मूल इकाई ‘वर्ण’ हैं। वर्णों का व्यवस्थित समूह ‘वर्णमाला’ है। उच्चारकाल के आधार पर वर्ण के दो प्रकार ‘लघु’ और ‘गुरु’ हैं।
अब आपके प्रश्न पर आते हैं। गद्य या पद्य दोनों ही उच्चारों से निर्मित वर्णों के संयुक्त होने से बने सार्थक शब्दों से रचे जाते हैं। पद्य लय प्रधान है। गद्य में व्याकरणिक नियम मुख्य हैं। छांदस काव्य वह है जो किसी निश्चित विधान के आधार पर रचा गया हो। हर छन्दस विधान कभी न कभी पहली बार रचा गया होगा। इसलिए छांदस काव्य के दो उपप्रकार ज्ञात विधान के अनुसार तथा अज्ञात विधान के अनुसार अर्थात नए छंद का निर्माण कर रचा काव्य हैं। अछांदस काव्य किसी छंद विशेष के विधानानुसार  काव्य है अर्थात उसकी विविध पंक्तियाँ विविध ज्ञात-अज्ञात छंदों पर आधारित होती हैं। इनमें से कुछ अछन्द अगेय भी हो सकते हैं। 
प्र.२_ आपके अनुसार छंद के तत्त्व क्या हैं ?
उ. २    छन्द के निम्न संघटक तत्त्व हैं-
पाद / पंक्ति - छन्द कुछ पंक्तियों का समूह होता है और प्रत्येक पंक्ति में समान वर्ण या मात्राएँ होती हैं। इन्हीं पंक्तियों को ‘चरण’ या ‘पाद’ कहते हैं।
चरण - कुछ छड़ों की पंक्तियाँ निश्चित यति स्थान द्वारा उन्हें एकाधिक भागों में विभक्त की जाती हैं। इन भागों को 'चरण' कहा जाता है।
दोहा दोपादिक (दो पंक्तियों का) छंद है। दोहा के प्रत्येक 'पाद' में दो चरण होते हैं। पहले तथा तीसरे चरण को 'विषम' तथा दूसरे और चौथे चरण को 'सम' कहा जाता है।
कल बाँट/क्रम - वर्ण या मात्रा की लघु-गुरु व्यवस्था को ‘बाँट/क्रम’ कहते हैं।
यति - छन्दों को पढ़ते समय बीच-बीच में कुछ रुकना पड़ता है। इन विराम स्थलों को ‘यति’ कहते हैं।छन्द के प्रत्येक चरण के अन्त में ‘यति’ होती है।
गति / लय - ‘गति’ का अर्थ ‘लय’ है। छन्दों को पढ़ते समय मात्राओं के लघु अथवा दीर्घ होने के कारण जो विशेष स्वर लहरी उत्पन्न होती है, उसे ही ‘गति’ या ‘लय’ कहते हैं।
तुकांत और पदांत - छन्द के प्रत्येक पाद के अन्त में स्वर-व्यंजन की समानता को ‘तुक’ कहते हैं। जिस छन्द में तुक नहीं मिलता है, उसे ‘अतुकान्त’ और जिसमें तुक मिलता है, उसे ‘तुकान्त’ छन्द कहते हैं। पाद के अंत में प्रयुक्त सामान भार के शब्द समूह को पदांत तथा उसके बिलकुल पहले प्रयुक्त उच्चार को तुकांत कहा जाता है।
गण - तीन उच्चारों के समूह को ‘गण’ कहते हैं। गणों  की संख्या आठ है-यगण, मगण, तगण, रगण, जगण, भगण, नगण और सगण। इन गणों के नाम रूप का सूत्र ‘यमातराजभानसलगा’ है।   
विषय -  छंद में जिसका वर्णन हो वह छंद का विषय है। 
कथ्य - विषय के संबंध  जो कहा जाए वह छंद का कथ्य है। 
रस - रस का शाब्दिक अर्थ है 'आनन्द'। काव्य को पढ़ने या सुनने से जिस आनन्द की अनुभूति होती है, उसे रस कहा जाता है। श्रव्य काव्य के पठन अथवा श्रवण एवं दृश्य काव्य के दर्शन तथा श्रवण में जो अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है, वही काव्य में रस कहलाता है। छंद सुनकर मन में जिस प्रकार की भावना हो वह रस है। रस का शाब्दिक अर्थ है 'आनन्द'। काव्य को पढ़ने या सुनने से जिस आनन्द की अनुभूति होती है, उसे रस कहा जाता है। श्रव्य काव्य के पठन अथवा श्रवण एवं दृश्य काव्य के दर्शन तथा श्रवण में जो अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है, वही काव्य का रस है। पदार्थ की दृष्टि से रस का प्रयोग षडरस के रूप में, आयुर्वेद में धातु के अर्थ में, भक्ति में ब्रह्मानंद के लिए तथा साहित्य के क्षेत्र में काव्य स्वाद या काव्य आनंद के लिए रस का प्रयोग होता है। रस मूलतः आलोकिक स्थिति है, यह केवल काव्य की आत्मा ही नहीं बल्कि यह काव्य का जीवन भी है इसकी अनुभूति से सहृदय पाठक का हृदय आनंद से परिपूर्ण हो जाता है। नाट्यशास्त्रकार भरत मुनि के अनुसार 'विभावानुभाव संचार संयोगाद्रस निष्पत्ति' अर्थात विभाव अनुभाव और संचारी भाव के सहयोग से रस की निष्पत्ति होती है।
अलंकार - अलंकार दो शब्दों से मिलकर बना होता है – अलं + कार। यहाँ पर अलं का अर्थ है 'आभूषण'। काव्य को भाषा को सुन्दर बनाने के लिए अलंकारों का प्रयोग किया जाता है।  
बिंब - बिंब संवेदात्मक शब्द-चित्र है जो अपने संदर्भ में मानवीय संवेदनाओ से संबंध रखता है। वह कविता की भावना या उसके आशय को पाठक तक पहुँचाता है। बिंब चित्रमयता या चित्रात्मक स्थितियों द्वारा पाठक को वर्ण्य का चाक्षुष अनुभव करा पाता है। बिंब के मुख्य प्रकार चाक्षुष बिंब, नाद बिंब, गन्ध बिम्ब, स्वाद बिंब, स्पर्श बिंब, मानसिक बिंब आदि हैं।
प्रतीक - प्रतीक का शाब्दिक अर्थ अवयव या चिह्न है । कविता में प्रतीक हमारी भाव सत्ता को प्रकट अथवा गोपन करने का माध्यम है। प्रत्येक भाव व्यंजना की विशिष्ट प्रणाली है। इससे सूक्ष्म अर्थ व्यंजित होता है । डॉक्टर भगीरथ मिश्र कहते हैं कि ” सादृश्य के अभेदत्व का घनीभूत रूप ही प्रतीक है”। उनके मंतव्य में प्रतीक की सृष्टि अप्रस्तुत बिंब द्वारा ही संभव है। प्रतीक के मौलिक गुण धर्म सांकेतिकता, संक्षिप्तता, रहस्यात्मकता,बौद्धिकता, भावप्रकाशयत्ता एवं प्रत्यक्षतः प्रतिज्ञा प्रगटीकरण से बचाव आदि हैं। प्रतीक सामान्य लक्षण को अपने अंदर समाहित कर पाठक को विषय को समझने अनुभव करने और अर्थ में संबोधन का व्यापक विकल्प प्रस्तुत करता है।
मिथक - 'मिथक' परंपरागत या अनुश्रुत कथा है जो किसी अतिमानवीय प्राणी या घटना से संबंध रखती है। विशेषतः इसका संबंध देवताओं, विश्व की उत्पत्ति तथा विश्ववासियों से है, यह एक ऐसा विश्वास है जो बिना किसी तर्क के स्वीकार कर लिया जाता है। सामान्यतः मिथक  एक मिथ्या कथा है जिसकी सच्चाई की परीक्षा नहीं की जाती है।
प्र.३_ आज की पीढ़ी प्रकाशित पुस्तकों के स्थान पर इलेक्ट्रॉनिक पुस्तकों के प्रति अधिक आकर्षित है इसके चलते आप कविता के भविष्य को किस प्रकार देखते हैं ?
उ. ३  पुस्तक चिरकाल से मनुष्य का अभिन्न अंग थी, है और रहेगी। प्रगैतिगासिक मानव द्वारा निर्मित शैल चित्र लेखन विधा के मूल हैं। तब से अब तक माध्यम बदलते रहे शिलापट, ताड़पत्र, भोजपत्र, वस्त्र, धातु, कागज और अब अंतर्जाल का आभासी पटल। इन सबकी उपादेयता और प्रासंगिकता है। ये एक दूसरे के पूरक हैं, प्रतिस्पर्धी नहीं। युवा पीढ़ी सभी माध्यमों का यथावश्यक प्रयोग कर रही है।        
प्र ४ _ क्या आपको लगता है कि आज का साहित्य राजनीति से प्रेरित है ? यदि है तो इसमें कविता की क्या भूमिका है ?
उ. ४ साहित्य मानवीय गतिविधियों, चिंतन और परिवेश  उत्पन्न अनुभूतियों को अभिव्यक्त करता है। राजनीति आज नहीं, आदि काल से साहित्य  का विषय रही है। देवासुर संग्राम संबंधी साहित्य विविध संस्कृतियों के टकराव और सामंजस्य का लेखा-जोखा ही तो है। सत्ता पर आधिपत्य के लिए राजनीति हमेशा की गयी। कविता वेद पूर्व, वेद काल और पश्चात् भी राजनितिक घटनाओं को वर्णित करती है। विश्व की  प्रथम काव्य कृति महर्षि बाल्मीकि रचित रामायण भी राजनीति को समेटे हुए है। कविता राजनीति को प्रभावित करती भी है और राजनीति से प्रभावित होती भी है। यह केवल हिंदी या भारत नहीं, अपितु विश्व की हर भाषा और देश के संदर्भ में सत्य है।  
प्र. ५ _आपके अनुसार छायावादोत्तर काल में हिन्दी कविता के स्तर में क्या परिवर्तन हुआ है ?
उ. ५ छायावादोत्तरी हिन्दी कविता के स्तर में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। तब भी श्रेष्ठ, सामान्य और कमजोर रचनाएँ की गईं और अब भी की जा रही हैं। आपका आशय संभवत: कविता के कलेवर, कथ्य या वर्ण्य विषय से है। छायावादोत्तरी कविता अमूर्तता से मूर्तता की ओर काव्य यात्रा है। इसे भावनात्मकता से मांसलता की यात्रा या आदर्श से यथार्थ की यात्रा भी कह सकते हैं। वास्तव में अमूर्त में मूर्त तथा मूर्त में अमूर्त सदैव होता है। एक के बिना दूसरा हो ही नहीं सकता। कविता के संदर्भ में कलेवर में आनुपातिक उपस्थिति के आधार पर 'इस' या 'उस' में वर्गीकृत किया जाता है। रचनाकार और पाठक रचना को समग्रता में ग्रहण करता है, वर्गीकरण और विश्लेषण समीक्षकों और प्राध्यापकों का बौद्धिक व्यायाम मात्र है।
प्र.६_ आजकल अतुकांत कविता के नाम पर कुछ भी लिख कर उसे कविता मान लेने का आग्रह किया जाता है, आप इस बात से कितना सहमत और संतुष्ट हैं ?
उ. ६ 'अतुकांत कविता के नाम पर कुछ भी लिख कर उसे कविता मान लेने का आग्रह' कौन कब और किससे करता है? मेरे लगभग ५ दशक के रचनाकाल में आज तक किसी ने मुझसे ऐसा आग्रह नहीं किया, न मैंने किसी से किया। कवि आत्म अनुभूत अथवा स्व विचारित सत्य की अभिव्यक्ति कविता में करता है। कथ्य के प्रस्तुतीकरण के दो महत्वपूर्ण उपादान भाषा शैली और शिल्प हैं। रचनाकार सिद्धहस्त हो तो अभिव्यक्ति प्रभावकारी होती है अन्यथा न्यून प्रभावकारी या अप्रभावकारी होती है। संतान कैसी भी हो माँ को उससे मोह तो होता ही है और इसके लिए कोई माँ को दोष नहीं देता। आरंभिक दिनों में  हर रचनाकार को अपनी रचना से मोह होना स्वभाविक है। रचनायात्रा में परिपक्वता के साथ यह मोह घटकर नीर-क्षीर विवेक बुद्धि का विकास हो तो कमजोर रचनाएँ रचनाकार ही प्रस्तुत नहीं करता। जिन रचनाकारों में यह बोध नहीं होता, वे और उनकी रचनाएँ समझदार पाठकों और विद्वानों के मध्य समादृत नहीं होतीं। 
प्र.७_ हिन्दी ग़ज़ल और उर्दू ग़ज़ल में आप क्या अन्तर मानते हैं?
उ. ७ हिन्दी ग़ज़ल और उर्दू ग़ज़ल में वही अंतर् है जो दो भाषाओं की काव्य रचनाओं में होता है। वस्तुत: ग़ज़ल अरबी-फ़ारसी की काव्य विधा है जो भारत से ही गयी है। ग़ज़ल के शिल्प के लोकगीत भारत की लोक भाषाओँ में गए जाते रहे हैं। समान पदांत-तुकांत के संस्कृत श्लोक भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। उर्दू स्वतंत्र भाषा है भी नहीं। उर्दू शब्द-कोष के समस्त शब्द अन्य भाषाओँ से लिए गए हैं। इतिहास साक्षी है कि मुग़ल आक्रमणों में विजयी मुग़ल सैनिकों (विद्वान या साहित्यकार नहीं) की छावनियों (लश्करों) में पराजित भारतीय सैनिकों को गुलामों की तरह की तरह सेवा करनी पड़ी। इस बीच अरबी-फ़ारसी और सीमांत भारतीय भाषाओँ के सम्मिश्रण से लश्करी का जन्म हुआ जो कालांतर में रेख़्ता कही गई। मुग़ल सत्ता के स्थायित्व के साथ उर्दू (तुर्की शब्द, अर्थ छावनी का बाज़ार)  जो सैन्य शिविरों और बाज़ारों में प्रयुक्त होती बाजारू भाषा थी, वह शासन-प्रशासन की भाषा हो गई। 
अब उर्दू को यदि हिंदी से अलग स्वतंत्र भाषा मानें तो तो जो अंतर अंग्रेजी ग़ज़ल और उर्दू ग़ज़ल में है, जो अंतर तमिल ग़ज़ल और उर्दू ग़ज़ल में है वही हिंदी ग़ज़ल और उर्दू ग़ज़ल में होगा अर्थात हिंदी ग़ज़ल हिंदी भाषा के छंद शास्त्र से संस्कारित होकर लिखी जाए, उसका अरबी-फ़ारसी के छंद शास्त्र के साथ कोई अंतरसंबंध न हो। समान तुकांत-पदांत की सब रचनाएँ हिंदी ग़ज़ल हों। इससे उर्दू साहित्यकार को ऐतराज क्यों हो? 
उर्दू को बुंदेली, मालवी, राजस्थानी, बृज, अवधि, भोजपुरी की तरह हिंदी की सहयोगी आंचलिक भाषा मानें तो उसे हिंदी व्याकरण को अपनाना होगा, उर्दू भाषी इसके लिए भी तैयार नहीं हैं। उर्दू के साहित्यकारों को रोटी हिंदी के पाठकों-श्रोताओं से ही मिलती है। तथापि हिंदीभाषियों की कमजोर मानसिकता और उर्दू भाषियों के पूर्वाग्रह के कारण हिंदी ग़ज़ल को विवाद का सामना करना पड़ रहा है। इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप हिंदी में विविध खेमे सामान शिल्प की रचनाओं को मुक्तिका (चतुष्पदी मुकतक का विस्तार), गीतिका (इस नाम के मात्रिक व् वर्णिक छंद हिंदी में हैं), तेवरी (व्यवस्था विरोध की ग़ज़ल), सजल, अनुगीत आदि अनेक नामों से लिख रहे हैं। 
ग़ज़ल को ग़ज़ल मानकर हिंदी ग़ज़ल और उर्दू ग़ज़ल माननेवालों को देखना होगा की उर्दू ग़ज़ल अरबी व्याकरण-छंदशास्त्र पर आधारित है जबकि हिंदी ग़ज़ल हिंदी व्याकरण और छंदशास्त्र पर, वे एक नहीं हो सकतीं। हिंदी के रचनाकार को अन्य भाषा का व्याकरण क्यों जानना चाहिए? उर्दू में हिंदी की पञ्चम वर्ण की ध्वनि है ही नहीं, इसी तरह उर्दू की नुक्ते वाली और अन्य ध्वनियाँ हिंदी में नहीं हैं। 
एक तथ्य यह भी है कि उर्दू छंद शास्त्र में प्रयुक्त सभी लयखण्ड (बह्र) संस्कृत के छंदों से ली गयी हैं जो हिंदी आधार हैं। उदाहरण के लिए 'हरिगीतिका' छंद का लयखण्ड ११२१२ ही उर्दू बह्र 'मुतफाइलुं' में प्रयुक्त हुआ है। इसलिए स्पष्ट है कि हिंदी ग़ज़ल और उर्दू ग़ज़ल एक समान नहीं हैं और हिंदी ग़ज़ल का अरबी-फ़ारसी या उर्दू का व्याकरणिक या छन्दशास्त्रीय अनुशासन से कोई सरोकार नहीं है। 
प्र. ८ _उर्दू के शायर हिन्दी ग़ज़लकारों को खारिज कर देते हैं। इस बारे में आपकुछ कहना चाहेंगे..?
उ.८ उक्त उत्तर के प्रकाश में उर्दू शायर को किसी भी अन्य भाषा (हिंदी सहित) की ग़ज़ल के संबंध में निर्णय करने का कोई अधिकार नहीं है।तथापि वे तो हिंदी ग़ज़ल को खारिज करने की मूर्खता करें तो हिंदी गज़लकार भी उर्दू ग़ज़ल को खारिज कर इसका उत्तर दें। ऐसी स्थिति में हिंदी गज़लकार को कोई फर्क नहीं पड़ेगा पर उर्दू ग़ज़लकार के लिए श्रोताओं और आजीविका के लाले पड़ जाएँगे।
प्र.९_ गीत/ नवगीत को आप पाठकों को किस तरह समझाऐंगे?
उ.९  हिंदी गीति काव्य के वृक्ष की गीत शाखा पर ऊगा नव पल्लव नवगीत है। शैल्पिक दृष्टि से दोनों में कोई अंतर नहीं है। दोनों की रचना मुखड़ा अंतरा मुखड़ा अंतरा मुखड़ा के शिल्प में की जाती है। दोनों के कथ्य या विषय किसी प्रतिबंध के कैदी नहीं हैं। नवगीत का वैशिष्ट्य टटकापन (देशज शब्दों का प्रयोग) है तो वह लोकगीतों में भी है। नवगीत को पृथक विधा माननेवाले 'कहन' के अंतर को भिन्नता का आधार मानते हैं किन्तु कहाँ गीतकार की भाषा शैली का वैशिष्ट्य है जो हर नवगीतकार का भिन्न होता है। नवगीत में पारंपरिक बिंब , प्रतीकादि के प्रतिबंध संबंधी धारणा भ्रामक है। हर गीतकार गीत के कथ्य और विषय के अनुरूप बिंब, प्रतीक आदि का चयन करता है। ऐसा कोई नवगीत नहीं हो सकता जो गीत न हो किन्तु गणित गीत ऐसे हैं जिन्हें नवगीत मानने में तथाकथित कुछ नवगीतकारों को कठिनाई होती है। इससे स्पष्ट है की गीत महासागर है जिसकी एक खाड़ी (तटीय हिस्सा) नवगीत है।
प्र.१० _हिन्दी ग़ज़ल को गीतिका/सजल जैसे नाम देकर लिखा जा रहा है।आप इसे किस रूप में लेते हैं।?
उ.१० उर्दू के साहित्यकारों द्वारा हिंदी ग़ज़ल को बिना अधिकार व् कारण के खारिज करने के कारण उपजी निराशा व कुंठा के कारण इससे बचने के लिए हिंदी ग़ज़लकारों ने विविध नामों से हिंदी ग़ज़ल लिखना आरंभ कर दिया। मुक्तिका, गीतिका, सजल, तेवरी, अनुगीत और अन्य कई नाम प्रयोग में लाए जा रहे हैं। वास्तव में ये सब हिंदी ग़ज़ल ही हैं। 
प्र.११_आप स्वयं एक वरिष्ठ कवि हैं, क्या आपको लगता है कि निज जीवन में ईमानदार आज का कवि कविता के प्रति भी ईमानदार है ?
उ.११  ईमानदार व्यक्ति जीवन के हर क्षेत्र में ईमानदार होता है। यहाँ ईमानदार, वहाँ बेईमान कैसे होगा? यथार्थत: शाट-प्रतिशत ईमानदार तो वर्तमान काल में कहीं-कोई नहीं है। हम कवि होने से पहले मानव हैं। वर्तमान देश-काल-समाज में जीना है तो 'जैसा देस वैसा भेस' कहावत का अनुकरण करना होगा। कवि भी समाज ही अंग है, वह समाज से भिन्न नहीं हो सकता। ईमानदारी का कम या ज्यादा होना कवि के  व्यक्तित्व का हिस्सा है जो समाज और परिस्थितियों से प्रभावित होता है। 
प्र.१२_छायावाद के कवियों में से तथा आज के कवियों में से अपनी पसंद के एक-एक कवि के बारे में बताएं, यह भी कि वे आपको क्यों पसंद हैं ?
उ.१२ किसी भी एक कवि की सब रचनाएँ पसंद होना अथवा किसी अन्य कवि की एक भी रचना पसंद न होना, संभव नहीं होता। तथापि छायावादी कवियों में महीयसी महादेवी वर्मा जी तथा समसामयिक कवियों में नीरज मुझे सर्वाधिक पसंद हैं।                                                          महादेवी जी की रचनाओं में भावों की ऐन्द्रजालिक सघनता, भाषिक प्राञ्जलता, सटीक शब्द प्रयोग, करुण रस की बाँकी छटा मन मोहती है। उनकी रचनाएँ अपनी साथ पाठक को बहा ले जाती हैं। उनकी रचनाओं का सम्मोहन क्रमिक विस्तार पाता है, जैसे-जैसे समय बीतता है उनकी पंक्तियाँ पाठक के मानस पट पर उभरती जाती हैं। महादेवी की मंचीय प्रस्तुति बहुत प्रभावी नहीं होती थी, तथापि उनका काव्य विस्मृत नहीं होता, यही उनका वैशिष्ट्य है। महादेवी जी के दीप-गीत उज्ज्वल भविष्य के प्रति उनकी अगाध आस्था से प्रेरित हैं। मुझे 'मधुर-मधुर मेरे दीपक जल' और 'मैं नीर भरी दुःख की बदली' सर्वाधिक पसंद हैं।                                                                                                                    महादेवी जी के पूरक रूप में नीरज जी की रचनाएँ लोक में व्याप्त व्यावहारिक हिंदवी या हिंदुस्तानी को वरीयता देती हैं। नीरज जी की मंचीय प्रस्तुति अपनी मिसाल आप है। नीरज जी के विषय और भाषा समसामयिक पीड़ा को केंद्र में रखकर आम आदमी के मनोभावों को शब्दित करते हैं। नीरज जी की 'कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे' और 'इसीलिये तो नगर नगर बदनाम हो गए मेरे आँसू, मैं उनका हो गया कि जिनका कोई पहरेदार नहीं था' मैं शालेय जीवन से गुनगुनाता रहा हूँ।
प्र.१३ _छंदबद्ध कविता कि किस विधा से आप प्रभावित हैं और क्यों ?
उ.१३ मुझे छांदस और अछांदस दोनों तरह की काव्य विधा पसंद है। मेरे दो अछांदस काव्य संग्रह और ३ छांदस काव्य संग्रह प्रकाशित हुए हैं। दोनों तरह की काव्य रचनाओं का अपना-अपना महत्व है। मुझे गीत-नवगीत सर्वाधिक पसंद हैं। गीत मन की श्रेष्ठ मनोदशाओं को शब्दांकित करता है तो नवगीत समसामयिक यथार्थ को। मूलत: नवगीत भी गीत ही है।
प्र.१४_ नवोदित कवियों के लिए आप क्या सन्देश देना चाहेंगे ?
उ.१४ नवोदित कवि नाम का कोई पृथक वर्ग नहीं होता। कवि केवल कवि होता है। कोई एक रचना कर अमर हो जाता है कोई सहस्त्रों रचनाएँ करने के बाद भी छाप नहीं छोड़ पाता। सामान्यत: हर कवि रचनारंभ करते समय नवोदित और क्रमशः वरिष्ठ कहा जाता है किन्तु ज्येष्ठता ही श्रेष्ठता नहीं होती। जो रचनाकार लेखन कर्म आरम्भ करना चाहते हैं उन्हें यह परामर्श देना चाहता हूँ कि जो भी लिखें अपनी आत्मा की संतुष्टि के लिए लिखें, लोगों की सराहना, संस्थाओं से अभिनन्दन या धनार्जन को लक्ष्य बनाकर न लिखें। लेखन दो तरह से होता है प्रथम मन में उठे विचारों के अनुसार दूसरा किसी पूर्व निर्धारित विषय पर। प्रथम तरह का लेखन ह्रदय प्रधान और दूसरा मस्तिष्क प्रधान होता है। जिस विधा में लिखना चाहते हैं उस विधा की श्रेष्ठ रचनाएँ पढ़ लें, मानक और विधान जान लें, तब लिखें। अपने विचारों को क्रम बद्ध, सटीक शब्द-चयन करते हुए प्रस्तुत करें। भाषिक शुद्धता का ध्यान रखें। काव्य दोषों की जानकारी कर उनसे मुक्त रहने का प्रयास करें। अपनी शैली आप विकसित करें, किसी की नकल न करें। कथ्य, कहन और कथन तीनों में मौलिकता आवश्यक है।
प्र.१५_ आप अभी क्या लिख रहे हैं और भविष्य में क्या लिखना चाहते हैं? 
उ.१५ मैं ३ दशकों से छंद कोष पर काम कर रहा हूँ। ५०० से अधिक नए छंद बन चुके हैं। इसे पूर्ण करना है। 'नीर-क्षीर दोहा यमक' शीर्षक से यमकमय दोहों की सतसई को अंतिम रूप देना है। ३ लघुकथा संकलन प्रकाशन की राह देख रहे हैं। शिशु गीत संग्रह, बाल गीत संग्रह, श्रुंगात गीत संग्रह, नवगीत संग्रह, हाइकु संग्रह, कुण्डलिया संग्रह, हिंदी ग़ज़ल संग्रह, क्षणिका संग्रह, व्यंग्य लेख संग्रह, तकनीकी लेख संग्रह, समीक्षा संग्रह, पुरोवाक संग्रह की सामग्री अंतरजाल पर बिखरी है उसे एकत्र कर पुस्तकाकार देना है। किसी सहृदय प्रकाशक की तलाश है। 

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