दोहा सलिला : 
आचार्य संजीव 'सलिल' 
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'सलिल' स्नेह को स्नेह का, मात्र स्नेह उपहार. 
स्नेह करे संसार में, सदा स्नेह-व्यापार.. 
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स्नेह तजा सिक्के चुने, बने स्वयं टकसाल. 
खनक न हँसती-बोलती, अब क्यों करें मलाल?. 
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जहाँ राम तहँ अवध है, जहाँ आप तहँ ग्राम. 
गैर न मानें किसी को, रिश्ते पाल अनाम.. 
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अपने बनते गैर हैं, अगर न पायें ठौर. 
आम न टिकते पेड़ पर, पेड़ न तजती बौर.. 
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वसुधा माँ की गोद है, कहो शहर या गाँव. 
सभी जगह पर धूप है, सभी जगह पर छाँव.. 
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निकट-दूर हों जहाँ भी, अपने हों सानंद. 
यही मनाएँ दैव से, झूमें गायें छंद.. 
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जीवन का संबल बने, सुधियों का पाथेय. 
जैसे राधा-नेह था, कान्हा भाग्य-विधेय.. 
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तन हों दूर भले प्रभो!, मन हों कभी न दूर. 
याद-गीत नित गा सके, साँसों का सन्तूर.. 
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निकट रहे बेचैन थे, दूर हुए बेचैन. 
तरस रहे तरसा रहे, 'बोल अबोले नैन..
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तनखा तन को खा रही, मन को बना गुलाम.
श्रम करता गम कम 'सलिल', औषध यह बेदाम.
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