कुंडली
देह दुर्ग में विराजित, दुर्ग-ईश्वरी आत्म
तुम बिन कैसे अवतरित, हो भू पर परमात्म?
हो भू पर परमात्म, दुर्ग है तन का बन्धन
मन का बन्धन टूटे तो, मन करता क्रंदन
जाति वंश परिवार, हैं सुदृढ़ दुर्ग सदेह
रिश्ते-नातों अदिख, हैं दुर्ग घेरते देह
**
कुंडली
सरिता शर्माती नहीं, हरे जगत की प्यास
बिन सरिता कैसे मिटे, असह्य तृषा का त्रास
असह्य तृषा का त्रास, हरे सरिता बिन बोले
वंदन-निंदा कुछ करिये, चुप रहे न तोले
'सलिल' साक्षी है, युग-प्राण बचाती भरिता
हरे जगत की प्यास नहीं शर्माती सरिता
***
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें