लघुकथा:
हवा का रुख
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''कलमुँही पैले तो मांय मोंड़ा खों मोहजाल माँ फँसा खें छीन लै गयी, ऐसो जाड़े करो की मोंड़ा नें जीते जी मुड़ के भी नई देखो। मोंड़ा कहें खा के भी चैन नई परो, अब डुकरा-डुकरिया की छाती पे होरा भूंजबे आ गई नासपीटी।''
रोज सवेरे पड़ोस से धाराप्रवाह गालियों और बद्दुआओं को सुनकर हमें कभी शर्म, कभी क्रोध हो आता पर वह सफे डीडी सड़ी पहने चुप-चाप काम करते रहती मानो बहरी हो।
आज अखबार खोलते ही चौंका उसकी चित्र और पी.एस.सी.में चयन का समाचार था। बधाई देने जाऊँ तो मूंड़ मुंडाते ओले न पड़ जाएँ। सोच ही रहा था कि कुछ पत्रकार उसे खोजते हुए पहुँच गए। पहले तो डुकरो सबको भगाती रही पर जब पूरी बात समझ में आई तो अपनी बहू को दुर्गा ,लक्ष्मी, सरस्वती और म जाने काया-क्या कहकर उसका गुण बखानने लगी। सयानी थी, देर न लगाई पहचानने में हवा का रुख।
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